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बेटों की माँ की नियति


जुलाई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की अंतिम कविता की रचयिता शोभना चौरे का जन्म खंडवा (मध्य प्रदेश) में हुआ। हिन्दी साहित्य पढ़ने में रुचि रखती हैं तथा कविता, कहानी, लेख, व्यंग्य लिखने में रुचि रखती हैं। बी॰ए॰ तक पढ़ी-लिखीं शोभना गृहिणी हैं। पहले वामा,धर्मयुग में इनके लेख प्रकाशित हुए हैं। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविता और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। वर्तमान में ये बंगलूरू में रहती हैं, जहाँ मजदूरों के बच्चों को पढ़ाकर उन्हें सरकारी पाठशालाओं में दाखिल करवाती हैं। अभी तक इनके यहाँ कुल 23 बच्चे पढ़ रहे है और इस साल कक्षा ५ में हैं।

कविता- बेटों की माँ

वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर

सौतेली माँ के प्यार में पली
अपने से दुगुनी उम्र के
राजा की रानी बनी
जो आधे रास्ते में ही
साथ छोड़ गया
खेतों में कपास चुनकर,
मिर्ची तोड़कर
शहरों में ईंट और सीमेंट
माथे पर ढोकर
पसीने का दूध पिलाया
सपूतों को
जीवन को धन्य मानती रही
बेटों की किलकारी सुनकर।

सुना था उसने
शिक्षा
आदमी बना देती है
तो स्थायी
काम तलाशकर
वो घरों में
बाई* बन गई
खाने-कपड़े
की बचत करके
बेटों को भेजा
आदमी बनने
बड़ा बेटा तो
आदमी न बन सका
'नवाब' बन बैठा
बिना मेहनत के
खाने की आदत हो गई
माँ नही! तो बीबी सही!
दूसरे ने-
सत्रहवी किलास (क्लास )
पास कर ली
वो खुश
हरि विठल को
धन्यवाद दिया।

बड़ा गाली-गलोच करता
उसकी अच्छी "साख" को
मिट्टी में मिला देता
वो सीने पर
पत्थर रखकर
"आदमी" बने बेटे की ओर
ताकती!
न जाने?
इस "आदमी "को
कौन से 'दल' ने
अपने रंग में रंग दिया
आये दिन
सरकारी गाड़ियों में
राजधानी जाता
पुलिस की
लाठियाँ खाता
कभी थाने में बंद होता,
कभी जूलूस में
सबसे
आगे-आगे होता
नारे लगाता।
उसके परिवार
को पालने में
वो आज भी
65 साल की उम्र में
घर-घर को कंचन बनाती
'झूला-घर'
में ममता लुटाती
बेटों की
"माँ हूँ"
कभी भी इससे
उबर न पाती ..........

*बाई- निमाड़ में माँ को बाई कहते है और मुंबई में काम करने वाली महिलाओ को बाई कहते है


प्रथम चरण मिला स्थान- पंद्रहवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- सत्रहवाँ

आतंकवादी कोख में नहीं पलते


मई महीने की प्रतियोगिता में संगीठा सेठी की कविता 'मानव के अश्रु स्रोत' जजों द्वारा अनुशंसित हुई थी। जुलाई महीने की प्रतियोगिता में भी इनकी एक कविता को जजों ने काफ़ी पसंद किया।

कविता- आतंक किसी कोख में नहीं पलता

कौन कहता है
भ्रूण हत्या पाप है?
चल जाता पता
गर माँ को
कि पल रहा है
कोख में आतंक...
तो कर देती वो
खुद ही
उस भ्रूण की हत्या...
बताओ क्या तुम
ठहरा पाते
उसे दोषी?
कह दो
उन वैज्ञानिकों से....
किये हैं ईजाद
जिन्होंने
भ्रूण जानने के
उपकरण.....
ईजाद करें अब
कोख में पलने वाले
आतंकवादी भ्रूण...
पर कहाँ?
आतंक
किसी कोख में
नहीं पलता।
माँ तो क्या
माँ के
साए से भी
दूर.......
ईर्ष्या-द्वेष की
धरती पर.....
जहां
ममता नहीं
घृणा बरसती है...
हाँ ! आतंक
किसी कोख में नहीं पलता


प्रथम चरण मिला स्थान- पच्चीसवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- सोलहवाँ

चाँद और आफ़ताब को सालगिरह की मुबारकबाद


प्रतियोगिता की 14वीं कविता के रचनाकार गौरव शर्मा 'लम्स' पहली बार हिन्द-युग्म पर कवि के तौर पर हाज़िरी लगा रहे हैं। पाठक के तौर पर इनकी पदचाप अकसर ही सुनाई पड़ती रहती है। पेशे से सोफ्टवेयर प्रोग्रामर गौरव मूलरूप से आगरा हैं। लम्स का लिखना ज्यादातर ब्लोग्स और सोशल नेट्वर्किंग वेबसाइट्स पर ही होता है। इन्होंने लिखना तो शोकिया शुरू किया था पर आज यह इनकी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन चुका है। इनकी कोशिश बस इतनी ही है कि लिखने कि कला को नयी पीढ़ी में भी जिंदा रखा जाए और SMS शायरी से बचाया जाए।

कविता- सालगिरह

चाँद और आफताब एक रोज़ मिले थे
बैठे थे कुछ देर बातें की थी,
बड़ा रश्क था जिन सितारों को उनसे,
वो टूटे फलक पे तमन्नाएँ देकर,
एक उल्का को कानों की बाली में जड़कर,
पहना डाला था चाँद को आशना ने,
माह ने भी अपने सितारों से बोसे,
सूरज की ऊँगली में पहना दिए थे,
उन्हें क्या पता था कि एक रोज़ उनकी,
इसी दोस्ती से बहुत नूर होगा,
जब फेरे लिए थे ज़मीं के उन्होंने,
दिन और रातों का आना हुआ था,
कायनात फिर से अब एक जुट हुई है,
हर एक सिम्त याँ आकर है ठहरी,
ज़मीं वालों का आज रौशन हुआ दिन,
रातें भी रौशन हुई चांदनी से,
सभी ने है लेकर दुआओं की थाली,
तमन्नाओं का सुर्ख टीका लगाया,
फलक पर बैठाया बहुत प्यार से और,
जाविदाँ सी खुशियों की मन्नत भी मांगी,
सुना है, वो आज ही का तो दिन था,
दुनिया में जब दिन का आना हुआ था,
अब कितने ही दिन इनकी शादी को बीते,
पर मिलते हैं अब भी खलाओं में जाकर..!!
ज़मीं वालों की ओर से...
चाँद और आफ़ताब को,
सालगिरह की मुबारकबाद||


प्रथम चरण मिला स्थान- ग्यारहवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- चौदहवाँ

मेरी बारिश का पानी


स्मिता मिश्रा को आप पहले भी पढ़ चुके हैं। बारिश के इस मौसम में पढ़िए इनकी एक कविता जो पंद्रहवें स्थान पर है।

कविता- मेरी बारिश

मेरी बारिश में मेरे उनींदे सपनो का पानी है
मेरी बारिश ओढ़ती है अपने चारो ओर
सागर सा अथाह विस्तार,
मेरी बारिश की बूंदे सक्षम है
तृप्त करने में
मेरी अतृप्त कामनाओ को,
मेरे अधूरे सपनों को
मेरी कुँठाओं को
मरे उलझावों को
और भविष्य की आशंकाओं को
मेरी बारिश का पानी सींचता है मेरे अंतर्मन को,
उकसाता है मेरी कामनाओं को
सराबोर करता है मेरे उत्सवों को,
जगाता है मेरे अंदर के नन्हे हरे पौधे को
जो उदग्र है अपनी जड़ों के विस्तार के लिए


प्रथम चरण मिला स्थान- तेइसवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- पंद्रहवाँ

ईश्वर-आदमी संवाद


तारव अमित की एक कविता हमने पिछले महीने प्रकाशित की थी। आज हम इनकी एक और कविता प्रकाशित कर रहे हैं, जो 13वें स्थान पर है।

कविता

तू कौन है
मैंने पूछा-
“ईश्वर क्या है
पुराना है या नया है
अपना है या पराया है
अवतरित हुआ या पेट का जाया है
अँधेरे में है या दिखता है
ईमानदार है या बिकता है
इसका है, उसका है या अपना है
असंभव सच है या पूरा होता सपना है
बहलाने का हमें कोई जादू किया है
या जग को बनाया है, इसका मुखिया है
झुके सर का सजदा है .. पूजा है ..वंदना है ..
या स्व का अर्पण है मन की प्रार्थना है
सरपरस्त है या रहबर है
या कठपुतलियों का जादूगर है
तू ही बता क्यों मौन है
ईश्वर; तू कौन है !
वो कहते हैं तू कण-कण में है
युग में है, पल में है, हर क्षण में है
यहाँ वहां हर जगह व्याप्त है
फिर कैसे ये दुनिया दुःख से व्याप्त है
तू ही बता फूल के साथ कांटे क्यूँ होते हैं
लोग भूख, गरीबी, जहालत से क्यूँ रोते हैं
क्यूँ यहाँ अमीरी और गरीबी है
राग, द्वेष, ईर्ष्या और रक़ीबी है
क्यूँ हिंसा, फसाद और दंगे हैं
क्यूँ चेहरे पे नकाब हाथ खून से रंगे हैं
क्यूँ छल कपट और मारामारी है
दुर्घटना, आपदा और बीमारी है
यदि सच में तू है
तो ये सब क्यूँ है?
ईश्वर उवाच-
ये सच है की मैं धरती में हूँ, अम्बर में हूँ
दुश्मन में हूँ, रहबर में हूँ
सच में हूँ, झूठ में हूँ
हरियाली में हूँ, ठूँठ में हूँ
काले में हूँ, सफ़ेद में हूँ
समानता, समरस, और भेद में हूँ
हर अच्छे बुरे में पाया जाता हूँ
क्योंकि अच्छे बुरे का भेद मैं ही बताता हूँ
अगर ऐसा ना हो तो अच्छे को अच्छा कौन कहेगा
झूठ को गंदा सच को सच्चा कौन कहेगा
अनीति, अत्याचार, दुष्टता की कैसे बुराई होगी
यदि ये द्वैत ना हो तो कैसे इनसे लड़ाई होगी
यदि सबकुछ ही ठीक है
तो फिर बंद जीवन पथ की लीक है
कहाँ जाओगे, चलोगे कैसे
जिन्दगी जिओगे कैसे
तेरा जीवन तो फिर भी वरदान है
क्योंकि तू इंसान है
तू सोच सकता है, बता सकता है
रो सकता है, गा सकता है
तुझे अपनी बात का बड़ा असर है
अरे उसे सोच जो जानवर है
जो बिन बोले बिन रोए जीने को अभिशप्त है
फिर भी मुतमईन, मौजी, मस्त है
तू भी इन सब पचड़ों में मत पड़
बहुतेरी दुनियावी बातें हैं उनसे लड़
क्यों मेरे कामों में टाँग फँसाता है
क्यों नहीं चुपचाप जीता जाता है
तुम सब में भी, जो मानता है मुझे, वो जानता है
जो नहीं जानता, वो भी मानता है
जानने और मानने का खेल अजब है
तू रब में, तू ही रब है
ये खेल तेरे भेजे में समा जाएगा
आदमी तो बन, ईश्वर को अपने आप पा जाएगा!!"


प्रथम चरण मिला स्थान- इक्कीसवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- तेरहवाँ

औरत नहीं उतार पाती आदिम युगीन केचुल


अनुज शुक्ला की एक कविता हम पिछले महीने भी प्रकाशित कर चुके हैं। इस बार इनकी कविता बारहवें स्थान पर आई है।

कविता- औरत होने का मतलब

दूर करी जाती है हमेशा
अपनी व्यक्तिगत पहचान से,
दबाई जाती है हमेशा, कि पुरुष के-
अहं से कई गुना ऊपर
न उठ जाये
वहाँ तक जहाँ से
सम्हाली जाती हैं शासन और प्रशासन की लगाम

एक चुप्पी, शख्शियत ऐसी जो उम्र बिता देती है
बस एक अदद नाम के लिये
कभी लपोसरा की बेटी
फिर हरिचरना की मेहर
और अन्त तक रह जाती है
सिर्फ़ कलुआ-मलुआ की महतारी......
नहीं उतार पाती आदिम युगीन केचुल
कुछ करना होगा
खुद तुमको,
खुद तुम्हारे लिये
ढूँढ़ना ही होगा तुम्हें
औरत होने का मतलब?


प्रथम चरण मिला स्थान- सोलहवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- बारहवाँ

राम कृष्ण की धरती पर बच्चा भीख भी माँगा करता है


आलोक उपाध्याय की कविताएँ लगातार तीन बार (अप्रैल, मई और जून 2009) की प्रतियोगिता में शीर्ष 10 में स्थान बना चुकी हैं। इस बार इनकी एक कविता ग्यारहवें स्थान पर है।

कविता- ग़म को नींद नहीं आती

अगली बार बहल जायेगा हर बार ये वादा करता है
ग़म को नींद नहीं आती हर वक़्त ये जागा करता है

इन्सां से दीवारों का ये शिकवा हर हद तक जायज़ है
खुश हो तो आईना, दुःख हो तो हमको ताका करता है

हर मुद्दे की बात करेंगे, पर इस बात पे कन्नी काटेंगे
राम कृष्ण की धरती पर बच्चा भीख भी माँगा करता है

तेरे ओर से आने वाली हर शय कुछ यूँ हमसे जुड़ती है
कोई ज़ख्म उकेरा करता है कोई दर्द को ताजा करता है

ये बात नयी नहीं है लेकिन इस बार ये दस्तक देखेंगे
कौन है जो छुपकर के हम पे इस तीर को साधा करता है

मैं उसकी हद तक पहुँच न पाऊँ ये भी तो मुमकिन है
तो ये कहने में फक्र है मुझको प्यार वो ज़यादा करता है

हँस कर के मिलने का तजुर्बा लेने की कोशिश करो 'नज़र'
किसी से खुल के मिलना उसकी तकलीफ को आधा करता है


प्रथम चरण मिला स्थान- बाइसवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- ग्यारहवाँ

तेरी आवाजें अपनी आँखों में बिछा लूँगी


पिछली प्रतियोगिता की सबसे अच्छी बात यह रही कि इसमें शीर्ष 10 में बिलकुल नहीं कवियों की कविताएँ चयनित हुईं। ऐसी ही एक नई कवयित्री मेयनूर खत्री की कविता नौवें स्थान पर रही। गुजरात के कच्छ से संबंध रखने वाली मेयनूर का जन्म 28 जून 1984 को हुआ। इनकी परवरिश और पढ़ाई भी वहीं हुई। गुजरात यूनिवर्सिटी से बी.कॉम करने के बाद सॉफ्टवेर इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया। फिलहाल एक स्कूल के प्रबंधन से जुड़ी हैं। घर में साहित्य का कुछ खास माहौल नहीं रहा। गुलज़ार साब को छुटपन से सुनती रहीं, जबकि ये भी पता नहीं था के ये सारे सोंग्स और मूवीस जिन्हें ये इतना पसंद करती हैं, वो सब उन्हीं के हैं। इन्टरनेट पे ब्लॉग्स और कुछ दोस्तों को पढ़ते-पढ़ते इन्होंने भी कुछ दो साल पहले लिखना शुरू किया। इनकी कवितायें इनके ब्लोग्स और ऑरकुट कम्युनिटी के अलावा कहीं और पब्लिश नहीं हुई है और इन्होंने पहली बार ही किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया है।

पुरस्कृत कविता- तेरी आवाजें

किसी एक ग़ज़लों वाले
नज़्मकार से पढ़ा है
कि
आवाजें मरती नहीं हैं
वो कहीं दूर
ख़लाओं में
किसी जज़ीरे पे चली जाती हैं

वैसे तो तेरी
सारी बातें, आवाजें
मेरे पास महफूज़ पड़ी हैं
पर मैं
इतनी घुल गई हूँ
उनमें कि मैं
चाहकर भी उनसे
अपने को अलग करके
देख नहीं सकती

मैं ऐसा करुँगी
उस ग़ज़लोंवाले जादूगर से
बोलूँगी
अबके जब निकलेगा वो
ख़लाओं की सैर पर
मै भी साथ हो लूंगी उसके

तेरी सारी आवाजें
चुन के वहां से
अपने दामन में बाँध के
ले आउँगी अपने साथ
फिर जब जी चाहेगा
तेरी आवाजें अपनी
आँखों में बिछा के
उन्हें देख लिया करुँगी....

शबदार्थ- ख़ला- रिक्त स्थान, अंतरिक्ष
जज़ीरा- द्वीप


प्रथम चरण मिला स्थान- दूसरा


द्वितीय चरण मिला स्थान- नौवाँ


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

आज भी है याद मुझको बात पहली, प्यार पहला


प्रतियोगिता की दसवीं कविता के लेखक डॉ॰ भूपेन्द्र वर्तमान में शा० टी० आर० एस० शोध केंद्र, रीवा में हिंदी के प्रोफेसर हैं। लेखन में कवितायें, समालोचना, कहानियां, रिपोर्ताज आदि पर हाथ आजमाते हैं। अकादमिक विषयों पर इनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं। अनुवाद इनकी रूचि का कार्य है, कुछ प्रकाशित कृतियों में इनका योगदान रहा है।

पुरस्कृत कविता- दिन बहुत बीते, नहीं अब याद मुझको गीत पहला

रागिनी सी उम्र थी और प्यार था संतूर सा,
अश्रु कण भी नहीं थे और दर्द भी था दूर सा,
जी रहा था पुष्प सा, मधुगंध सी थीं तुम प्रिये,
रूप की इस धूप में हर हर शख़्स था मजबूर सा,
आज भी है याद मुझको बात पहली, प्यार पहला..

क्या करूं संघर्ष ही हरदम रहा है साथ मेरे,
वक़्त की तन्हाइयां हों या उजालों के सवेरे,
हारने की, जीतने की बात मै करता नहीं हूँ,
लग रहा है छल रहे हैं उम्र को मन के अँधेरे,
चाहता हूँ अब छोड़ ही दूं प्रीत का अधिकार पहला...

मैं थका हूँ पर अभी भी जूझने की चाह बाकी,
उम्र भर चलता रहा हूँ पर अभी भी राह बाकी,
ताप है मेरी शिराओं में कि अब भी शेष है रण,
मुस्कराहट है लबों पर, है हृदय में आह बाकी,
कर रहा अंतिम पलों में हार का स्वीकार पहला...


प्रथम चरण मिला स्थान- बारहवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- दसवाँ


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

मात्र मैं ही इस नाटक का पात्र नही हो पाया हूँ


जुलाई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की सातवीं कविता के रचनाकार भी हिन्द-युग्म के लिए नया चेहरा हैं। 3 सितम्बर 1983 को जन्मे योगेश कुमार ध्यानी कानपुर के निवासी हैं। पेशे से मरीन इंजिनियर हैं। लिखने का शौक बहुत पुराना है पर दूसरों के साथ बाँटना बस कुछ एक-डेढ़ वर्ष पहले से ही शुरू किया है, वो भी ओर्कुट और अपने ब्लॉग वग़ैरह के माध्यम से। 'बावरा मन' से कलम चलाने वाले ध्यानी गुलज़ार साहब से विशेष रूप से प्रेरित रहे हैं।

पुरस्कृत कविता- कभी कभी ऐसा लगता है

कभी कभी ऐसा लगता है
जैसे जो कुछ भी होता है
मेरी आँखों के आगे
सब कुछ एक धोखा है
जाने क्यूँ ऐसा लगता है
मुझसे मिलने वाला हर इक
कहता है मुझसे जो कुछ भी
सब कुछ पूर्वनियोजित है
मुझको ऐसा भी लगता है
जैसे मेरे पीछे मानो
सब कुछ ठहरा ठहरा सा हो
और वहीं आँखों के आगे
सब कुछ इतनी तेज़
बदलता है कि जैसे
दृश्य बदलते हैं नाटक के
मेरे आगे चलने वाले
मानो सारे लोग,सभी आवाज़ें
और सारी बातें
सब हिस्सा हैं इस नाटक के
मैं एक अकेला दर्शक हूँ
ये नाटक है मेरी खातिर
मेरी आँखों के अंत-शिखर तक
मंच है इसका
कई कथानक कई पात्र
सब साथ खड़े हैं
अपनी अपनी भूमिकाओं मे
जीवन भरते
कितना व्यापक है ये सबकुछ
ये नाटक इस सदी की सबसे
विशालतम प्रस्तुति है
कभी कभी ऐसा लगता है
नाटक भी कितने आख़िर
जीवंत बनाए जा सकते हैं
और तभी यूँ भी लगता है
ये जीवन भी कितना आख़िर
नाटकीय हो सकता है
ये दुविधा है मेरी मैं अब तक
इस नाटक का एक सहज सा
पात्र नही हो पाया हूँ
मैं एक अकेला दर्शक हूँ
ये नाटक है मेरी खातिर....


प्रथम चरण मिला स्थान- उन्नीसवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- सातवाँ


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

थोड़ी बहुत बगावत का जुज़ भी ज़रूरी है


मुहम्मद अहसन हिन्द-युग्म के सक्रियतम पाठक हैं। एक बार यूनिकवि का ख़िताब भी जीत चुके हैं। जुलाई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी एक कविता ने 6वाँ स्थान बनाया।

पुरस्कृत कविता- सलाह

पुरसुकून जिंदगी के लिए
समझौते ज़रूरी हैं,
मगर यह देख लेना कि,
समझौते कहीं इस क़दर न हो जाएं
कि और कुछ करने के
लायक़ ही न रहो

बड़े और बुजुर्गों की,
मां बाप और रिश्तेदारों की
इज्ज़त और फ़र्माबरदारी

फ़र्ज़ और लाज़मी है,
मगर यह देख लेना कि
एइत्क़ाद के समंदर में
आँख इस क़दर न बंद हो जाय
कि तुम उन के जुर्म में शरीक हो जाओ

हाकिमों और ओहदेदारों
मिज़ाजपुरसी यक़ीनन ज़रूरी है,
आदाब और अदब ज़रूरी हैं,
हुक्मबरदारी लाज़मी है,
मगर यह देख लेना कि
हुक्म और आदाब बजा लाने के जोश में
कहीं इस क़दर न झुक जाना
कि रीढ़ की हड्डी ही टूट जाय

एइत्क़ाद और परस्तिश ज़रूरी हैं,
ईमान और एतबार ज़रूरी हैं
मगर यह देख लेना कि
जिंदा इंसान के लिए
ज़मीर ओ खुद्दारी भी ज़रूरी हैं;
सही और ग़लत का इम्तियाज़ भी ज़रूरी है,
चीजों के इखलाकी
और गैरइखलाकी होने का
फ़र्क भी भी ज़रूरी है ;
और इंसान के जिंदा वजूद के लिए
थोड़ी बहुत बगावत का जुज़ भी ज़रूरी है
.............................................................
एइत्क़ाद - श्रद्धा
इम्तियाज़ - भेद
इखलाकी -नैतिक
गैर इखलाकी - अनैतिक
जुज़ - अंश


प्रथम चरण मिला स्थान- छठवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- छठवाँ


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

कहने को ये मेरा घर है


प्रतियोगिता के पाँचवें स्थान की कविता के रचनाकार सजीवन मयंक हिन्द-युग्म में पहली बार अपनी हाज़िरी लगा रहे हैं। 21 अक्टूबर 1943 को जन्मे मयंक रसायन विज्ञान में एम॰एस॰सी॰ और हिन्दी-संस्कृत विशारद हैं। साठ के दशक से लेखन प्रारंभ करने वाले और वर्ष 1962 में अखिल रंग भारतीय काव्य प्रतियोगिता में पुरस्कृत सजीवन की रचनाएँ धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, भारती, मधुमति, रंग-चकल्लस, इंगित, सरिता, मुक्ता, योजना, आरोग्य संदेश इत्यादि में प्रकाशित हैं। आकाशवाणी, इंदौर और भोपाल से नियमित काव्यपाठ करने वाले कवि सजीवन गज़ल, गीत, क्षणिकाएं, मुक्तक, साक्षरता, गीत,व्यंग्य-जल आदि विधाओं में अपनी कलम चलाते हैं।
संकलनः- गाते चलें पढ़ाते चलें, उजाले की कसम, माटी चंदन है, फागुन आने वाला है, दिन अभी ढला नहीं, किसकी तलाश है।
वर्तमान में साहित्य सृजन एवं सामाजिक कार्य में संलग्न हैं और होशंगाबाद (म.प्र.) में निवास कर रहे हैं।

पुरस्कृत कविता

ऐसे सभी मकान बने हैं।
दीवारों में कान बने हैं।।

मेरे दोष जमाने भर में।
मेरी अब पहचान बने हैं।।

कहने को ये मेरा घर है।
जिसमें हम मेहमान बने हैं।।

दुश्मन है जाना पहिचाना।
क्यों हम सब अनजान बने हैं।।

घर आंगन में है अंधियारा।
कैसे रोशनदान बने हैं।।

कौन चला दुर्गम राहों पर।
जिसके यहां निशान बने हैं।।

इंसानों में अंतर क्यों है।
दिल तो एक समान बने हैं।।

छुटपुट गर्म हवा के झोंके।
मिलजुलकर तूफान बने हैं।।


प्रथम चरण मिला स्थान- तीसरा


द्वितीय चरण मिला स्थान- पाँचवाँ


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

वह अपने कुरते का सीवन नहीं छुपा पाई


प्रतियोगिता के चौथे स्थान की कविता के रचयिता पृथ्वीपाल रावत को अपने बारे में बस इतना पता है कि ये दर्द जीते हैं और दर्द पीते हैं। और जब इनकी पीर हद से गुजर जाती है तो होंठों पर आकर कविता बन जाती है। 15 अक्टूबर 1980 को अल्मोड़ा, उत्तराखंड में जन्मे पृथ्वीपाल रावत अकेला मुसाफिर नाम से कविताएँ लिखते हैं। फिलहाल गुड़गाँव में अध्यापन कर रहे हैं।

पुरस्कृत कविता- सीवन

उसके कुरते की सीवन
जो उधड़ चुकी थी उसके यौवन से
जिसे वह उँगलियों से छुपाती थी
आज और उधड़ चुकी है!
उसने जोड़ना चाहा था
एक-एक भेला
उसे सीने के लिए
पर हर बार
पेट की आग
खा जाती थी
उसकी सिलाई के पैसे
और हमेशा की तरह
वह छुपाती थी उस उधड़न को
अपनी उँगलियों से!!
पर आज
उँगलियाँ बहुत लचर हैं
बेबस हैं
उसकी उधड़न छुपाने को
उसके पेट की तरह
क्योंकि
सीवन उधड़ चुकी है
उसकी अपनी ही उँगलियों से!!

*भेला- टुकड़ा-टुकड़ा, पैसा-पैसा


प्रथम चरण मिला स्थान- चौथा


द्वितीय चरण मिला स्थान- चौथा


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

माँ ने छत पर मूँग का पौधा लगाया ताकि


21 दिसम्बर 1953 को ऋषिकेश (उत्तराखंड) में जन्मी मंजु गुप्ता एम ए (राजनीति शास्त्र) और बी॰एड॰ जैसी पढ़ाइयाँ की है। जयहिंद जुनियर हाई स्कूल एवं पंजाब-सिंध क्षेत्र हाई स्कूल, ऋषिकेश में अध्यापन कर चुकीं मंजु वर्तमान में जयपुरियर, हाई स्कूल, सानपाडा, नवी मुंबई में हिंदी शिक्षिका हैं। योग, खेल, जन-सम्पर्क, पेंटिग में रुचि रखने वाली मंजु की 2000 से अधिक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। प्रान्त पर्व पयोधि (काव्य), दीपक (नैतिक कहानियाँ) सॄष्टि (खंड काव्य), संगम (काव्य), अलबम (नैतिक कहानियाँ), भारत महान (बाल गीत), सार (निबंध), परिवर्तन (नैतिक कहानियाँ) इनकी पुस्तकें हैं और जज्बा (देशभक्ति के गीत) प्रेस में है। समस्त भारत की विशेषताओं को प्रांत पर्व पयोधि में समेटने वाली प्रथम महिला कवयित्री का श्रेय मंजु को प्राप्त है। मुम्बई दूरदर्शन द्वारा आयोजित साम्प्रदायिक सद्‍भाव-सौहार्द्र पर कवि सम्मेलन में सहभाग, गांधी की जीवन शैली, निबंध-स्पर्धा में तुषार गांधी द्वारा विशेष सम्मान से सम्मानित, शाम-ए-मुशायरा में सहभागिता, ट्विन सिटी व्यंजन स्पर्धा में प्रथम, मॉडर्न कॉलेज, वाशी द्वारा सावित्रीबाई फूले पुरस्कार से सम्मानित, भारतीय संस्कॄति प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित प्रीत रंग प्रतियोगिता में पुरस्कॄत, राष्ट्रीय स्तर पर 1967 में उत्तर प्रदेश की खेल स्पर्धा में पुरस्कॄत, आकाशवाणी मुंबई से कविताएं प्रसारित, राष्ट्रभाषा महासंघ द्वारा पुरस्कृत।
सम्मान: वार्ष्णेय सभा, मुंबई द्वारा वार्ष्णेय चेरिटेबल नवी मुंबई द्वारा एकता वेलफेयर कल्चर असोसिएन मैत्रेय फाउंडेशन, विरार

पुरस्कृत कविता- कंकड़

अधिकतर बच्चों को नहीं मालूम होता
पेड़ पौधों के बारे में

आठ साल की बेटी की जानकारी के लिए
मॉँ ने छत पर बनाया बगीचा
तरह-तरह के फूल-पौधे लगाए
मूंग की दाल भी अंकुरित हुई
कुछ दिनों बाद उस हरे पौधे पर
हल्के पीले फूलों का बसंत था छाया
फिर उस पर लम्बी फलियाँ लगीं
माँ ने बेटी को दिखा कर बताया
यह है मूँग की फली
डाली से एक फली तोड़ी
हाथ से फली खोल कर
बेटी के हाथ में दाने रख कर
कहा ……
कितने सुंदर हैं ये हरे मूंग के दाने
इसी से बनती है दली मूंग की दाल
आश्चर्य से भोलेपन से बेटी ने पूछा
माँ इसमें कंकड़ कहाँ है लगता
यह भी तो बताओ………………


प्रथम चरण मिला स्थान- आठवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- दूसरा


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

लम्बी थकान और तुम्हारा एक दिन का साथ


दिव्य प्रकाश दुबे आइडिया सेलुलर लिमिटेड में मार्केंटिंग प्रोफेशनल हैं। इनके द्वारा निर्मित और निर्देशित डाक्यूमेंट्री 'छोटे से पंख' को अंग्रेजी थिएटर के चर्चित शख़्स साइरस दस्तूर द्वारा शुरू की संस्था शामियाना- दी शॉर्ट फिल्म क्लब द्वारा तीसरा पुरस्कार भी मिला। अभी कुछ दिन पहले ही टॉम अल्टर की ओर से साथ में डिनर करने का निमंत्रण भी पा चुके हैं। बीटेक और सिम्बॉयसिस, पुणे से एम बी ए की पढ़ाई कर चुके दिव्य प्रकाश दुबे कविताएँ भी लिखते हैं। इंटरनेट पर ब्लॉग और ऑरकुट में सबसे अधिक बार चोरी होनी वाली कविता 'क्या लिखूँ' के रचयिता होने का श्रेय भी इन्हें प्राप्त है। कविताओं का प्रभावी पाठ करते हैं। आज जुलाई माह की प्रतियोगिता से हम इनकी कविता लेकर उपस्थित हैं, जिसने तीसरा स्थान बनाया है। साथ में इनकी प्रभावी आवाज़ में काव्यपाठ भी।

पुरस्कृत कविता

लो आज आ ही गया मैं,
जिन्दगी और तन्हाई बड़ी मुश्किल से चुरा के ला पाया हूँ,
चुपके से,
सबसे नज़र बचाकर,
सिटकनी को बंद कर लो...
घड़ियों से बैटरी को निकाल के फेंक दो कहीं ...
कमबख़्त बहुत ही तेज़ चलने लगाती है मुझको देख कर!!
फिर इत्मिनान से मुझको अपने पहलू में,
सारे गिले-शिकवों के साथ जज्ब कर लो तुम,
जैसे बाहर की दुनिया मुझे अपनी भीड़ में जज्ब कर लेती है...
एक दम से खो जाता हूँ मैं..
हाँ तुम्हारे साथ खोया तो शायद से सुकून से खो सकूँगा ....!!
फिर तुम शिकायत की सारी गाठें एक-एक करके,
खोल के दिखाओ मुझको,
तुम्हारी हर एक ख्वाहिश जो मैं पूरी नहीं कर पता ....
उसकी टीस को तुम ही सहला भी दो
वर्ना इतने सारे घावों के बीच में ...
मुझे डर हैं कि,
तुम्हारे दिये घाव कहीं खो न जायें
तुम्हारे दिया वैसे भी ज्यादा कुछ है कहाँ मेरे पास...!!
अच्छा सुनो,
जब किचेन से खाना बना के लाना तो,
बरामदे के कैलेंडर को पलट देना जरा,
एक ही दिन को सही,
मैं तारीख को पलट तो लूँ ....
वर्ना मुई तारीख ही हमेशा पलटती आई है मुझको ...!!
पता नहीं कितने दिनों की थकान ले के,
तुम्हारे पास आ तो गया हूँ,
पर थकान मिटने को .....
दिन “एक” ही ....चुरा पाया मैं ...


प्रथम चरण मिला स्थान- तेरहवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- तीसरा


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।

काव्यपाठ

मेरी बहनें बाँध जाती हैं


सभी पाठकों को रक्षाबंधन की बधाइयाँ। आज हम इस अवसर लेकर आये हैं, इसी विषय पर एक कविता, जिसके रचनाकार हैं स्वप्निल तिवारी ' आतिश'। स्वप्निल की कविताएँ पिछले 2 महीनों से हम लगातार प्रकाशित कर रहे हैं।

पुरस्कृत कविता- मेरी बहनें

जैसे इक
काँच की आवाज़ से
रंगा गया हो उन्हें,
उड़ती हैं तितलियों सी
तो पंख बजते हैं,
कितनी रंगीन आवाजें
उभर के आती हैं,
आसमां तक जो ये पहुंचें
तो धनक बनता है ...
चमन-चमन
वो बहती हैं
हवाओं की तरह,
पहली बरसात के
पानी की तासीर लिए ...

हर एक गुल पे
बैठ-बैठ के
थक जाती है जब,
धनक से होते हुए
और बारिशों को छुए
लिए कांच की तितलियाँ
ये मेरी बहनें
बाँध जाती हैं
आके मेरी कलाई पे तब,
जैसे राखी के धागों से
उन्हें बुना हो खुदा ने........


प्रथम चरण मिला स्थान- प्रथम


द्वितीय चरण मिला स्थान- आठवाँ


पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।