परिन्दे कभी आकाश में नहीं ढूँढते
नीड़ बसेरा
असुविधाओं पर
गुस्साते नहीं दिल में
हावी होते हवा पर
और पुचकार लेते गगन को
गुजारिश नहीं करते कभी आँधी से
सह लेते सूरज की लू
जो कि करा देती उष्ण-स्नान
जला देती पर के संग पेट की भूख को
तो वे लांछन नहीं लगाते
सो जाते कहीं अंधेरे में
वृत्तियों को सहेजे हुये
सुबकती व्यथाओं को अपने में समेटे
नाप लेते गमों के पहाड़;
वे सपने में नहीं देखते
मालिक होने के गुमान और अरमान
युद्ध और शान्ति के फतवे
नहीं सहेजते
आत्मदाह के साथ
दुनिया नष्ट करने की साजिश
अपने ’पक्षीपने’ से
नहीं करते उजागर दबी पशुता और वह मनुष्यपना
बस सलिके से
सी लेते वेदना को
बेतरतीब कोलाहल में भी
बतियाते रहते चीं चीं
हड़बड़ाना उन्हें नही आया
- हरिहर झा
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
परिन्दे कभी आकाश में नहीं ढ़ुंढते
नीड़ बसेरा
असुविधाओं पर
गुस्साते नहीं दिल में
हावी होते हवा पर
और पुचकार लेते गगन को
bahut sunder
इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो।
"behtreen"
Regards
हरिहर जी - नमस्ते,
बहुत सुंदर कविता लिखी है ... परिंदे शिकायत नहीं करते ... इंसान भी सहन करना सीख ले तो .. धरती स्वर्ग हो जाए ...
बस सलिके से
सी लेते वेदना को
बेतरतीब कोलाहल में भी
बतियाते रहते चीं चीं
हड़बड़ाना उन्हें नही आया
- सुरिन्दर रत्ती
बेहतरीन कविता है बहुत अच्छे भावःहैं
सादर
रचना
kya rachana ki hai aapne. ati uttam. jari rhe.
सी लेते वेदना को
बेतरतीब कोलाहल में भी
बतियाते रहते चीं चीं
हड़बड़ाना उन्हें नही आया
.
इसीलिए तो धरा पर रहते हुए भी धरा से ऊपर है
काश इन्सान यह छोटी सी बात समझ पाता |
बहुत सुंदर कविता सहज बात मन को छु गई |
सादर,
विनय
हरिहर जी,
बहुत अच्छा लिखा है। बधाई।
ढ़ुंढते- ढूँढ़ते
आंधि- आँधी
नही- नहीं
दुनियां- ('दुनिया' अधिक उपयुक्त शब्द माना जाता है)
मनुष्यपना- की जगह मनुष्यता ज्यादा सुंदर लगता है, इस पंक्ति में। अब यदि शाब्दिक सौष्ठव की दृष्टिकोण से जानबूझकर इस्तेमाल किया गया हो तो अलग बात है।
सलिके- सलीके
सुंदर कविता
आलोक सिंह "साहिल"
kavita aur achchi ho sakti thi.
इन पंरिदों में कबूतर भी होते हैं जैसे दो पायों में --मध्यम वर्गीय आम आदमी। बाज भी रहते हैं जैसे --- ।
संगीत कार भी हैं-कवि भी । लगता हैं इस कविता में कवि ने केवल उन पंछियों से ही नाता जोड़ा जो उनके मन की बातें करते हैं।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
बहुत सुंदर..
"बस सलिके से
सी लेते वेदना को
बेतरतीब कोलाहल में भी
बतियाते रहते चीं चीं
हड़बड़ाना उन्हें नही आया"...
शैलेश जी
वर्तनी के लिये धन्यवाद
’मनुष्यपने’ का कारण आपने सही पकड़ा है।
व्यंग्य में प्रयुक्त किया है।
पक्षी का सहज स्वभाव एक तरफ़
’दबी पशुता और वह मनुष्यपना’ दूसरी तरफ़ ।
सुविधाओं परगुस्साते नहीं दिल में
हावी होते हवा पर
और पुचकार लेते गगन को
बहुत अभिनव अभिव्यक्ति हेतु साधुवाद -खुदा करे जोरे -कलम और भी ज्यादा -श्यामसखा `श्याम'
पक्षीपने’ और मनुष्यपना
अच्छे शब्द लगे .कविता का विषय बहुत ही अच्छा लगा
......
.....
बतियाते रहते चीं चीं
हड़बड़ाना उन्हें नही आया
बहुत ख़ुब....
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