दोस्तो,
मनोज कुमार झा
जन्म- 07 सितम्बर 1976 ई0। बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-माँऊबेहट गाँव में।
शिक्षा - विज्ञान में स्नातकोत्तर
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित ।
चॉम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक इत्यादि बौद्धिकों के लेखों का अनुवाद प्रकाशित।
एजाज अहमद की किताब ‘रिफ्लेक्शन ऑन ऑवर टाइम्स’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित।
सराय/सी. एस. डी. एस. के लिए ‘विक्षिप्तों की दिखन’ पर शोध।
मनोज कुमार झा,
मार्फत- श्री सुरेश मिश्र
दिवानी तकिया, कटहलवाड़ी, दरभंगा-846004
मो0- 099734-10548
E-mail: jhamanoj01@yahoo.com
इन दिनों हम आपको संभावनाशील कवियों की कविताओं से मिलवा रहे हैं। इस क्रम में आप हरेप्रकाश उपाध्याय, रामजी यादव, अंजना बख़्शी, प्रमोद कुमार तिवारी, सुशील कुमार इत्यादि से मिल चुके हैं। आज हम आपका परिचय मनोज कुमार झा से करवा रहे हैं , जिनकी कविता ‘स्थगन’ को वर्ष 2009 का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान किया गया है। यह कविता ‘कथन’ पत्रिका के जुलाई-सितंबर, 2008 में प्रकाशित हुई थी। इस पुरस्कार की संयोजिका और दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान केन्द्र की प्रमुख प्रो॰ अन्विता अब्बी ने हमें बताया कि इस पुरस्कार की स्थापना तार-सप्तक के यशस्वी कवि भारत भूषण अग्रवाल की स्मृति में उनकी पत्नी स्वर्गीय बिन्दु अग्रवाल ने सन् 1979 में की थी। पुरस्कार समिति के निर्णायक मंडल में प्रो. नामवर सिंह, श्री विष्णु खरे, प्रो. केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी एवं अरुण कमल हैं जो हर वर्ष बारी-बारी से वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन करते हैं। इस बार इस क्रम में अरुण कमल निर्णायक थे। जन्म- 07 सितम्बर 1976 ई0। बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-माँऊबेहट गाँव में।
शिक्षा - विज्ञान में स्नातकोत्तर
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित ।
चॉम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक इत्यादि बौद्धिकों के लेखों का अनुवाद प्रकाशित।
एजाज अहमद की किताब ‘रिफ्लेक्शन ऑन ऑवर टाइम्स’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित।
सराय/सी. एस. डी. एस. के लिए ‘विक्षिप्तों की दिखन’ पर शोध।
मनोज कुमार झा,
मार्फत- श्री सुरेश मिश्र
दिवानी तकिया, कटहलवाड़ी, दरभंगा-846004
मो0- 099734-10548
E-mail: jhamanoj01@yahoo.com
स्थगन
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार 2008
स्थगन कविता को निरीक्षण की नवीनता, बिम्बों की सघनता और कथन की अप्रत्याशित भंगिमाओं के लिए रेखांकित किया जाता है। बार-बार घटित होने वाले एक पुरातन अनुभव और स्थिति को बिल्कुल नयी तरह से रचते हुए यह कविता भारतीय ग्राम-जीवन को अद्यतन संदर्भों में प्रस्तुत करती है। हमारे समाज के निर्धनतम वर्ग की लालसा और जीवट को अभिव्यक्त करती यह कविता हमें पुनः उन लोगों और दृश्यों की ओर ले जाती है जो बाहर छूटते जा रहे हैं।
मनोज कुमार झा की कविताएँ जो हाल के दिनों में प्रकाशित हुई हैं उन्होंने अपने गहन इंद्रिय बोध, वैचारिक निजता और साहसिक भाषिक आचरण से सहृदय पाठकों को आकर्षित किया है। दरभंगा के एक धुर गाँव मउ बेहट में रहकर सृजनरत मनोज की कविताओं की सामग्री प्रायः गाँवों के जीवन से आती है, लेकिन अपनी अंतिम निर्मिति में वह विचारप्रवण तथा वैश्विक होती है मानों यह सिद्ध कर रही हो कि कविता का जीवन स्थानबद्ध होते हुए भी सार्वदेशिक होता है। मैथिली के शब्दों-मुहावरों से संपृक्त उनकी कविताएँ हिन्दी को एक सलोनापन देती हैं और सर्वथा नये बिम्बों की शृंखला अभी के निचाट वक्तव्यमय काव्य मुहावरे को अभिनंदनीय संश्लिष्टता। 1976 में जन्मे मनोज कुमार झा आजीविका की अनिश्चितता के बावजूद निरन्तर अध्ययनशील और रचनाकर्म में संलग्न हैं। उन्होंने अनेक अनुवाद किए हैं, निबंध भी लिखे हैं और वह सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में भी सक्रिय रहे हैं।
इस वर्ष का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है।
अरुण कमल
28.07.2009
पटना
जेठ की धहधह दुपहरिया मेंस्थगन कविता को निरीक्षण की नवीनता, बिम्बों की सघनता और कथन की अप्रत्याशित भंगिमाओं के लिए रेखांकित किया जाता है। बार-बार घटित होने वाले एक पुरातन अनुभव और स्थिति को बिल्कुल नयी तरह से रचते हुए यह कविता भारतीय ग्राम-जीवन को अद्यतन संदर्भों में प्रस्तुत करती है। हमारे समाज के निर्धनतम वर्ग की लालसा और जीवट को अभिव्यक्त करती यह कविता हमें पुनः उन लोगों और दृश्यों की ओर ले जाती है जो बाहर छूटते जा रहे हैं।
मनोज कुमार झा की कविताएँ जो हाल के दिनों में प्रकाशित हुई हैं उन्होंने अपने गहन इंद्रिय बोध, वैचारिक निजता और साहसिक भाषिक आचरण से सहृदय पाठकों को आकर्षित किया है। दरभंगा के एक धुर गाँव मउ बेहट में रहकर सृजनरत मनोज की कविताओं की सामग्री प्रायः गाँवों के जीवन से आती है, लेकिन अपनी अंतिम निर्मिति में वह विचारप्रवण तथा वैश्विक होती है मानों यह सिद्ध कर रही हो कि कविता का जीवन स्थानबद्ध होते हुए भी सार्वदेशिक होता है। मैथिली के शब्दों-मुहावरों से संपृक्त उनकी कविताएँ हिन्दी को एक सलोनापन देती हैं और सर्वथा नये बिम्बों की शृंखला अभी के निचाट वक्तव्यमय काव्य मुहावरे को अभिनंदनीय संश्लिष्टता। 1976 में जन्मे मनोज कुमार झा आजीविका की अनिश्चितता के बावजूद निरन्तर अध्ययनशील और रचनाकर्म में संलग्न हैं। उन्होंने अनेक अनुवाद किए हैं, निबंध भी लिखे हैं और वह सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में भी सक्रिय रहे हैं।
इस वर्ष का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्रदान करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है।
अरुण कमल
28.07.2009
पटना
जब पाँव के नीचे की जमीन से पानी खिसक जाता है
चटपटाती जीभ ब्रह्मांड को घिसती है
क़तरा-क़तरा पानी के लिए
सभी लालसाओं को देह में बाँध
सभी जिज्ञासाओं को स्थगित करते हुए
पृथ्वी से बड़ा गलता है गछपक्कू आम
जहाँ बचा हरता है कंठ भीगने भर पानी
जीभ भीगने भर स्वाद
और पुतली भीगने पर जगत
चूल्हे की अगली धधक के लिए पत्ता खररती
पूरे मास की जिह्वल स्त्री अधखाये आम का कट्टा लेते हुए
गर्भस्थ शिशु का माथा सहला
सुग्गे के भाग्य पर विचार करती है
शिशु की कोशिकाओं की आदिम नदियों में
आम का रस चूता है
और उसकी आँखें खुलती जाती हैं उस दुनिया की तरफ
जहाँ सर्वाधिक स्थान छेक रखा है
जीवन को अगली साँस तक
पार लगा पाने की इच्छाओं ने
माथे के ऊपर से अभी-अभी गुजरा वायुयान
गुजरने का शोर करते हुए
ताका उत्कंठित स्त्री ने
आदतन ठीक किया पल्लू जिसे फिर गिर पड़ना था
बढ़ी तो थीं आँखें आसमान तक जाने को
पर चित्त ने धर लिया अधखाया आम
और वक्त होता तो कहता कोई
शिशु चंद्र ने खोला है मुँह
तरल चाँदनी चू रही है
अभी तो सारी सृष्टि सुग्गे की चोंच में
कंपायमान।
हम मनोज की कविताओं की अगली किश्त जल्द ही लेर उपस्थित होंगे।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
4 कविताप्रेमियों का कहना है :
दिल को छु देने वाली मार्मिक ,गम्भीर कविता है .बधाई
संवेदनशील् कवुता के लिये आभार और मनोज जी को बहुत बहुत बधाई
कविता वाकई सर्वश्रेष्ठ है.
माथे के ऊपर से अभी-अभी गुजरा वायुयान
गुजरने का शोर करते हुए
ताका उत्कंठित स्त्री ने
आदतन ठीक किया पल्लू जिसे फिर गिर पड़ना था
बढ़ी तो थीं आँखें आसमान तक जाने को
पर चित्त ने धर लिया अधखाया आम
और वक्त होता तो कहता कोई
शिशु चंद्र ने खोला है मुँह
तरल चाँदनी चू रही है
अभी तो सारी सृष्टि सुग्गे की चोंच में
कंपायमान।
अजब तमाशा – गजब तमाशा
हिंदी कविता बचाने का महान उद्योग अशोक कुमार पांडेय जी कर रहे हैं वो भी अपने स्वनामी महाकवि अशोक वाजपई के साथ मिलकर. एक ओर पाण्डेय जी विनायक सेन को बचाने के उपक्रम में लगे थे अब कविता बचाने में लग गए हैं. कविता इतनी बेचारी हो गई है कि पाण्डेय जी की मोहताज हो गई है और उनके श्रीचरणों में लोट लगा रही है, गुहार कर रही है कि मुझे बचा लो हे दयानिधान. और दयानिधान अब वाजपई जी के अभय में हैं, कल को विश्वरंजन जी के अभय में हो जायेंगे. अब भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सारे प्रगतिशील विश्वरंजन जी के शरणागत हो चुके हैं, वे हिंदी साहित्य को बचा रहे हैं. पाण्डेय जी सच कहिये कि आपको कविता कि इतनी चिंता कब से हो गई ? वैतरणी आप को पार करनी है वाजपई जी कि पूंछ पकड़ कर या कविता को. नामवर जी और वाजपई जी का वरद हस्त मिल जाये फिर क्या है मिल गई मंजिल. भाई वह क्या खूब हिकमत है ?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)