
पुरस्कृत कविताः वो सौदा करती है ....
मजबूरी की आग में तप कर
खुद को निखारती है
फिर अपने जिस्म का सौदा करती है
वो जिस्म बेचती है|
उसके चन्दन से जिस्म से लिपटी
सर्प की कुंडलियों सी आँखें
उसे और भी विषाक्त बनाती है
और रेंगते हुए अदृश्य हाथ
हर रात उसे काटा करते हैं|
बदनाम सी गलियों में खुलती
आवारा खिड़कियों के दरवाजे से
चला आता है
एक बेईमान हवा का झोंका
और उसके जिस्म को
छू-छू कर देखा करता है
पालने में झूलते बच्चे की
सारी चांदनी छीनकर
बीमार अँधेरे में
जीने को मजबूर करता है|
उफ़ ये कैसी बेबसी है ...!
होंठ उदास हैं
पर उनकी लाली हँसती है
पलकों पे सपने अटके हैं
शायद राह भटके हैं
ख्वाहिशों का बाज़ार है
एक से बढकर एक
खरीदार है
अमीर बनने को या
पेट भरने को
अपने सीने पर पत्थर रखती है
और चाक जिगर की सीती है
तब अपने जिस्म का सौदा करती है
पर दरअसल, हर बार
वो अपनी रूह बेचा करती है|
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।