काफिये की बात तो मैं आपको पहले भी बता चुका हूं कि काफिये से ही ग़ज़ल में जान आती है । हमारी पूरी की पूरी ग़ज़ल ही काफिये के आस पास होती है । काफिया अक्सर हम ऐसा ले लेते हैं जो दोषपूर्ण हो जाता है और उसके कारण हमारी ग़ज़ल में भी दोष आ जाता है । इसलिये काफिये को लेने से पहले देख लेना चाहिये अपने मतले को कि हमने मतले को कैसा बनाया है क्योंकि आपने जो कुछ मतले में लिया है वो अपने लिये एक नियम बना लिया है कि आपके आने वाले शेर कैसे होगें । बात क़ाफिये की क़ाफिया जो ग़ज़ल की जान होता है उसको लेते समय अक्सर ही भूल होती है हमें ऐसा लगता है कि हमने जो क़ाफिया लिया है वो सही है पर वो ग़लत होता है । क़ाफिये के बारे में मैं पहले ही बता चुका हूं कि क़ाफिया कुछ भी हो सकता है अक्षर, शब्द या फिर मात्रा मगर बात वही है कि जो भी लो उसका निर्वाहन पूरी ग़ज़ल में करो । जैसे इसको देखें नुसरत मेहदी साहिबा का शे'र है
' दिल की शादाब ज़मीनों से ग़ुरेजां होगी
बेरुख़ी हद से बढ़ेगी तो बयाबां होगी
आज की शब ज़रा ख़ामोश रहें सारे चराग़
आज महफिल में कोई शम्अ फ़रोजां होगी
अब इसमें होगी तो रदीफ़ हो गया है क़ाफिया है आ की मात्रा पर अं की बिंदी
अब हमको केवल इसी बात का ध्यान रखना है कि फ़रोज़ां, बयाबां, चराग़ां, परेशां को ही हम क़ाफिया बनाएं और वो भी ऐसा कि उसके साथ होगी रदीफ का भी निर्वाहन हो सके ।
इस वाले क़ाफिये में मात्रा आ की थी पर अं की बिंदी के साथ्ा थी अब देखते हैं एक ग़ज़ल जिसमें केवल आ की मात्रा क़ाफिया बन रही है ।
' बिछड़ना है जिसे उस जिस्म को अपना समझ बैठा
ज़्यादा जान से अपना उसे हिस्सा समझ बैठा
वो मेरे साथ था दिन रात अपने काम की ख़ातिर
ग़लत फहमी में उससे मैं कोई रिश्ता समझ बैठा
अब यहां पर केवल आ की मात्रा ही क़ाफिया है जैसे हिस्सा, अपना, सहरा, रिश्ता इस में काफी आसानी हो जाएगी, समझ बैठा रदीफ है अत: इस तरह से क़ाफिया बंदी करनी है कि क़ाफिया अपने रदीफ समझ बैठा को निभा ले जाए ।
अब ऐसा भी नहीं है कि हर ग़ज़ल में रदीफ आना ज़रूरी ही है
मास्साब की ग़ज़ल है
'तुम्हारे मंदिरों से मस्जि़दों से इनको लेना क्या
न बच्चों को सिखाओ तुम ख़ुदा और राम का झगड़ा
भरी हो जेब जिसकी भी चला आए यहां वो ही
सियासत हो गई है अब तवायफ़ का कोई कोठा'
अब इसमें केवल आ की मात्रा को ही क़ाफिया बनाया गया है कोई रदीफ नहीं है । मगर कहा ये जाता है कि रदीफ से ग़ज़ल की सुंदरता और कहन में बढ़ोतरी हो जाती है ।
आज हम बात कर रहे हैं केवल आ की मात्रा की और उसे क़ाफियों की
चलिये अब बात करते हैं आ की मात्रा के क़ाफिये की जिसमें अं की बिंदी शामिल है
'नहीं इस जि़दगी की क़ैद को है छोड़ना आसां
दिवाने फि़र भी कहते हैं हथेली पर रखी है जां
जिसे भी देखिये वो दौड़ता है दौड़ता है बस
न जाने कौन सी मंजि़ल पे जाना चाहता इन्सां'
यहां पर आ की मात्रा तो है अं की बिंदी के साथ पर रदीफ नहीं है केवल आं ही क़ाफिया है बिना रदीफ के ये चौथे तरीके का उदाहरण है । 1 आं रदीफ के साथ 2 आ रदीफ के 3 आ बिना रदीफ के साथ 4 आं बिना रदीफ के । तो आ की मात्रा के कुछ प्रयोग हैं जिनमें केवल आ भी है और कहीं पर उसमें अं की बिंदी भी है ।
प्रश्नोत्तर
उत्तर :- शिवानी जी मैंने एक उदाहरण दिया है कि ऐसा होता है । उसका मतलब ये नहीं है कि सभी ग़ज़लों में ऐसा ही होगा । आगे आगे सब कुछ आना है
न सोचा ......न समझा ..... न देखा ..... न भाला,
तेरी आ........रजू ने...........हमे मा.. .... र डाला
क्या ये इस तरह से मात्र में आएगा,
मु-१,हब-२,ब्त,२ यह समझ नही आया...
प्यार में वज्न है २,१ तो इसमे एसे क्यूँ ब्त का १ ही होना चाहिये...
माफ़ी चाहती हूँ गुरूदेव जरा स्पष्ट किजिये समझ नही आ रहा...
मात्राएँ गिनना भी सिखा दीजिए।
उत्तर हम बहुत जल्दी ही उस मुकाम पर भी आऐंगें जब हम मात्राओं की गिनती करेंगें । अभी तो हम प्रारंभ में हैं ।
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
नमस्ते सुबीर जी ,
आज के पाठ में विषय की कुछ नयी बारीकियाँ जान कर ज्ञान बढ़ा .कई बार पढे हुए विषय को दोबारा पढें तो कई नयी बातों का पता चलता है.कुछ ऐसा ही अनुभव हो रहा है.
आज के महत्वपूर्ण पाठ के लिए धन्यवाद.
सजीव जी, वैसे विस्तार से तो ग़ज़ल शिक्षक ही बताएँगे । परन्तु एक सामान्य तरीका मात्राएँ गिनने का यह हो सकता है कि आप किसी शब्द में अक्षरों को ‘अ’ या ‘आ’ से प्रतिस्थापित करके देखें या ‘ल’ या ‘ला’ से प्रतिस्थापित करके देखिए । जब लला वाला शब्द सुनने में मूल शब्द के बराबर लगता है उस लला वाले शब्द में ल को १ और ला को २ गिन लीजिए ।
सुनीता जी,
आपको जो शंका है कि प्यार में वज्न २,१ है और ब्त में १ ही क्यों ? इसका कारण शायद यह लगता है कि आप मात्राएँ व्यंजनों के आधार पर गिन रही हैं । पर प्या की दो मात्राएँ दो व्यंजनों के कारण नहीं दीर्घ स्वर के कारण है । ब्त में एक मात्रा होने का कारण भी ह्रस्व स्वर के कारण १ है और दो व्यंजनों के कारण २ नहीं । लेकिन शायद आपने बत की जगह ब्त लिख दिया है । बत होने पर १,१ इसका वज्न होता । वैसे यह लिखा तो बत जाता है पर पढ़ा बत् जाता है । इसीलिए ब मे स्वर ह्रस्व होने के बाद भी गुरु या द्विमात्रिक हो गया है । ह्रस्व स्वर होने पर भी यदि बाद में आधा अक्षर या संयुक्त व्यंजन है तो वह दो मात्रा का हो जाता है । जिसके बाद अनुस्वार या विसर्ग हो वह भी दो मात्राओं का होता है । अक्षरों की गणना व्यंजनों से नहीं बल्कि स्वरों से की जाती है ।
इसके लिए पाणिनि के तीन सूत्र भी देखे जा सकते हैं यद्यपि भाषा के अन्तर से कहीं हो सकता है कि ये पूरी तरह लागू न हों ।
ह्रस्वं लघु १/४/१० (ह्रस्व स्वर लघु या एक मात्रा वाला होता है ।)
संयोगे गुरु १/४/११ (वही ह्रस्व स्वर संयोग या संयुक्त व्यञ्जन बाद में रहने पर गुरु होता है ।)
दीर्घं च १/४/१२ (दीर्घ स्वर भी वैसे ही अर्थात् गुरु होता है ।)
kafiye ke bare mein itni gehrayi se batane ke liye shukriya.
पंकज जी आज की कक्षा में बहुत अच्छे उदाहरण के साथ बहुत अच्छी जानकारी मिली !अब तक की कक्षाओं में बताई गई बातें समझ आ गई हैं और कोई शंका भी नही है ! आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
गुरुजी,
मैंने एक बार एक कविता लिखी थी, जो ग़ज़ल जैसी बन गई थी। बाद में पता चला कि वो 'हज़ल' जैसी बन गई है।
पूरी ग़ज़ल ('हज़ल') यहाँ प्रस्तुत है-
हमारे पेशेंस को आज़माकर, उन्हें मज़ा आता है
दिल को खूब जलाकर, उन्हें मज़ा आता है।
खूब बातें करके जब हम कहते हैं "अब फ़ोन रखूँ?"
बैलेंस का दिवाला बनाकर, उन्हें मज़ा आता है।
उन्हें मालूम है नौकरीवाला हूँ, मिलने आ नहीं सकता
पर मिलने की कसमें खिलाकर, उन्हें मज़ा आता है।
हम तो यूँ ही नशे में हैं, हमें यूँ न देखो
मगर जाम-ए-नैन पिलाकर, उन्हें मज़ा आता है।
हम खूब कहते हैं शादी से पहले यह ठीक नहीं
सोये अरमान जगाकर, उन्हें मज़ा आता है।
वैसे खाना तो वो बहुत टेस्टी बनाती हैं
मगर खूब मिर्च मिलाकर, उन्हें मज़ा आता है।
वो जानती हैं, हमारी कमज़ोरी क्या है, तभी
प्यार ग़ैर से जताकर, उन्हें मज़ा आता है।
आपका शिष्य बनने के बाद जितना समझा उस हिसाब से यदि यह ग़ज़ल है तो बहर से बाहर है। रुक्नों का विन्यास दुरस्त नहीं है। फ़िर भी 'उन्हें मज़ा आता है' रदीफ़ है और 'कर' (जलाकर, बनाकर, जताकर, खिलाकर, पिलाकर आदि) काफिया है। लेकिन एक कन्फ़्यूजन है। क्या इतना बड़ा 'उन्हें मज़ा आता है' रदीफ़ हो सकता है? यदि हाँ, तो क्या इतना बड़ा रदीफ़ रखना ग़ज़ल की सुंदरता की दृष्टि से ठीक है?
यद्यपि आज आपने 'आ', 'आं' काफिये पर बात की, लेकिन मैं 'कर' का पूछ बैठा। जब आप इस तरह के काफिया की बात करें तो मेरी शंका का समाधान करें। कोई ज़ल्दी नहीं है।
और गुरुजी,
इसी तरह की दूसरी हज़ल भी है मेरे पास। यहाँ देखें-
ज़िंदगी बस मौत का इंतज़ार है, और कुछ नहीं।
हर शख़्स हुस्न का बीमार है, और कुछ नहीं।।
तुमको सोचते-सोचते रात बूढ़ी हो गई,
आँखों को सुबह का इंतज़ार है, और कुछ नहीं।।
अब तो जंगलों में भी सुकूँ नहीं मिलता,
हर चीज़ पैसों में गिरफ़्तार है, और कुछ नहीं।।
यह न सोचो, कहाँ से आती हैं दिल्ली में इतनी कारें,
जिनकी हैं, उनकी एक दिन की पगार है, और कुछ नहीं।।
नेताओं की दुवा-सलामी से कभी खुश मत होना,
चुनाव-पूर्व के ये व्यवहार हैं, और कुछ नहीं।।
हमने अपनी जी ली, जितना खुद के हिस्से में था,
बाकी की साँसें दोस्तों की उधार हैं, और कुछ नहीं।।
तेरे न फ़ोन करने पर, जब भी हम शिकायत करें,
इसे गिला मत समझना, ये तो प्यार है, और कुछ नहीं।।
यहाँ भी 'और कुछ नहीं' लम्बा रदीफ़ है और 'आ+र है' शायद काफिया है। क्या इस तरह की ग़ज़ल लिखना ठीक तरीका है?
गुरूजी,
आपकी क्लासका इंतजार रहता है ; स्कूल-कालेज छोड़ने के बरसों बाद यह अनुभूती अजीब लगती है !
सादर धन्यवाद.
शैलेश जी,
मेरे अनुसार आपकी गज़लों (हज़लों ) में रदीफ या काफिया की कोई दिक्कत नहीं है.....मुख्य समस्या केवल बहर में है। गुरूजी आने वाले दिनों में बहर के बारे में जब विस्तार से बात करेंगे तो यह समस्या भी दूर हो जाएगी। बहर के बारे में मुझे भी कुछ खास मालूम नहीं है, इसलिए मैं भी उनकी अगली कक्षा का तहे-दिल से इंतज़ार कर रहा हूँ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
दिवाकर जी,
सबीर जी के साथ-साथ आपने भी बड़ी हीं महत्वपूर्ण जानकारी दी है। इसलिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सुबीर सर, अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद.
आलोक सिंह "साहिल"
इतनी उपयोगी जानकारी के लिये धन्यवाद! आगे भी आपकी पोस्ट का इंतज़ार रहेगा.
गुरूजी.
माफ़ कीजिए,, मै अपरिहार्य कारणों से पिछली कक्षा मै अपने प्रश्न नहीं पूछ सका...
पर मै दोनों कक्षा के सवाल भी यहाँ पूछना चाहूँगा.. अगर इजाजत हो तो...
पिछली कक्षा
१)आपने कहा "ग़ज़ल ध्वनि का खेल है " मेरा सवाल ये है की.. क्या इस के लिए हमे संगीत कला भी सीखनी पड़ेगी. जो हमे.. लये और ताल के बारे मै बताती है....कही ऐसा तो नहीं की ग़ज़ल सब एक ही धुन पर गई जाती है,.. मुझे उम्मीद है नहीं.. जैसे.. "मुहब्बत की झूठी" अलग धुन है और " मिलती है जिंदगी मै.." दूसरी
२) "ग़ज़ल तो केवल और केवल ध्वनि पर ही चलती है " इस से क्या आप ये कहना चाह रहे है क्या की, ग़ज़ल लिखते समय हमे पहले गा लेना चाहिए और उसके अनुसार हमे शब्द चयन तदनुसार मात्रा चयन ..
३) और गाते समय जहाँ जहाँ पर हम विराम लेते है वह पर ही हमे मात्रा क्रम निर्धारित कर है...
जैसे "मुहब्ब्त----" को आपने "ललाला......" पढ़ क्यों की आपने धुन के विराम के आधार पर अपने इस से इस तरह तोडा.. ( मु:1, हब्:2, बत:२)
४) मात्रा -> रुकन ->मिसरे ->शेर -> ग़ज़ल
५)बहर :- रुक्नों का एक पूर्व निर्धारित विन्यास ही होता है | जैसे " ललाला-----ललाला----ललाला------ललाला" लेकिन गणित के हिसाब से देखे तो यहाँ पर बहर और रुकन निशित संख्या के ही विन्यास संभव है... क्या सब तरीके के बहर बन चुके है? क्या कुछ विन्यास ऐसे भी है जिन से बन ही नहीं सकते.
सादर
शैलेश
प्रणाम गुरूदेव रदीफ़ और काफ़िया तो समझ आ गया है...
विश्व दीपक जी, बात तो सामान्य सी है पर पहली बार मेरी टिप्पणी पर गौर किया जाना, और उस पर प्रतिक्रिया मिलना (ऐसी सभा में जहाँ कई प्रतिभावानों की मण्डली सजती है) मुझे कितनी खुशी दे गया यह मैं ठीक से नहीं बता सकता । हो सकता है कि आगे इतनी खुशी न हो क्योंकि यह पहली बार है । पर मेरी खुशी में मुख्य बात यह नहीं है कि मेरी बात पढ़ी गई, बल्कि यह है कि मैं काम की बात सही समय पर रख सका और उससे कुछ लोगों को कुछ लाभ भी मिल सका । आशा है कि सुनीता जी की शंका का भी कुछ समाधान हुआ होगा । आपकी प्रतिक्रिया मुझे हिन्द-युग्म पर और सक्रिय होने तथा उचित समय पर उपयोगी बातें रखने को प्रेरित करेगी ।
sir jee jo ex aap de rhe hai unke saath unki 1-2-1-2 ki gaaNit bhi baaayenge to behtar hogaaa....... :)
क्या मेरी कोशिश
ठीक है -
दिल के जख्मों को आज बयाँ होने दो
इन आसुओं को आज जुबाँ होने दो |
चले आओ किसी परवाज़ के लिए ,
मेरे बाजुओ को आसमां होने दो |
- मृत्युन्जय यकरंग
Guruji, maine aapka aaj ka paath padha bahut achha laga..
maine ek ghazal likhi thi, tab jab mujhe in sab cheezo ka gyaan nahin tha...Mera matlab, aise shabdo mein kahin padha nahin tha...Practice se andaaza ho gaya tha ke ghazal mein kya kya hona chahiye...
Yahan pesh karne ki ijaazat chahta hoon..
नाज़-ऐ-मोहब्बत में मैं बदनाम हो गया
जो राज़ दिल में था, वो सर-ऐ-आम हो गया
हुआ करता था बहुत ही ख़ास अपने दोस्तों में
मोहब्बत क्या हुई, बहुत ही आम हो गया
पाई थी हर चीज़ जो चाही मैंने ज़िन्दगी में
बस तेरी उल्फत के सामने नाकाम हो गया
कब तक राह देखता मैं भी तेरे आने की
तुझे गए हुए तो अब एक अरसा तमाम हो गया
--Yogesh Gandhi.
Aapke comments ka intazaar rahega...
Please apne comments yahan post karen..
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=7697533757731028350&postID=6548104753870327378
Shukriya..
kafiaa aur radif ke baare me svistaar gyan achchha mila
गुरुजी, प्रणाम । मैँ पहिली बार यीस क्लास मेँ आया हु यीस क्लासका टाईम टेवल बताने की कृपा करेँ प्रभो !
गुरु जी क्या मेरे जैसा साहित्य से बिलकुल अनभिग्य छात्र भी यह प्रवेश पा सकता है?
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