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हाथ खाली हों तो आँखें भर लाना अच्छा नहीं लगता
उनकी दुनिया लुट गई, उन पर गाना अच्छा नहीं लगता
माना सबके खिरजो-जज्बात* के अपने तरीके हैं मगर
मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
माँ होकर क्यों देखती हूँ वही तमाशा जो बरहा लगता है
क्यों यतीम बच्चे देख मेरा खून खौलता नहीं पिघलता है
क्यों जागती हूँ तब ही जब कोई 'बापू' या 'बोस' जगता है
क्यों हरदम "मुझे" किसी रहनुमा* का इंतज़ार रहता है
उन शहीदों को यूँ नज्मों में मारना अच्छा नहीं लगता
मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
मशहर-सा* माहौल है हरसू, दिल भी उदास ख़राब है
उठे हुए सवालों ने ऐसी 'सुखन' पाई के सब लाजवाब है**
अब लिखने को नहीं, करने को, उठने को हाथ बेताब हैं
क्यों लिख रही हूँ फिर, क्यों मेरी बगावत में हिजाब* है
कुछ कर नहीं सकती और 'कुछ न करना' अच्छा नहीं लगता
मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
शायद कुछ मिनिट लगते हैं एक नज़्म लिखने में
और शायद कुछ मिनिट लगे थे वो जानें जाने में
कुछ मिनिट लगेंगे मॉल्स की 'सेक्युरिटी' परखने में
कुछ मिनिट लगेंगे हमें हरसू एहतियात बरतने में
'दानव बड़ा है' सोच कुछ पल लगेंगे सबको डरने में
'दानव बड़ा है' जान गुंजाइश घटेगी निशाने-तीर चूकने में
जागो तो कुछ पल लगेंगे सबको थोड़ा-थोड़ा जगने में
समझो तो पल भी नहीं लगेंगे मेरी बात समझने में
'चूड़ी-कंगन पहने' यूँ बैठे रहना अब अच्छा नहीं लगता
मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
- रूपम चोपडा (RC)
(**सुखन = यहाँ दो मतलब लिए हैं - बातचीत और कविता
खिरजो-जज्बात = खिरज और जज्बात = श्रद्धांजलि और भावनाएं
मशहर = प्रलय, हिजाब = सुशीलता/नम्रता, रहनुमा = मार्गदर्शक, लीडर )
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
माँ होकर क्यों देखती हूँ वही तमाशा जो बरहा लगता है
क्यों यतीम बच्चे देख मेरा खून खौलता नहीं पिघलता है
क्यों जागती हूँ तब ही जब कोई 'बापू' या 'बोस' जगता है
क्यों हरदम "मुझे" किसी रहनुमा* का इंतज़ार रहता है
उन शहीदों को यूँ नज्मों में मारना अच्छा नहीं लगता
मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
पूनम जी क्या बात है बहुत ही सुंदर
सादर
रचना
रूपम जी, हिन्दयुग्म पर आपका स्वागत है। आपकी कविता अच्छी लगी, परन्तु मुझे लगा कि थोड़ी बड़ी हो गई। बीच बीच में कुछ पंक्तियाँ काफी अच्छी लगी। जैसे:
क्यों जागती हूँ तब ही जब कोई 'बापू' या 'बोस' जगता है
'चूड़ी-कंगन पहने' यूँ बैठे रहना अब अच्छा नहीं लगता
मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
आपकी अगली रचना का इंतज़ार रहेगा।
बहुत अच्छा लीखा है आपने। दर्द भरा लगता है।
उन शहीदों को यूँ नज्मों में मारना अच्छा नहीं लगता
मुझे 'धमाकों' पर कविता लिखना अच्छा नहीं लगता
रूपम जी ! बहुत ही प्रभावशाली कविता !
बेहतरीन ...
उन शहीदों को यूँ नज्मों में मारना अच्छा नहीं लगता
कुछ कर नहीं सकती और 'कुछ न करना' अच्छा नहीं लगता
उपर्युक्त भाव और बातें पसंद आईं। कवि को हमेशा आम आदमी तक पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। भारी-भरकम शब्दों के इस्तेमाल से बचें।
रूपम जी,आपको पहली बार(शायद) हिन्दयुग्म पर देखा,अच्छा लगा आपको इतनी सुंदर प्रस्तुति के साथ देखकर.
आलोक सिंह "साहिल"
Roopam ji,
shailesh ji ki baaton par dhyan de.
Is maamle me main khud hi bahut kachcha hoon, par fir bhi poori koshish karta rahta hoon ki aam aadmi ki bhasha me hi likhoon ;)
आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया| टिप्पणियाँ याद रखूँगी ... | मैंने हाल ही में लिखना शुरू किया है, कविता-लेखन सीख रही हूँ और ऐसे अच्छे 'फीडबैक' की ताक में रहती हूँ ... हिन्दी-युग्म की यह एक बात मुझे बाकी फोरुम्स की तुलना में बड़ी अच्छी लगती है .....
विषय अच्छा है मगर कविता थोड़ी भारी लगी.
Bahut khoob Rupam...Arthpoorn kavita..
kya baat hai di lo lagne bali
क्यों जागती हूँ तब ही जब कोई 'बापू' या 'बोस' जगता है
---अद्वितीय रचना
एक बढ़िया कविता के लिया बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
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