
कविता- बेटों की माँ
वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर
सौतेली माँ के प्यार में पली
अपने से दुगुनी उम्र के
राजा की रानी बनी
जो आधे रास्ते में ही
साथ छोड़ गया
खेतों में कपास चुनकर,
मिर्ची तोड़कर
शहरों में ईंट और सीमेंट
माथे पर ढोकर
पसीने का दूध पिलाया
सपूतों को
जीवन को धन्य मानती रही
बेटों की किलकारी सुनकर।
सुना था उसने
शिक्षा
आदमी बना देती है
तो स्थायी
काम तलाशकर
वो घरों में
बाई* बन गई
खाने-कपड़े
की बचत करके
बेटों को भेजा
आदमी बनने
बड़ा बेटा तो
आदमी न बन सका
'नवाब' बन बैठा
बिना मेहनत के
खाने की आदत हो गई
माँ नही! तो बीबी सही!
दूसरे ने-
सत्रहवी किलास (क्लास )
पास कर ली
वो खुश
हरि विठल को
धन्यवाद दिया।
बड़ा गाली-गलोच करता
उसकी अच्छी "साख" को
मिट्टी में मिला देता
वो सीने पर
पत्थर रखकर
"आदमी" बने बेटे की ओर
ताकती!
न जाने?
इस "आदमी "को
कौन से 'दल' ने
अपने रंग में रंग दिया
आये दिन
सरकारी गाड़ियों में
राजधानी जाता
पुलिस की
लाठियाँ खाता
कभी थाने में बंद होता,
कभी जूलूस में
सबसे
आगे-आगे होता
नारे लगाता।
उसके परिवार
को पालने में
वो आज भी
65 साल की उम्र में
घर-घर को कंचन बनाती
'झूला-घर'
में ममता लुटाती
बेटों की
"माँ हूँ"
कभी भी इससे
उबर न पाती ..........
*बाई- निमाड़ में माँ को बाई कहते है और मुंबई में काम करने वाली महिलाओ को बाई कहते है
प्रथम चरण मिला स्थान- पंद्रहवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- सत्रहवाँ