आतंकवाद - दो गजलें
कल हुई दहशत ने मारे थे बहुत
जो गए, वो लोग प्यारे थे बहुत
जिस जगह पर कल धुआँ उठने लगा
घर वहाँ मेरे तुम्हारे थे बहुत
दोस्तों के और अजीजों के लिए
लोग वो सच्चे सहारे थे बहुत
धूप मीठा खिलखिलाती थी मगर
छा गए फिर मेघ कारे थे बहुत
यक-ब-यक बस्ती धुएँ से भर गई
लोग कितना डर के मारे थे बहुत
कुछ नहीं मेरा तुम्हारा ये कुसूर
अज़ल से ही अश्क खारे थे बहुत
(अर्थ: दहशत = आतंक, अज़ल = सृष्टि रचना काल , यक-ब-यक = अचानक )
(2)
शहर में मौत पे अफ़सोस करने आया था,
वो कौन शख्स था जो दर्द पढ़ने आया था.
जहाँ पे आज धमाका हुआ था शाम ढले
वहीं पे कल ही तो मैं सैर करने आया था.
यहीं पे पहली मुलाक़ात में मिला था मुझे
यहीं पे आज वो सब से बिछड़ने आया था.
बहुत हसीन था वो लाजवाब सूरत थी
कफ़न के पैरहन में अब सँवरने आया था.
बहुत बयान दिए हुक्मराँ ने मकतल पर
वो इक विमान से तफ्तीश करने आया था.
तुम इस तर्ह मुझे मुजरिम समझ के मत देखो,
मैं अपने दीन पे ही जीने मरने आया था.
(अर्थ: पैरहन = वस्त्र मकतल = वधस्थल, तफ्तीश = जांच)
प्रेमचंद सहजवाला
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
दोनो गजले दिल को छू गयी
सुमित भारद्वाज
आपकी गजलो मे अब वो बात नजर आ रही है जो शुरुवात की गजलो मे थी
काफिया और रदीफ दोनो गजलो मे ठीक है ।
बहर के बारे मे कुछ जानकारी नही है मुझे
मुझे दोनों ग़ज़लें पसंद आईं। हर शे'र में गंभीर कथ्य हो, तेवर हो, यही तो शायरी है। बहुत दिनों के बाद आप ग़ज़ल लेकर पधारे हैं। आपका स्वागत। जो शे'र खास पसंद आये-
जिस जगह पर कल धुआँ उठने लगा
घर वहाँ मेरे तुम्हारे थे बहुत
जहाँ पे आज धमाका हुआ था शाम ढले
वहीं पे कल ही तो मैं सैर करने आया था.
बहुत हसीन था वो लाजवाब सूरत थी
कफ़न के पैरहन में अब सँवरने आया था.
बहुत बयान दिए हुक्मराँ ने मकतल पर
वो इक विमान से तफ्तीश करने आया था.
प्रेमचंद जी,
दूसरी रचना सचमुच दिल को छू गई , बहुत खूब
बहुत अच्छा लिखा है.
पुरी ग़ज़ल लय में है.
पर दूसरी ग़ज़ल की अन्तिम पंक्तिया कुछ कम समझ में ई.
mujhe pahli gazal achchi lagi.
यक-ब-यक बस्ती धुएँ से भर गई
लोग कितना डर के मारे थे बहुत
कुछ नहीं मेरा तुम्हारा ये कुसूर
अज़ल से ही अश्क खारे थे बहुत
bahut umda.
dusri wali pahli ki tulna me kamjor lagi.
प्रेम चंद जी,
बहुत सुंदर ग़ज़ल लिखी है. पढ़कर आनंद आ गया. बधाई स्वीकार करें. .
दीपाली जी, दूसरी ग़ज़ल का अन्तिम शेर उन आतंकवादियों पर व्यंग्य है जो अपनी आतंकवादी गतिविधियों को धर्मं से जोड़ते हैं. दीन का अर्थ है धर्म. आतंकवादी समझता है कि धर्म के लिए जीना मरना ही उस की राह है और उस की गतिविधियाँ धर्म के लिए है.
आँखें नम कर गईं आप की ग़ज़ल
सादर
रचना
कुछ नहीं मेरा तुम्हारा ये कुसूर
अज़ल से ही अश्क खारे थे बहुत
जबर्दस्त... ये पंक्ति तो दिल को छू गई..बार-बार पढ़ने का मन कर रहा है।
दूसरी गज़ल में ये लाइन:
बहुत हसीन था वो लाजवाब सूरत थी
कफ़न के पैरहन में अब सँवरने आया था.
बहुत अच्छी गज़लें प्रेमचंद जी...
दोनों गज़ले अच्छी हैं।
पहली गज़ल मुझे ज्यादा पसंद आई।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
दोनोंकी दोनों गजलें बेजोड़.
आलोक सिंह "साहिल'
दोनोंकी दोनों गजलें बेजोड़.
आलोक सिंह "साहिल'
पहली ग़ज़ल पसंद आयी. बधाई!
mera durbhagya!
itane sashakta hastakchar se ab tak anjan tha.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)