स्याह बादल छंट गये, आसमाँ भी धुल गये,
कल की आँधी भूल सब आगे निकल गये.
धरती हुई थी लाल, लपटें उठी थीं विकराल,
अनदेखों ने अनजानों से खेली थी होली लाल,
न तुमको चेहरा मिला, ना ही कोई नाम मिला,
फिर क्यों किया मौत का तान्डव, ये ज़लज़ला...?
कोई भाई ढूंढता मिला, किसी को न दोस्त मिला,
बदहवास से समेटते रहे, वो दहशत का सिलसिला,
माँएँ बिलखती रहीं, बेटियाँ सिसकती रहीं,
कुछ वहशी पलों में, जीवन बेल टूटती रहीं,
रूपहले स्वप्न टूट गये, मोती सारे बिखर गये,
बिन चाहे वो तो अपना, अंतिम सफर कर गये,
लाचार हो खडे सब तमाशा देखते रहे,
और तूफानों में मुस्काते फूल बिखरते रहे.
देश अन्धेरे में डूबता रहा, सियासत अनजान रही,
हिन्द की धरती पर आज अपनों की साजिश रही,
आज यहाँ कल वहाँ बस यही सवाल रह गये,
कब तुम कब हम, बस अब यही हाल रह गये.
स्याह बादल छंट गये, आसमाँ भी धुल गये,
कल की आन्धी भूल सब आगे निकल गये...
--अरविन्द चौहान
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सामयिक, धन्यवाद!
स्याह बादल छंट गये, आसमाँ भी धुल गये,
कल की आन्धी भूल सब आगे निकल गये...
अरविन्द जी,जिंदगी का रिवाज यूँ कहें नियम ही यही है.सामायिक,अच्छी रचना.
आलोक सिंह "साहिल"
सामयिक है लेकिन बहुत ज्यादा असर नहीं करती। मुझे कुछ छू जाने वाला नहीं मिला।
अच्छी लगी आप की कविता
लिखते रहें
सादर
रचना
कविता में बहुत गहरा संदेश है जरुरत है जिस दिल से लिखी गई उसी दिल की गहराइयों से पढने की ...
स्याह बादल छंट गयेआसमाँ भी धुल गये,
कल की आन्धी भूल सब आगे निकल गये.
कितना गहरा भाव है इन में समझा जा सकता है
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