तुम कैसे हो?
दिल्ली में ठंड कैसी है?
....?
ये सवाल तुम डेली रूटीन की तरह करती हो,
मेरा मन होता है कह दूं-
कोई अखबार पढ लो..
शहर का मौसम वहां छपता है
और राशिफल भी....
मुझे तुम पर हंसी आती है,
खुद पर भी..
पहले किस पर हंसू,
मैं रोज़ ये पूछना चाहता हूं
मगर तुम्हारी बातें सुनकर जीभ फिसल जाती है,
इतनी चिकनाई क्यूं है तुम्हारी बातों में...
रिश्तों पर परत जमने लगी है..
अब मुझे ये रिश्ता निगला नहीं जाता...
मुझे उबकाई आ रही है...
मेरा माथा सहला दो ना,
शायद आराम हो जाये...
कुछ भी हो,
मैं इस रिश्ते को प्रेम नहीं कह सकता...
अब नहीं लिखी जातीं बेतुकी मगर सच्ची कविताएं...
तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगने लगा है,
या किसी पेपरवेट-सा....
भरम में जीना अलग मज़ा है...
मेरे कागज़ों से शब्द उड़ न जाएं,
चाहता हूं कि दबी रहें पेपरवेट से कविताएं....
उफ्फ! तुम्हारे बोझ से शब्दों की रीढ़ टेढी होने लगी है....
मैं शब्दों की कलाई छूकर देखता हूं,
कागज़ के माथे को टटोलता हूं,
तपिश बढ-सी गयी लगती है...
तुम्हारी यादों की ठंडी पट्टी
कई बार कागज़ को देनी पड़ी है....
अब जाके लगता है इक नज़्म आखिर,
कच्ची-सी करवट बदलने लगी है...
नींद में डूबी नज्म बहुत भोली लगती है....
जी करता है नींद से नज़्म कभी ना जागे,
होश भरी नज़्मों के मतलब,
अक्सर ग़लत गढे जाते हैं....
निखिल आनंद गिरि
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23 कविताप्रेमियों का कहना है :
बेहतरीन...बहुत खूब...अच्छी रचना...अच्छा प्रस्तुतीकरण...लाजवाब कर दिया निखिल भाई आपने...
निखिल जी इतनी नई उपमाये और उपमान कहाँ से लाते है .बहुत ताजी लगती है आप की कवितायें .हमेशा ही कुछ अलग होती है और दिल को छूती है
rachana
निखिल जी!
कविता ने इतने अंदर तक स्पर्श कर लिया कि खुद को रोक नहीं पाया टिप्पणी करने से। आपकी लेखनशैली दिन-प्रति-दिन बेहतरीन होती जा रही है। लगता है "बैठक" का असर है :)
एक खूबसूरत रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
निखिल जी, शुरूआत आपने बहुत बढिया की है पर बीच में ये उबकाई और माथा सहला दो ना वाली बात
जँच नहीं रही ...जिससे आपको उबकाई आती हो उसी से माथा सहलाने की बात...? शुरूआत
आपने प्रेमिका से की है और कविता का अंत करते हैं नज्म से.......शायद आपने जल्दबाजी
में कविता पोस्ट की है ....!
अनोखा शब्द विन्यास
कुछ पंक्तियाँ बेहतरीन भाव उत्पन्न करती हैं
कुछ -कुछ सच्चाई का पुट लिए हुवे
बधाई !!
निखिल जी ,
शीर्षक से ही अहसास हो गया था..की आपकी कविता ही पढने को मिलेगी....फ़िर पहली लाइन पढ़ कर कविता छोड़ कर निचे उतरा ख़ुद को कन्फर्म करने ....और मैंने ख़ुद को एकदम ठीक पाया.....
अब निचे आपको नाम देने की ज़रूरत नहीं है....
मजेदार कविता ...पर हरकीरत जी की बात या तो समझ नहीं पाया या क्या है....पर मैं इनकी बात से पहली बार असहमत सा लग रहा हूँ................
हालांकि शक मुझे अपनी ही बुद्धि पर है ,,,जल्दी में कमेंट तो दे रहा हूँ पर कभी दोबारा इस का तालमेल मिलाकर देखूँगा........
एक शब्द में कहना पड़े तो....'ज़बर्दस्त'.....
दो शब्दों में कहना पड़े तो......'बहुत बढिया'......
तीन शब्दों में कहना पड़े तो....'मज़ा आ गया'
वाकई मजेदार है , ग्लोब सा चेहरा!!!!
kavita ne aNDAR KE BHAWON KO JHANKRIT KAR DIYA NIKHIL BHAI...
alok singh "sahil"
मनु जी आप तो यूनि पाठक रह चुके हैं मुझसे बेहतर कविता की समझ आपको है... मेरी टिप्पणी
में क्या समझ नहीं आया आपको...? कवि को जिस वस्तु से उबकाई आती है उसी से
वह माथा सहला देने की बात कहता है क्या यह उचित है...? nikhil ji kipya anyatha n len maine jo kami dekhi kah diya agar aapko lagta hai mai galat hun to spast karen...yun aapki kavita naye upmaon k sath bhot acchi hai...!
हरकीरत जी को सादर नमस्कार ,
मुझे यूनी पाठक बने तो अभी एक महीना भी नहीं हुआ है.....इस से पहले भी तो मेरी कोई जिंदगी रही ही होगी ना....? अब ये थोड़े है की हिंद युग्म पर आते ही अपना अतीत ...अपनी जीवन शैली ....अपना बे-लौस अंदाज़ , अपने ख़याल ...दोस्त.... सपने ....ख्वाब ..सब
भूल जाऊं...?
जिस से उबकाई आना लोग बाग़ महसूस करते हैं ना ........इन्सान सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी से गुजारिश कर सकता है ...माथा सहलाने की .....और.
सिर्फ़ वो ही सहला सकता है ........जो पहला..
बाकी अभी तो ये मैंने अपनी सोच कही है ...आपकी नज़र से देखना तो अभी बाकी है ...और मैंने ऐसा कहा भी है......के मुझे शक तो अपनी ही अकल पर लग रहा है.....
पर मेरी मजबूरी है ...अगर मैं ग़लत हुआ तो मुझे दुःख होगा.....
पहली बार.......
agar meri baat galat lagi ho to mujhe please maaf karein ....
meri samajh aapke saamne kyaa hai...?
sochne ko to kuch bhi ho sakta hai Manu ji pr hame wo sochna hai jo samne dikhai deta hai....!
अभिषेक, रचना जी,
टिप्पणी का शुक्रिया....
तन्हा जी,
आप भी बैठक पर आयें तो असर होगा...
राजीव जी,
आपके लिए चार शब्दों में क्या कहें-
राजीव जी को धन्यवाद...
हरकीरत जी...
कविता जल्दबाज़ी में बिल्कुल नहीं पोस्ट की है....अब यूनिपाठक और यूनिकवि आपस में कविता को समझ रहे हैं तो मैं क्यूं बोलूं...
निदा फाज़ली से अभी जो मुलाकात हुई थी तो उन्होंने कहा था कि कविता एक बार कागज़ पर आयी तो "द ऑथर इज़ डेड"....
टिप्पणी का शुक्रिया...
निखिल
Nikhil ji aur Manu ji meri samajh jhan tak thi maine kaha ho sakta hai ye meri samajh se pare ho...aapka sukriya jwab dene k liye...!
निखिल जी,
बेहद सुंदर और अलग उपमाओं से सजी आपकी कविता बहुत अच्छी लगी.
बधाई स्वीकारें.
पूजा अनिल
नहीं हरकीरत जी,
ऐसा कुछ नहीं है जो आपकी समझ से परे की चीज हो...आख़िर आपको भी तो खूब पढा है हमने ....इस लिए संशय का सवाल ही पैदा नहीं होता ...हाँ, ये है के एक कवि ने कविता लिख दी और उस को पढने वाला हर आदमी अपनी अपनी जिन्दगी अपने अपने ढंग से जीता है.....आप भी उतनी ही ठीक हैं जितना मैं ख़ुद को मान रहा हूँ...और अगर वास्तविकता से देखा जाए तो मुझ से ज्यादा ठीक आप हैं....मगर अच्छा लगा अपना अपना नज़रिया पेश करना ..........
और निखिल जी का हमें यूँ उलझा कर साफ़ बच निकलना भी अच्छा लगा...
अब जो भी उनहोंने लिखा है ...वो हमारा है....हो सकता है के उन्हों ने किसी तीसरे ही आयाम को छुआ हो ..जहा तक आप या हम ना पहुँचे हों....
harkeerat ji ye sab laaglapet wwali baaten hi karten rahenge ,kavita ka naayak ,naayika ki uluuljullul baaton ko bardaast nahi kar paa raha hai ,aur usse prem bhi nahi karta hai ,magar samne jo hai usi se hi kaha jaayega ,ubkaai to baaton se aa rahi hai ,harkeerat ji ,haathon se
nahi ,isliye taqleef me usi se gujaarish kar raha hai ki tumhaari
baate ,chup ho jaao ,mera sar mat khaao ,ek sariodan hai to de do ,ityaadi ,
aasha karte hain kuch to samajh gayi hongi hahahahahahahahahahahahha
HU...HA..HA..HA..HA....!!!!!
बहुत बढ़िया निखिल भाई
कविता की ही तरह पत्र प्रतिक्रियाएं भी...
नीलम जी,
मुझे भी हंसी आ गई...
Brilliant nikhil ji
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