वह कुछ बहकी-बहकी-सी बातें करती है!
चाँदनी की छलनी लिए
रात का कालापन
छानती है पूरी शब..
नीम-नशा में लुढकती हवाओं को
खोंसती है
घास के नाखूनों में
और
बुहारकर चाँद का चेहरा
जमा करती है ओस के कुछ फ़ाहे-
शायद गढनी होती है उसे
एक चादर मीठी-सी
जिसे बिछा सके वो
घास की हड्डियों पर..।
बड़ी फिक्र है उसे
मेरे ख्वाबों की
जो हर बार हीं
लांघकर
अधखुली आँखों को
चल पड़ते हैं
सर्पीली पगडंडियों पर
शायद ढलने उसकी नींदों में।
वह
हर शब
चढाती है आसमान पर
जामुनी रंग का एक कैनवास
और छिड़क देती है
उसपर
दिन भर की उजली,खुशरंग यादे..
वह चाँद
यादों का बही-खाता है
और उसकी सोलह कलाएँ
यादों की जमापूँजी।
वह
कहती है-
चौरासी लाख योनियाँ
कुछ और नहीं
मेरे और उसके प्यार के
विभिन्न पड़ाव हैं
और मनुष्य योनि
हमारा मिलन......
उसकी माने तो
बस शबभर हीं
इंसान इंसान होता है
और दिन आते
उग आती है कीड़े-मकौड़ों की जमात!
वह
हर लम्हा जीती है
मेरे लिए
और हर शब
यूँ हीं बहकी-बहकी बातें करती है।
मैं
शायद नहीं चाहता उसे
या फिर कुछ नहीं चाहता
तभी तो नहीं बहकता उसकी बातों से।
वह
गिनती है
महीने में बस एक हीं अमावस
और मैं
रूह के तीस अमावस
और देह के शून्य अमावस
पर ज़िंदा हूँ।
वह
एक बहकी बातें करने वाली
सुलझी लड़्की
क्यूँ चाहती है मुझे...
क्या पता,
मैं तो उसे उसी तरह सुनता हूँ
जैसे सुनता हूँ अपनी ज़िदगी को।
दोनों इतने से ही खुश हैं शायद..............
-विश्व दीपक ’तन्हा’