वह कुछ बहकी-बहकी-सी बातें करती है!
चाँदनी की छलनी लिए
रात का कालापन
छानती है पूरी शब..
नीम-नशा में लुढकती हवाओं को
खोंसती है
घास के नाखूनों में
और
बुहारकर चाँद का चेहरा
जमा करती है ओस के कुछ फ़ाहे-
शायद गढनी होती है उसे
एक चादर मीठी-सी
जिसे बिछा सके वो
घास की हड्डियों पर..।
बड़ी फिक्र है उसे
मेरे ख्वाबों की
जो हर बार हीं
लांघकर
अधखुली आँखों को
चल पड़ते हैं
सर्पीली पगडंडियों पर
शायद ढलने उसकी नींदों में।
वह
हर शब
चढाती है आसमान पर
जामुनी रंग का एक कैनवास
और छिड़क देती है
उसपर
दिन भर की उजली,खुशरंग यादे..
वह चाँद
यादों का बही-खाता है
और उसकी सोलह कलाएँ
यादों की जमापूँजी।
वह
कहती है-
चौरासी लाख योनियाँ
कुछ और नहीं
मेरे और उसके प्यार के
विभिन्न पड़ाव हैं
और मनुष्य योनि
हमारा मिलन......
उसकी माने तो
बस शबभर हीं
इंसान इंसान होता है
और दिन आते
उग आती है कीड़े-मकौड़ों की जमात!
वह
हर लम्हा जीती है
मेरे लिए
और हर शब
यूँ हीं बहकी-बहकी बातें करती है।
मैं
शायद नहीं चाहता उसे
या फिर कुछ नहीं चाहता
तभी तो नहीं बहकता उसकी बातों से।
वह
गिनती है
महीने में बस एक हीं अमावस
और मैं
रूह के तीस अमावस
और देह के शून्य अमावस
पर ज़िंदा हूँ।
वह
एक बहकी बातें करने वाली
सुलझी लड़्की
क्यूँ चाहती है मुझे...
क्या पता,
मैं तो उसे उसी तरह सुनता हूँ
जैसे सुनता हूँ अपनी ज़िदगी को।
दोनों इतने से ही खुश हैं शायद..............
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
वह हर लम्हा जीती है बहकी सी बातें करने वाली ...!!
बहुत खूब ...!!
एक बेहतरीन रचना !!
bahut sunder likha hai tanha ji..
वाह! अच्छा लिखा है आपने --
खासकर --वह हर शब-------से ---उग आती है कीड़े मकौड़े की जमात --ने अधिक प्रभावित किया।
कुछ खटक भी रहा है--जैसे --घास की हड्डियों पर
जिस घास से ओस की फाहें मिल रही हैं वह सूखी नोकीली भले ही हो लेकिन उसके लिए हड्डी जैसे शब्द का इस्तेमाल मुझे खटक रहा है --खासकर तब जब ऊपर एक स्थान पर घास के लिए -नाखून- का इस्तेमाल हो चुका है। इसके स्थान पर --बंजर धरती पर --या फिर कुछ और लिखा जाता तो बेहतर होता।
--इसी प्रकार मेरी समझ से दूसरे पैराग्राफ में --छिटक देती है--के स्थान पर छिड़क देती है---का प्रयोग अधिक अच्छा होता। छिटकना से आशय बिखेर देना है और आसमान पर - जामुनी रंग के कैनवाश पर- उजली खुशरंग यादें छिड़की जा सकती हैं।
--अनायास आपकी कविता पर अधिक दिमाग लगा दिया यदि कुछ अधिक लिख गया हो तो अन्यथा न लें मेरी इच्छा अपनी भावनाओं से आपका अवगत कराना ही है । कुल मिलाकर आपकी कविता इतनी दमदार है कि बहुत कुछ सोंचने के लिए विवश कर देती है।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
देवेन्द्र जी!
पहले पैराग्राफ़ में कुछ बदलाव करना तो मुश्किल लग रहा है, हाँ लेकिन दूसरे पैराग्राफ़ में "छिटकना" की जगह "छिड़कना" ज्यादा सही रहेगा, यह मुझे भी महसूस हो रहा है। इसलिए आवश्यक परिवर्त्तन किए देता हूँ।
विस्तार में टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद। नाराज़ क्यों होऊँगा?
-विश्व दीपक
बहुत सुंदर बिम्ब है जैसे जामुनी रंग के कैनवाश पर- उजली खुशरंग यादें क्या सुंदर यदिर चाँद की छन्नी ,
क्याक्या लिखूं मजा आगया .बहुत सुंदर कविता .
बधाई
सादर
रचना
मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ प्रतीकों -अमावस्या का सुंदर प्रयोग है .बधाई
चौरासी लाख योनियाँ
कुछ और नहीं
मेरे और उसके प्यार के
विभिन्न पड़ाव हैं
और मनुष्य योनि
हमारा मिलन......
उसकी माने तो
बस शबभर हीं
इंसान इंसान होता है
और दिन आते
उग आती है कीड़े-मकौड़ों की जमात!
वाह ! तन्हाजी, क्या बात है !
और मैं
रूह के तीस अमावस
और देह के शून्य अमावस
पर ज़िंदा हूँ।
.
वाह ! बहुत सुन्दर लिखा है बधाई !
. देवेन्द्रजी, आपकी की विस्तृत टिप्पणियों में हिन्दयुग्म और कवि मित्रों प्रति आपका विशेष स्नेह महकता होता है
saadar,
वह
एक बहकी बातें करने वाली
सुलझी लड़्की
क्यूँ चाहती है मुझे...
क्या पता,
मैं तो उसे उसी तरह सुनता हूँ
जैसे सुनता हूँ अपनी ज़िदगी को।
दोनों इतने से ही खुश हैं शायद..............
तन्हा जी,
बहुत से विचारों का ताना बाना बुनती यह प्रेम कविता है . सुन्दर है........ आपकी कल्पना...... :)
बधाई!!!
bahut hi acchi rachna hai.
prem ki itni acchi rachna likhne wala vyakti tanha to nahi ho sakta.
bahut khub VD bahi!!
कविता की आखिरी पंक्तियोंn के मुझे खासा प्रभावित किया ...जो भावः इस कविता में उतरने की कोशिश की गयी वो बिलकुल भी आसान नहीं होता ..लेकिन VD आपने बड़ी ही आसानी से वो काम कर दिया.... हाँ ...मैं सोच मैं पढ़ गया कविता पढने के बाद ..पहली नज़र मैं थोडा मुश्किल लगी मुझे कविता लेकिन २-३ बार पढने के बाद प्रभावित हुआ ...हमेशा की तरह अच्छा और नया लिखा है आपने ..
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
बहुत सुंदर रचना है
वह
कहती है-
चौरासी लाख योनियाँ
कुछ और नहीं
मेरे और उसके प्यार के
विभिन्न पड़ाव हैं
और मनुष्य योनि
हमारा मिलन......
अति सुंदर
सादर
अमिता
awesome poem.
बहुत सुन्दर चित्रण किया है आपने. मुबारकबाद.
वह
एक बहकी बातें करने वाली
सुलझी लड़्की
क्यूँ चाहती है मुझे...
क्या पता,
मैं तो उसे उसी तरह सुनता हूँ
जैसे सुनता हूँ अपनी ज़िदगी को।
दोनों इतने से ही खुश हैं शायद.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)