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62 बरस की आज़ादी और हमारी विशेष प्रस्तुति


हिन्द-युग्म की ओर से सभी भारतीयों को 63वीं स्वतंत्रता दिवस की बधाइयाँ। आज हम इस अवसर पर आपके लिए लेकर आये हैं ढेर सारी कविताएँ। हिन्द-युग्म लगभग 38 महीने पहले शुरू हुआ था। हिन्द-युग्म के संग्रहालय में बहुत सी ऐसी रचनाएँ हैं जो अब भी ताज़ी हैं। चिंताएँ स्थाई हो गई हैं। आशा है हमारी यह प्रस्तुति आप पसंद करेंगे-

2009 के अंक से

2008 के अंक से



2007 के अंक से

ख़ास वक्त है, रोना मना है...


आओ इक तारीख सहेजें,
आओ रख दें धो-पोंछ कर,
ख़ास वक्त है....
कलफ़ लगाकर, कंघी कर दें...
आओ मीठी खीर खिलाएं,
झूमे-गाएं..
लोग बधाई बांट रहे हैं,
चूम रहे हैं,चाट रहे हैं...
किसी बात की खुशी है शायद,
खुश रहने की वजह भी तय है,
वक्त मुकर्रर
9 अगस्त,
घड़ियां तय हैं
24 घंटे...

हा हा ही ही
हो हो हो हो
हंसते रहिए,
ख़ास वक्त है,
रोना मना है...

खुसुर-फुसुर लम्हे करते हैं,
बीते कल की बातें,
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा दिन बिखरे हैं,
रेशा-रेशा रातें....

उम्र की आड़ी-तिरछी गलियों का सूनापन,
बढ़ता है, बढ़ता जाता है...
एक गली की दीवारों पर नज़र रुकी है...
दीवारों पर चिपकी इक तारीख़ है ख़ास,
एक ख़ास तारीख पे कई पैबंद लगे हैं...
हूक उठ रही दीवारों से,
उम्र की लंबी सड़क चीख से गूंज रही है...

जश्न में झूम रहे लोगों की की चीख है शायद,
जबरन हंसते होठों की मजबूरी भी है,
उघड़े रिश्ते,भोले चेहरों का आईना,
कभी सिमट ना पाई जो, इक दूरी भी है...

वक्त खास है,
आओ चीखें-चिल्लाएं हम...
जश्न का मातम गहरा कर दें...
इसको-उसको बहरा कर दें...
आओ ग़म की पिचकारी से होली खेलें,
फुलझड़ियां छोड़ें...
आओ ना, क्यों इतनी दूर खड़े हो साथी,
सब खुशियों में लगा पलीता,
हम-तुम वक्त की मटकी फोड़ें...

ख़ास वक्त है,
इसे हाथ से जाने न देंगे,
जिन घड़ियों ने जान-बूझकर
कर ली हैं आंखें बंद,
उनकी यादें भी भूले से
आने न देंगे...

सांझ ढले तो याद दिलाना
आधा चम्मच काला चांद,
वक्त की ठुड्डी पर हल्का-सा,
टीका करेंगे...
तन्हा चीखों का तीखापन,
फीका करेंगे....

हा हा ही ही
हो हो हो हो
हंसते रहिए,
ख़ास वक्त है,
रोना मना है...

निखिल आनंद गिरि
(आज कवि का जन्मदिन भी है, तो आप बधाई दे सकते हैं...)

तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगने लगा है...


तुम कैसे हो?
दिल्ली में ठंड कैसी है?
....?
ये सवाल तुम डेली रूटीन की तरह करती हो,
मेरा मन होता है कह दूं-
कोई अखबार पढ लो..
शहर का मौसम वहां छपता है
और राशिफल भी....

मुझे तुम पर हंसी आती है,
खुद पर भी..
पहले किस पर हंसू,
मैं रोज़ ये पूछना चाहता हूं
मगर तुम्हारी बातें सुनकर जीभ फिसल जाती है,
इतनी चिकनाई क्यूं है तुम्हारी बातों में...
रिश्तों पर परत जमने लगी है..
अब मुझे ये रिश्ता निगला नहीं जाता...
मुझे उबकाई आ रही है...
मेरा माथा सहला दो ना,
शायद आराम हो जाये...

कुछ भी हो,
मैं इस रिश्ते को प्रेम नहीं कह सकता...
अब नहीं लिखी जातीं बेतुकी मगर सच्ची कविताएं...
तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगने लगा है,
या किसी पेपरवेट-सा....
भरम में जीना अलग मज़ा है...

मेरे कागज़ों से शब्द उड़ न जाएं,
चाहता हूं कि दबी रहें पेपरवेट से कविताएं....
उफ्फ! तुम्हारे बोझ से शब्दों की रीढ़ टेढी होने लगी है....

मैं शब्दों की कलाई छूकर देखता हूं,
कागज़ के माथे को टटोलता हूं,
तपिश बढ-सी गयी लगती है...
तुम्हारी यादों की ठंडी पट्टी
कई बार कागज़ को देनी पड़ी है....

अब जाके लगता है इक नज़्म आखिर,
कच्ची-सी करवट बदलने लगी है...
नींद में डूबी नज्म बहुत भोली लगती है....
जी करता है नींद से नज़्म कभी ना जागे,
होश भरी नज़्मों के मतलब,
अक्सर ग़लत गढे जाते हैं....

निखिल आनंद गिरि