सभी पाठकों को मातृ-दिवस की बधाइयाँ। आज इस अवसर पर हम हिन्द-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता के अप्रैल अंक की प्रतियोगिता से एक कविता प्रकाशित कर रहे हैं। इस कविता के रचनाकार प्रदीप कुमार पाण्डेय गंगा-यमुना और सरस्वती के किनारे इलाहाबाद के छोटे से गांव में पैदा हए। गांव के स्कूल से ही इनकी पढ़ाई हुई। इसी दौरान राजनीतिक गतिविधयों में रुचि बढ़ी। इविंग क्रिश्चियन कालेज से बी॰ए॰ करने के दौरान छात्र राजनीति में सक्रिय हुए। 2002 में छात्रसंघ महामंत्री पद का चुनाव लड़े, हार गये, लेकिन 2003 में पुनः लड़े और जीत भी गये। यहीं पत्रकारिता के कीड़े ने काटा और पहुँच गये बनारस हिंदू विवि (बीएचयू)। पत्रकारिता में एम॰ए॰ किया। 2005 में पढाई पूरी की और असल इम्तहान शुरू हुआ। 2005 से रोज इतिहास को समय के पन्नों में दर्ज कर रहे हैं। फिलहाल इंदौर में हैं और एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में सेवाएं दे रहे हैं।
इन्हें नहीं लगता कि ये कवि हैं। जो कुछ दिल से आवाज आई शब्दों की माला पिरो देते हैं। किसी को सुनाया तो उसने कहा कविता है।
संपर्क- pspandey26@gmail.com
आज इनकी कविता के साथ हिन्द-युग्म की चित्रकार स्मिता तिवारी का एक चित्र भी प्रकाशित रहे हैं।
कविता- दिल से....
आज भी जब मुझे नींद आती नहीं
गिन के तारे कटती हैं रातें मेरी,
दर्द मेरा जब कोई समझता नहीं
याद आती है मां बस तेरी-बस तेरी।
आज मुझे भूख लगी, नहीं मिला खाना जो तो
मुझको जमाना वो पुराना याद आ गया।
बाबू, अम्मा और चाचा-चाची की भी याद आई,
पापा वाला गोदी ले खिलाना याद आ गया।
क्षुधा पीर बार-बार आई जो रुलाई जात
माई काम काज छोड आना याद आ गया।
भइया, राजाबाबू, सुग्गू कह के बहलाना मुझे,
आंचल की गोद में पिलाना याद आ गया।
पूरब प्रभात धोई-पोछि मुख काजर लाई
माथे पे ढिठौने का लगाना याद आ गया।
दिन के मध्यान भानु धूल, धरि, धाई, धोई
धीरज धराई धमकाना याद आ गया।
रात-रात जागकर खुद भीषण गर्मी में
आंचल की हवा दे सुलाना याद आ गया।
बीच रात आंख मेरी खुली जो अगर कभी
थपकी दे के माई का सुलाना याद आ गया।
आज जब रातें सारी कट जाएं तारे गिन
माई गाइ लोरी लाड लाना याद आ गया।
छोटे-छोटे पांवों पर दौड़कर भागा मैं तो
मम्मी वाला पीछे-पीछे आना याद आ गया।
यहाँ-वहाँ दौड़ते जो भुंइयां पे गिरा मैं तो
गिरकर रोना और चिल्लाना याद आ गया।
लाड लो लगाई, लचकाई लो उठाई गोद,
माई मन मोद का मनाना याद आ गया।
गोदी में उठाके फिर छाती से लगा के मुझे,
आंसुओं का मरहम लगाना याद आ गया।
बीए की पढ़ाई पास, पढ़ा जो पुराना पाठ,
पापा धर लेखनी लिखाना याद आ गया।
आज बात चली जो 'प्रदीप' घर बसाने की तो
मिट्टी का घरौंदा वो बनाना याद आ गया।।
प्रथम चरण मिला स्थान- दसवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- बारहवाँ
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुंदर कविता सीधे शब्दों में सभी के दिल की बात है .
मेरा तो बस ये मानना है की भगवान सब जगह हो नहीं सकते इसी लिए माँ बनाई है उसने .
स्मिता जी वाह क्या सुंदर चित्र बनाया है मोहक
बधाई
रचना
मदर्स डे पर बड़ी प्यारी कविता पढने को मिली ,,,सुंदर चित्र के साथ,,,,
सुबह सुबह अच्छा लगा,,,,
एक और बात को विशेष रूप से भाई,,,,
हिंद युग्म के मुख प्रष्ट पर सीमा जी का चित्र,,,
यूं तो इसे शुरू से देखते आ रहे हैं पर आज इसे मुख प्रष्ट पर देखकर बहुत ही भला सा लगा,,,,
माँ-दिवस की की सभी को बधाई,,,
स्मिता जी के चित्र के साथ इस कविता की जुगलबंदी ने बाँध लिया । आभार ।
मातृ-दिवस के लिए कितनी उचित कविता. मन खुश हो गया. धन्यबाद.
प्रदीप जी,
ठेठ देहाती प्रतीकों का सुन्दर चित्रण।
यह कविता महज एक शब्दों का रचनाजाल नही है, बल्कि ममता से भीगे हुये शब्द हैं जो आज भी माँ की गोद की याद दिलाते हैं।
" पूरब प्रभात धोई-पोछि मुख काजर लाई
माथे पे ढिठौने का लगाना याद आ गया।"
बेबी पाउडर से चमकने वाले बच्चे अब कहाँ से जान पायेंगे ढिठौने / डीकामाली और हींग से बनी हुई घुट्टी को।
बहुत सुन्दर।
मुकेश कुमार तिवारी
जितनी सुन्दर अभिव्यक्ति है उतना ही सुन्दर चित्र स्मिता जी ने बनाया है। मातृ दिवस की शुभकामनाएँ।
आज मुझे भूख लगी, नहीं मिला खाना जो तो
मुझको जमाना वो पुराना याद आ गया।
बाबू, अम्मा और चाचा-चाची की भी याद आई,
पापा वाला गोदी ले खिलाना याद आ गया।
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बहुत ही प्रभावशाली रचना
bahut sunder abhivyakti ne aaj ke din ko mahatavpooran bana diya abhar aur badhai
padhkar achha laga.apki rachnaye padhta rahata hu. apko is prayas ke liye sadhuwad
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