फटाफट (25 नई पोस्ट):

कृपया निम्नलिखित लिंक देखें- Please see the following links

दिपाली आब की त्रिवेणियाँ


1.
आपकी आमद से राहें खुल गईं
बादलों से जैसे चमके रौशनी

ज़हन में कब से जमी थी मायूसी।

2.
आप से मिल के मेरा हाल ऐसा होता है
ज्यूँ समंदर में दिखे अक्स-ए-माह-ए-दोशीजा

दो-दो चेहरे लिए फिरती हूँ महीनों मैं भी।


3.
मेरे चेहरे पे शिकन पढ़ लेती हैं
आँखों में आई थकन पढ़ लेती हैं

बड़ी ही तेज़ तर्रार हैं, आँखें उसकी।

4.
बड़ी अना में कह गए थे वो जाते-जाते
अबकि उठे तो ना लौटेंगे तेरे दर पे सनम

लौट कर आए तो कहने लगे 'दिल भूल गए थे'।

5.
मुझे बे बात के रिश्तों में उलझा के
चल दिया बस अपनी बात बना के

बड़ा मतलबी निकला ये वक़्त।

6.
तेरी याद का एक लम्हा पिया
साँस आने लगी, जीना आसाँ हुआ

दमे की बीमारी है ज़िन्दगी गोया।

7.
खलिश-सी है कि दिल के किसी कोने में
मज़ा नहीं आता अब तो मिल के रोने में

ऐ ग़म अब तू उनके घर जा के रह।

8.
तुम्हारी आँखों से गुज़रते हुए डर लगता है,
जगह-जगह है भरा पानी, और फिसलन है

ना जाने कब से मानसून ठहरा है यहाँ।

कवयित्री- दिपाली आब

मेरे प्यारे भैया.. राखी का त्यौहार मुबारक तुम्हें


जब भी बाँधी है
तेरी कलाई पे
अपनी दुआओं की तितली मैंने
तुझे हर पल, हर घडी मुश्किल की
साथ पाया भी है मैंने
अबकी फिर से सोचती हूँ
एक तितली दुआओं की
सजा के स्नेह के रंगों से
बाँध दूँ फिर से तेरी कलाई पे
शायद फिर से तेरी नज्मों की गुल्लक से
निकाल के कुछ शब्द
बुन के दे दे मुझे
एक नज़्म तू तोहफे में
मैं दुआएं दूँ तुझे लम्बी उम्रों की
तू वचन दे मुझे साथ रहने का
और चलता चले हर डगर पे सदा
होता जाये सुगम फिर ये जीवन सदा !

मेरे प्यारे भैया.. राखी का त्यौहार मुबारक तुम्हें

कवयित्री- दीपाली आब

जून 2010 की यूनिप्रतियोगिता के परिणाम


हर महीने के पहले सोमवार को हिन्द-युग्म हिन्दी कविता के उदीयमान सितारों को वेब पर टाँकता है। हिन्दी कविता का यह दीया पिछले 42 महीनों से रोशन है, जिसमें यूनिकवि एवं यूनिपाठक प्रतियोगिता के प्रतिभागी अपनी कलम और पठन का तेल अनवरत रूप से डाल रहे हैं। जून 2010 माह की प्रतियोगिता कई मामलों में खास है। पिछले 2-3 महीनों से हमारी भी और हमारे गंभीर लेखकों की भी यह शिकायत थी कि पाठकों की प्रतिक्रियाएँ अपेक्षित संख्या और तीव्रता के साथ नहीं मिल रही हैं। लेकिन बहुत खुशी की बात है कि जून माह में बहुत से पाठकों ने कविताओं को प्रथम वरीयता देकर, पढ़ा और हमारा और कवियों का मार्गदर्शन तथा प्रोत्साहन किया।

जून 2010 की प्रतियोगिता की दूसरी खासियत यह रही कि कविताओं का स्तर बहुत बढ़िया रहा। जब हमारे निर्णायकों तक एक ही दर्जे की ढेरों कविताएँ पहुँचती हैं तो उन्हें मुश्किल भी होती है और एक तरह की खुशी भी। आप खुद अंदाज़ा लगाइए कि शुरू की 7 कविताओं को निर्णय प्रक्रिया के पहले चरण के सभी 3 जजों और दूसरे चरण के दो जजों ने पसंद किया और इस तरह से अंक दिये कि उसका स्थान लगभग एक जैसा बन रहा था। कुल 58 प्रतिभागी थे। पहले चरण के निर्णय के बाद 28 कविताओं को दूसरे चरण के निर्णय के लिए प्रेषित किया गया। हमारे लिए यूनिकवि चुनना बहुत मुश्किल भरा काम था। इनमें से 2 कवि पहले भी हिन्द-युग्म के यूनिकवि रह चुके हैं। दो युवा कवि हिन्द-युग्म पर लम्बे समय से लिख रहे हैं और ग़ज़ल लिखने में महारत है। दोनों मूलरूप से ग़ाज़ीपुर (उ॰प्र॰) से हैं। एक फिलहाल इलाहाबाद में हैं और दूसरे दिल्ली में। इन्हीं में से एक कवि आलोक उपाध्याय 'नज़र' को हम जून 2010 का यूनिकवि चुन रहे हैं।


यूनिकवि- आलोक उपाध्याय 'नज़र'

उपाध्याय मूलतः उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के टोकवा गांव के निवासी हैं। वर्तमान में Crest Logix Softseve Pvt Ltd इलाहबाद में बतौर Software Engineer काम कर रहे हैं। साथ ही IGNOU से MCA की पढ़ाई भी कर रहे हैं। बचपन से ही उर्दू साहित्य और हिंदी साहित्य के प्रति झुकाव रहा है। हालाँकि पारिवारिक पृष्ठभूमि साहित्यिक नहीं थी लेकिन इनकी माँ ने अपने मन की कोमलता बचपन में ही इनके मन के अन्दर कहीं डाल दी थी। वक़्त-वक़्त पर मिली उपेक्षाओं और एकाकीपन ने उस कोमल मन पर प्रहार किया तो ज़ज्बात और सोच कागजों पर उभरने लगे। कवि की 2 ग़ज़लें 38 यूनिकवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में भी संकलित हैं।

फोन संपर्क- 9307886755

यूनिकविता- ग़ज़ल

जिंदगी के अंदाज़ जब नशीले हो गए
दुःख के गट्ठर और भी ढीले हो गए

'मरता क्या न करता' कदम दर कदम
और जीने के उसूल बस लचीले हो गए

टीस सी उठती है हमेशा ही दिल में
दफन सारे ही दर्द क्यूँ नुकीले हो गए

कल से देखोगे न ये शिकन माथे पे
बिटिया सायानी थी हाथ पीले हो गए

ये बेवक्त दिल का मानसून तो देखिये
जो संजोये थे ख्वाब वो गीले हो गए

जहाँ तक तुम थे तो वादियाँ साथ थी
तुम गए क्या ! रास्ते पथरीले हो गए

हीर का शहर बहा वक़्त के सैलाब में
और ख़ाक सब रांझों के कबीले हो गए

'नज़र' मिलने मिलाने में सब्र तो रखिये
गुस्ताख़ हो गए तो कभी शर्मीले हो गए
______________________________________________________________
पुरस्कार और सम्मान-   विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता तथा हिन्द-युग्म की ओर से प्रशस्ति-पत्र। प्रशस्ति-पत्र वार्षिक समारोह में प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति मे प्रदान किया जायेगा। समयांतर में कविता प्रकाशित होने की सम्भावना।

इनके अतिरिक्त हम जिन अन्य 9 कवियों को समयांतर पत्रिका की वार्षिक सदस्यता देंगे तथा उनकी कविता यहाँ प्रकाशित की जायेगी उनके क्रमशः नाम हैं-

सत्यप्रसन्न
स्वप्निल तिवारी आतिश
एम वर्मा
सुलभ जायसवाल
हिमानी दीवान
अभिषेक कुशवाहा
नमिता राकेश
प्रभा मजूमदार
संगीता सेठी


हम शीर्ष 10 के अतिरिक्त भी बहुत सी उल्लेखनीय कविताओं का प्रकाशन करते हैं। इस बार हम निम्नलिखित 9 अन्य कवियों की कविताएँ भी एक-एक करके प्रकाशित करेंगे-

सनी कुमार
वसीम अकरम
अविनाश मिश्रा
ऋतु सरोहा ’आँच’
अनवर सुहैल
शील निगम
आशीष पंत
योगेंद्र वर्मा व्योम
प्रवीण कुमार स्नेही

उपर्युक्त सभी कवियों से अनुरोध है कि कृपया वे अपनी रचनाएँ 1 अगस्त 2010 तक अन्यत्र न तो प्रकाशित करें और न ही करवायें।

जैसाकि हमने बताया कि हिन्द-युग्म पर बहुत से पाठक पूरी ऊर्जा के साथ सक्रिय हैं। इन्हीं में से एक हैं दीपाली आब, जो खुद एक अच्छी कवयित्री भी हैं और सच कहने में विश्वास रखती हैं। अपनी टिप्पणियों से कवियों का प्रोत्साहन करती हैं और बेहतर लिखने की प्रेरणा देती हैं। हमने इनको जून 2010 की यूनिपाठिका चुना है।

यूनिपाठिका- दीपाली आब

दीपाली सांगवान 'आब' दिल्ली से हैं और कविता वाला दिल रखती हैं। ये चाहती हैं कि युवा पीढी में भी साहित्य के प्रति प्रेम जागृत हो। ये मानती हैं कि आजकल के माहौल में जिस प्रकार की शायरी पनप रही है वो शायरी को धीरे धीरे दीमक की भाँति खा रही है। कविता पढने और लिखने का शौक इन्हें बचपन से ही रहा है। दीपाली इसी बात को ऐसे कहती हैं कि कविता इनका प्रेम है। संवेदनाओं को उजागर करना इन्हें अत्यंत प्रिय है, मनुष्य की अनेक संवेदनाएं ऐसी होती हैं जो अनछुई, अनसुनी रह जाती हैं, उन्ही संवेदनाओं को ये सामने लाने का प्रयास करती हैं। इनका यही प्रयास है कि जितना इन्होंने सीखा है, उसे दूसरो तक भी पहुँचा पायें। फैशन डिजाइनिंग का कोर्स पूरा करने के उपरांत दिल्ली में ही एक डिजाइनर स्टोर संभालती हैं। और साथ ही साथ उच्च-स्तरीय डिग्री को भी हासिल करने के लिए प्रयासरत हैं।

पुरस्कार- समयांतर की 1 वर्ष की मुफ्त सदस्यता । हिन्द-युग्म की ओर से प्रशस्ति-पत्र।

इनके अतिरिक्त डॉ॰ अरुणा कपूर ने खूब पढ़ा और टिप्पणियाँ की। इन्हें भी समयांतर की वार्षिक सदस्यता निःशुल्क प्रदान की जायेगी।

हिन्द-युग्म दिसम्बर 2010 में वर्ष 2010 के वार्षिकोत्सव का आयोजन करेगा जिसमें यूनिकवियों और पाठकों को सम्मानित करेगा। पाठकों से अनुरोध है कि आप कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी ज़रूर करें ताकि यूनिपाठक का पदक भी आपके नाम हो सके।

हम उन कवियों का भी धन्यवाद करना चाहेंगे, जिन्होंने इस प्रतियोगिता में भाग लेकर इसे सफल बनाया। और यह गुजारिश भी करेंगे कि परिणामों को सकारात्मक लेते हुए प्रतियोगिता में बारम्बार भाग लें। इस बार शीर्ष 19 कविताओं के बाद की कविताओं का कोई क्रम नहीं बनाया गया है, इसलिए निम्नलिखित नाम कविताओं के प्राप्त होने से क्रम से सुनियोजित किये गये हैं।

संतोष गौड़ ’राष्ट्रप्रेमी’
दीपाली आब
दीपक बेदिल
कविता रावत
सुधीर गुप्ता ’चक्र’
रिम्पा परवीन
राजेंद्र स्वर्णकार
अपर्णा भटनागर
नीलेश माथुर
सुरेंद्र अग्निहोत्री
तरुण जोशी नारद
ब्रजेंद्र श्रीवास्तव उत्कर्ष
प्रकाश जैन
अमित चौधरी
अमिता निहलानी
नीलाक्षी तनिमा
सुरेखा भट्ट
अविनाश रामदेव
अमिता कौंडल
अनिल चड्डा
उषा वर्मा
तरुण ठाकुर
ओम राज पांडेय ’ओमी’
ऋषभ मिश्रा
सुमन मीत
रामपती कश्यप
चंद्रमणि मिश्रा
प्रदीप शुक्ला
अश्विनी राय
वेदना उपाध्याय
अवनीश सिंह चौहान
अमित अरुण साहू
शिवम शर्मा
दीपक वर्मा
कुमार देव
अंतराम पटेल
कैलाश जोशी
लोकेश उपाध्याय
अनरूद्ध यादव

दीपाली आब की 7 क्षणिकाएँ


भूख

भूख लगी है
"जानम" अब कुछ लफ्ज़ खिला दो
कबसे शांत खलाओं में
तेरी एक गाली को ढूँढ रहा हूँ
जिसको
तुमने ये कह कर फेंका था
"जाओ, नहीं देती.."

भूख लगी है "जानम"
एक गाली दे दो
अल्लाह रहम करेगा...!!

अंतर

लव यू मॉम
लव यू डैड
कह के घर से निकला
मेट्रो में सीट के लिए
एक अंकल से झगडा किया

क्या संवेदनाएँ
चेहरों की मोहताज होती हैं?


मौत

रात सिसकियों में
काटी थी इंतज़ार ने
सुबहा
तेरी आवाज़ की
बूँदें पी कर
आँखें मूँद ली


अधूरापन

कितनी अजीब बात है
तुम थे तो सारे रिश्ते तुम्हारे
मेरे थे
पर मेरी कोई पहचान नही थी

आज तुम नही
पर मैं खुद से मिल पाई
यह अधूरापन
सच कितना पूरा है..!!

चोट

कुछ शोर-सा हुआ है भीतर
कुछ टूट गया शायद
नींद में थे एहसास
कोई लम्हा
चुभ गया पाँव में

कुछ ख्वाब गिर गए
मोहब्बत के हाथ से
दिल संभालो
ज़रा नाजुक है...!!


दिल के दौरे

मुद्दतों बाद
उसने मेरा नाम लिया
मैंने
चुपके से
अपने दिल को थाम लिया
दिल के दौरे
अक्सर
ज्यादा ख़ुशी से आते हैं॰॰

चालाक दिल

चेहरे को छू के
जब नर्म-सर्द हवा जाती है
आँखों पे तेरे
कोसे एहसास की
याद दिलाती है

चालाक दिल
तुझे याद करने के बहाने ढूँढ़े..

कवयित्री- दीपाली आब

तेरी आवाज़ क्यूँ नहीं मिलती...


दीपाली आब हिन्द-युग्म के सक्रियतम पाठकों और लेखकों में से एक है। प्रस्तुत कविता जिसने मई माह की यूनिप्रतियोगिता में 15वाँ स्थान बनाया है, की रचयित्री आब ही हैं।

कविता: तेरी आवाज़ क्यूँ नहीं मिलती

तेरी आवाज़ क्यूँ नहीं मिलती

कहते हैं फ़ज़ाओं में
अल्फाज़ तैरते रहते हैं
जुबाँ से फिसल जाने के बाद

वही है रेशमी चाँदनी अब भी
वही है नर्म संदली सी हवा
गेसू-ए-शब अब भी
उतनी ही तारीक है
इसके ही किसी ख़म में जा उलझी होगी
तेरी आवाज़
मुझे देख कर छुपी होगी

है यकीं मुझको वो यहीं होगी
खामशी* ओढ़ कर के सोयी नहीं
तेरी आवाज़ अब भी जिन्दा है

वरना इक वक्फा ही तो गुज़रा है
अभी तो तुमको ठीक से मैंने
अलविदा भी नहीं कहा जानाँ

तेरी आवाज़ जो मिल जाये मुझे
बाँध के रख लूँ उसको दामन से

आखिरी लफ्ज़ हैं तेरे हमदम
ऐसे जाया न कहीं हो जाए

ढूँढ़ती फिरती हूँ हवाओं में
चाँद के, तारों के दालान में
तेरी आवाज़ पर नहीं मिलती
तेरी आवाज़ क्यूँ नहीं मिलती...!!

*खामोशी

माँ के लिए एक ख़त


माँ!

कहने को इस शहर से रिश्ता
साल भर का हो गया है
अब तक तो इसे चलना सीख लेना था
पर जाने क्यूँ माँ
इसे बीमारी लग गई है, अकेलेपन की
और ये रिश्ता, अपाहिज हो गया है
सोचा था इस शहर के रिश्ते से
नए रिश्ते मिलेंगे, मगर
यहाँ रिश्ते मोबाइल में बंद रहते हैं
एसएसएस पर पलते हैं
कोई भूली-सी हँसी
या कोई फीकी-सी डाँट
बस इतनी-सी है अब तक की जमापूँजी माँ

दौड़ में शामिल हैं, या खुद से भागते हैं
इस शहर के लोग, जाने किस जल्दी में रहते हैं

बहुत तरसती हूँ माँ
फातिमा बुआ की डांट को, और पिंकी बुआ के दुलार को
कुच्हू की झगड़ने की आदत को
लवली दीदी के प्यार को
यहाँ पड़ोस में रिश्ते नहीं मिलते माँ
बस लोग हैं, जिन्हें कहने को पडोसी कहते हैं
यहाँ की रिश्ते तो जैसे सोये हुए रहते हैं

कुछ दिन हुए
शर्मा आंटी भी घर बदल गई
तुमसी बस वो ही थी
वो भी चली गई
डाँटी थी, तो बचपन याद आता था
और जब परांठे खिलते हुए, सर पे हाथ फेरती थी
मैं अपने सारे गम भूल जाती थी

याद है माँ
जब मैं रूठ जाती थी
तू मेरे लिए, खोये की बर्फी बनती थी
जाते जाते, शर्मा आंटी डिब्बा भर दे गई हैं
उन्हें खाती हूँ तो रोना आता है
मीठा इतना तीखा कभी नहीं लगा माँ

कहते हैं भगवान् हर जगह नहीं होता
तभी माँ होती है अपने बच्चों के पास
मेरे पास न तो तू है, न भगवान्...!!

तेरी बेटी।

कवयित्री- दीपाली आब

देर तलक क्यूँ रोते हैं शजर


तुम
किसी पानी की लहर से आये
मेरा रोम रोम
अपने नूर से भिगो गए
मैं तन्हा, अब तलक
तेरी आमद को महसूस कर रही हूँ
जबकि तुम कब के जा चुके
दर्द बूँद बूँद कर के टूटता है
तो एहसास होता है
बारिश के जाने के बाद
देर तलक
क्यूँ रोते हैं शजर!!

कवयित्री- दीपाली आब

दीपाली आब की क्षणिकाएँ


दीपाली (दिपाली) आ लम्बे समय से हिन्द-युग्म से जुड़ी हैं। सम्भावनाशील कवयित्री हैं। आज हम इनकी कुछ लघु-कविताएँ (क्षणिकाएँ) प्रकाशित कर रहे हैं।

1)
लोग कहते हैं
एक कहानी ख़त्म होती है
तो
दूसरी शुरू हो जाती है..

या तो वो झूठ कहते हैं
या
तू मेरी ज़िन्दगी के
आखिरी सफ्हे के
हाशिये तक फ़ैल गया है
और इसके आगे ज़िन्दगी नहीं है..!!

2)
मेरे चेहरे की झुर्रियां
सिलवटें हैं वक़्त की
उम्र हो गई है
अब नूर भी गया चेहरे का

अबकी आओ तो अपने नर्म हाथों से
इस्त्री कर जाना
शायद मैं फिर से खूबसूरत दिखूं....!!

3)
ज़मीं से कुछ ऊपर उठ कर
लोग कितने छोटे नज़र आते हैं
दिखाई भी नहीं देते

तुमसे उभर कर
आज सोचती हूँ
तुम्हारा ग़म
कितना बौना हो गया है
दर्द का
एहसास ही नहीं होता..!!

4)
वो लौट आएगा एक रोज़
इसी उम्मीद में मैंने
दरवाजा घर का
खुला ही रखा

एक एक करके
सब रिश्ते
उसी दरवाज़े से होकर
गुज़र गए..!!

दिपाली आब

जिस दिन खुदा की नज़र हटेगी


तू और मैं
दो अलग जिस्म
जुदा रूह बेशक हों
बेशुभा
दोनों के मायने अलग हों
तू तू है
मेरे और ही रंग हैं
हाँ.., सच है
तू और मैं
ज़िन्दगी के इस
मुअम्मे के
छोर के दो हर्फ़ हैं...

लेकिन
जिस दिन
खुदा की नज़र
हटेगी
उस वक़्त
तू और मैं
मौका देख
उस से नज़र बचा कर
चुपके से आ मिलेंगे
और तेरे मेरे बीच
न कोई मज़हब
न जात, न धर्म
और न ही कोई रिश्ता आएगा
और उस दिन
तू और मैं
मिलकर 'हम' बनायेंगे
और हमारे नए मायने
लोग सदियों दोहराएँगे....!!!

दिपाली आब

'मैं' एक पूरा झूठ बन गई


आज हम लेकर उपस्थित हैं दिपाली 'आब' की एक कविता। उल्लेखनीय है कि इनकी एक कविता ने पिछले माह की प्रतियोगिता में भी शीर्ष 20 में स्थान बनाया था।

रचना- मैं और तू

'मैं' एक पूरा झूठ हूँ
और 'तू' एक मुकम्मिल सच

'तू' और 'मैं'
ज़िन्दगी की माला के छोर थे
जब बिछड़े तो
इश्क मोतियों की तरह बिखर गया

तू धागा ले गया कशिश का
मैंने इश्क के बिखरे मोती
आँखों में समेट लिए
तूने नए मोती तलाश लिए
मैंने अपने मोती
तेरी याद को तोहफे में दे दिए

'तू' मेरा प्यार है आज भी
'तू' आज भी मुकम्मिल सच है
तूने कहा था
'मैं' तेरी जान हूँ
'मैं' एक पूरा झूठ बन गई...!!


प्रथम चरण मिला स्थान- इक्कीसवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- तेरहवाँ

इंतज़ार एक ठण्ड है


हिन्द-युग्म की मई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में बहुत से नये और युवा प्रतिभागियों ने हमें अपनी कविताएँ भेजी और यह एहसास भी कराया कि नई कलम में भी नया ज़ादू है। दिल्ली में रहने वाली युवा कवयित्री दीपाली, 'आब' तखल्लुस से कविताएँ लिखती हैं। ये चाहती हैं कि युवा पीढी में भी साहित्य के प्रति प्रेम जागृत हो। ये मानती हैं कि आजकल के माहौल में जिस प्रकार की शायरी पनप रही है वो शायरी को धीरे धीरे दीमक की भाँति खा रही है। कविता पढने और लिखने का शौक इन्हें बचपन से ही रहा है। दीपाली इसी बात को ऐसे कहती हैं कि कविता इनका प्रेम है। संवेदनाओं को उजागर करना इन्हें अत्यंत प्रिय है, मनुष्य की अनेक संवेदनाएं ऐसी होती हैं जो अनछुई, अनसुनी रह जाती हैं, उन्ही संवेदनाओं को ये सामने लाने का प्रयास करती हैं। इनका यही प्रयास है कि जितना इन्होंने सीखा है, उसे दूसरो तक भी पहुँचा पायें। फैशन डिजाइनिंग का कोर्स पूरा करने के उपरांत दिल्ली में ही एक डिजाइनर स्टोर संभालती हैं। और साथ ही साथ उच्च-स्तरीय डिग्री को भी हासिल करने के लिए प्रयासरत हैं।

कविता- ठण्ड

चांदनी का पैराहन*
पुराना हो चला है
घिस गया है
रंग भी जा चुका है
कितनी ही रातों
और दिनों को
तड़प के अलाव में
डाल चुकी हूँ
इंतज़ार की ठण्ड है
न जाती है
न कम होती है....
ठण्ड
अब दर्द बन रही है
इस से पहले
कि मैं रूह बचाने को
जिस्म उतार के
अलाव में डाल दूँ
चले आओ....!!

*पैराहन: लिबास


प्रथम चरण मिला स्थान- सातवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- सोलहवाँ