अट्ठावन बरस बीत गये हमारे गणतन्त्र को
और हुआ क्या?
इन अट्ठावन बरसों में
आनी थी बराबरी
आनी थी बराबर की खुशहाली
आना था बराबर का सम्मान
हाशिए पर फेंके गये लोगों को
आना था मुख्य-भूमि में
मगर हुआ क्या
ताकतवर हुए और ताकतवर
कमजोर हुए और कमजोर
दस-बीस शामिल हुए
दुनिया के सबसे अमीरों में
और लाखों ने की आत्महत्याएँ
जो चली गईं यह देश छोड़ कर
वो पहुँच गईं अंतरिक्ष
जो यहीं रहीं उन्हें मारा गया गर्भ में
जो मारे जाने से बच गईं
उनमें से बहुतों के साथ किया गया बलात्कार
कुछ देवता
कुछ प्रतीक
सामूहिक जन-संहार के हथियारों
में बदल दिये गये
इन अट्ठावन बरसों में
एक गणतन्त्र को एक उन्माद तन्त्र में
साज़िशन बदल दिया गया
यह तो नहीं होना था
इन अट्ठावन बरसों में
असल में
कुछ खामोशियाँ थीं
जिनके अर्थ समझे जाने थे
इन अट्ठावन बरसों में
कुछ दर्द से भिंचे हुए होंठ थे
जिन पर मुस्कराहट आनी थी
इन अट्ठावन बरसों में
हज़ारों बरसों की जागी हुई कुछ आँखें थीं
जिन्हें चैन की नींद सोना था
इन अट्ठावन बरसों में
इन अट्ठावन बरसों को
चिड़िया की चोंच में दबा तिनका बनना था
उसके घोसले के लिये
आँधियों और तूफान के ख़िलाफ
बन्द गली के आख़िरी मकान का
दरवाज़ा खटखटाना था उम्मीदों को
बहुत कुछ होना था इन अट्ठावन बरसों में
जो नहीं हुआ
बहुत कुछ नहीं होना था इन अट्ठावन बरसों में
जो हुआ
मैं इस देश का मामूली सा रहवासी
मैं किसी रंग दे बसंती
किसी चक दे इन्डिया या
किसी सुपर पावर बनने की बात से
नहीं बहलूँगा
मुझे हर रोज 26 जनवरी चाहिये
और वैसी नहीं जैसी राजपथ पर आती है
दल-बल सहित
बल्कि वैसी कि जैसी आनी चाहिये
जैसे
भूख लगे तो रोटी की तरह
प्यास लगे तो पानी की तरह
खामोशी हो तो संगीत की तरह
अन्धेरा हो तो रोशनी की तरह
भटक जाऊँ तो पुकार की तरह
मुझे हर रोज़ 26 जनवरी चाहिये
सर्दियों के मौसम में गुनगुनी धूप की तरह
गर्मियाँ हों तो ठंडी बयार की तरह
- अवनीश गौतम
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
दस-बीस शामिल हुए
दुनिया के सबसे अमीरों में
और लाखों ने की आत्महत्याएँ
:
जो चली गईं यह देश छोड़ कर
वो पहुँच गईं अंतरिक्ष
जो यहीं रहीं उन्हें मारा गया गर्भ में
अवनीश जी जब आपसे यह कविता रूबरू सुन रहे थे तब भी यह पंक्तियाँ दिल को छू गई थी ,आज हम जितने भी आज़ाद होने के परचम लहरा ले पर यह पंक्तियाँ दिल को दहला देती हैं ...मुझे आपकी यह कविता बहुत पसंद आई क्यूंकि इस में एक सच्चाई है !!
"beautiful poem"
wish u all happy Republic day"
Regards
अवनीश जी,
आपकी हमारी सभी की पीडा को बहुत प्रभावी रूप में अभिव्यक्त कर पाने कविता पूर्णतः सफल रही है
सच कहते हैं आप
"मैं इस देश का मामूली सा रहवासी
मैं किसी रंग दे बसंती
किसी चक दे इन्डिया या
किसी सुपर पावर बनने की बात से
नहीं बहलूँगा "
फिर भी इन अट्ठावन वर्षों में बहुत उपलब्धियाँ भी हमने पाई हैं, और विश्वास है कि निकट भविष्य में हम ऐसा ही भारत बना पायेंगे जैसी आपने अपेक्षा की है,
आपकी सुग्राह्य लेखनी अतर्मन को स्पर्श करती है
साधुवाद
सस्नेह
गौरव शुक्ल
जैसे
जो चली गईं यह देश छोड़ कर
वो पहुँच गईं अंतरिक्ष
जो यहीं रहीं उन्हें मारा गया गर्भ में
जो मारे जाने से बच गईं
उनमें से बहुतों के साथ किया गया बलात्कार
मैं इस देश का मामूली सा रहवासी
मैं किसी रंग दे बसंती
किसी चक दे इन्डिया या
किसी सुपर पावर बनने की बात से
नहीं बहलूँगा
भूख लगे तो रोटी की तरह
प्यास लगे तो पानी की तरह
खामोशी हो तो संगीत की तरह
अन्धेरा हो तो रोशनी की तरह
भटक जाऊँ तो पुकार की तरह
बहुत अच्छे अवनीश जी!
मुझे भी हर रोज 26 जनवरी चाहिए।
क्या करें?
यूं तो विगत वर्षों में भारत ने बहुत कुछ पाया भी है.अंतर्राष्ट्रीय नक्शे में एक बहुत ही सशक्त राष्ट्र के रूप में उभरा है.लेकिन आप ने जिन पहलूओं का जिक्र अपनी कविता में किया है.
वह भी सच है. सच से साक्षात्कार कराती हुई आप की कविता काफी प्रभावी है.'इस देश का मामूली सा रहवासी'' जो कामना कर रहा है वोही शायद हम सब भी करते हैं और जल्द ही इन समस्याओं का हल भी निकलेगा और सच्चे मायनों में भारत 'सुपर पावर ' बनेगा.
इसी उम्मीद के साथ सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.
अच्छी रचना है अवनीश जी, यद्यपि भाषण के अधिक निकट है बनिस्पत कविता के....
***राजीव रंजन प्रसाद
मुझे २६ जनवरी रोज चाहिए ....क्या खूब....बहुत सुंदर अवनीश जी आप बधाई के पात्र हैं
दस-बीस शामिल हुए
दुनिया के सबसे अमीरों में
और लाखों ने की आत्महत्याएँ
avnish ji kaaljayi kavita di hai aapne......
मुझे हर रोज़ 26 जनवरी चाहिये
सर्दियों के मौसम में गुनगुनी धूप की तरह
गर्मियाँ हों तो ठंडी बयार की तरह
sach, aapki awaaz men meri bhi awaaz hai....
मुझे हर रोज 26 जनवरी चाहिये
और वैसी नहीं जैसी राजपथ पर आती है
दल-बल सहित
बल्कि वैसी कि जैसी आनी चाहिये
जैसे
भूख लगे तो रोटी की तरह
प्यास लगे तो पानी की तरह
खामोशी हो तो संगीत की तरह
अन्धेरा हो तो रोशनी की तरह
भटक जाऊँ तो पुकार की तरह
मुझे हर रोज़ 26 जनवरी चाहिये
सर्दियों के मौसम में गुनगुनी धूप की तरह
गर्मियाँ हों तो ठंडी बयार की तरह
अभिनव ...
bahut khub aaj ki sachhai bayan ki hai,haan hume roz 28 jan chahiye.
अवनीश जी
बहुत अच्छा लिखा है
कुछ देवता
कुछ प्रतीक
सामूहिक जन-संहार के हथियारों
में बदल दिये गये
इन अट्ठावन बरसों में
एक गणतन्त्र को एक उन्माद तन्त्र में
साज़िशन बदल दिया गया
यह तो नहीं होना था
इन अट्ठावन बरसों में
बहुत प्रभावी है. बधाई
अवनीश जी,
आपकी पीड़ा समझ में आती है। सच्मुच-
मुझे हर रोज 26 जनवरी चाहिये
******
भूख लगे तो रोटी की तरह
प्यास लगे तो पानी की तरह
सार्थक रचना के लिए बधाई।
जो चली गईं यह देश छोड़ कर
वो पहुँच गईं अंतरिक्ष
जो यहीं रहीं उन्हें मारा गया गर्भ में
जो मारे जाने से बच गईं
उनमें से बहुतों के साथ किया गया बलात्कार
मुझे हर रोज 26 जनवरी चाहिये
और वैसी नहीं जैसी राजपथ पर आती है
दल-बल सहित
बल्कि वैसी कि जैसी आनी चाहिये
अवनीश जी,
आपकी यह कविता सच्चे मायने में सफल है, क्योंकि यह केवल नाकामियाँ हीं नहीं गिनवाती , बल्कि आवश्यकताएँ भी बताती हैं। गणतंत्र दिवस के अवसर पर ऎसी रचना पेश करने के लिए बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
गौतम जी, बहुत ही अच्छी कविता और मैं तनहा भाई के विचारों से बिल्कुल सहमत हूँ.
बधाई हो इस सफल प्रस्तुति के लिए
आलोक सिंह "साहिल"
बन्द गली के आख़िरी मकान का
दरवाज़ा खटखटाना था उम्मीदों को
बहुत ही सही और सच्ची रचना ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)