यूनिकवि प्रतियोगिता में चौथे स्थान पर रहे हैं आलोक उपाध्याय ’नज़र इलाहबादी’। पेशे से सॉफ़्टवेयर इंजीनियर आलोक की दो कवितायें मेरे नुख्से कारगर हो सकते हैं व इस बार आम की गुठलियाँ ले चलो अप्रैल व मई प्रतियोगिता में क्रमश: प्रकाशित हो चुकी हैं।
पुरस्कृत कविता
ख्वाब गुमसुम हैं आँख से उतर गए हैं जो
सच होने के नाम पर कभी मुकर गए हैं जो
क्या पाए इस जहाँ के रहम-ओ-करम फिर से
यक़ीन-ए-वफ़ा दिलाने में लोग मर गए हैं जो
बहुत गुंजाईश है सुधारने की उनकी बुनियादें
ज़रा सी हलचल में घर बिखर गए हैं जो
वो अपनों के आंसू को अपना लहू समझते है
अपने परिवार के लिए दूसरे शहर गए हैं जो
नहीं मानेंगे कि ये बड़ी मुश्किलों का दौर है
इन रास्तों से हँसते हँसते गुज़र गए हैं जो
कभी कुछ वक़्त तो अपना उनको भी दीजिये
फिक्र-ए रोज़गार में रिश्ते बिसर गए हैं जो
नहीं हो पायेंगे वो जिंदगी की दौड़ में शामिल
कामयाबी के इंतज़ार में रास्ते ठहर गए हैं जो
जिंदगी के मालिक को दिल में न खोज पाए
खुदा की तलाश में बन्दे दर-बदर गए हैं जो
देखते हैं महफ़िल में क्या सिक्का जमाते है
कुछ देर पहले ये पैगाम -ए 'नज़र' गए है जो
प्रथम चरण मिला स्थान- छठा
द्वितीय चरण मिला स्थान- चौथा
पुरस्कार- समीर लाल के कविता-संग्रह 'बिखरे मोती' की एक प्रति।
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
सारे शेर पढ़ कर ऐसा लगा जैसे दिल बार-बार जज्बात में डुबकी लगा लगा कर ऊपर आता है | मगर पहले शेर में ऐसा लगा कि अगर आप कभी को अभी लिखते तो कैसा रहता |
'सच होने के नाम पर कभी मुकर गए हैं जो ' की जगह
'सच होने के नाम पर अभी मुकर गए हैं जो ' लिखते तो कैसा महसूस होता ?
वो अपनों के आंसू को अपना लहू समझते है
अपने परिवार के लिए दूसरे शहर गए हैं जो
ghri bat khi hai
badhai
sunder rachanaa hai ji......
ख्वाब गुमसुम हैं आँख से उतर गए हैं जो
सच होने के नाम पर कभी मुकर गए हैं जो
पहले शेअर के दुसरे मिसरे में जोआपने कहा सच "होने के नाम पर कभी मुकर गए हैं जो" इसमें ख्वाबों को personify किया यही सही माएनों में शाएरी हैं. बहुत खुबसूरत ग़ज़ल. मुझे यही शेअर सबसे अच्छा लगा.
मुझे तो रचना बहुत अच्छी लगी हो सकता है शारदा जी की बात सही है मगर मुझे लगता है कि ये बात तब या किसी और समय के लिये कही गयी है जिसे आज बताया जा रहा है बहुत सुन्दर आभार्
बहुत गुंजाईश है सुधारने की उनकी बुनियादें
ज़रा सी हलचल में घर बिखर गए हैं जो
बहुत ही उम्दा रचना. बधाई
abhi bahot gunjaayeesh hai ji .... kyun manu bhaee...
arsh
"अर्श: जी मैं आपका तात्पर्य नहीं समझ पाया .....कृपा करके स्पष्ट रूप से मार्गदर्शन करे.....
शारदा अरोरा जी ,निर्मला कपिला जी नमस्ते ...
मेरी जो सोच थी वो यही थी की मेरे वो ख्वाब जो कभी पैमाने पर सही नहीं उतरे है ...आज मैं उनका ही ज़िक्र किया है .....जैसा की निर्मला जी ने टिप्पणी की है.........बिलकुल इसी सोच के साथ .....वैसे शारदा जी आप के द्वारा सुझाया गया पहलू भी एक अलग आयाम, एक नयी सोच देता है ...
आप लोगो का धन्यवाद्
ग़ज़ल सच्चाई को बया करती है..
नहीं हो पायेंगे वो जिंदगी की दौड़ में शामिल
कामयाबी के इंतज़ार में रास्ते ठहर गए हैं जो,
वाह....
सुंदर ख़याल हैं...
अर्श जी शायद बहर/लय में गुंजाइश की बात कर रहे हैं.....
फिक्र-ए रोज़गार में रिश्ते बिसर गए हैं जो
बहुत ही खूबसूरत...
ji haan main bah'r aur lay ki hi baat kar rahaa hun bhav wakai bahot hi khubsurat aur behad umdaa hai .. meri baat ko anyathaa naa len... main beshak galat bhi ho saktaa hun.. ...
arsh
इस रचना की ज़्यादातर, लगभग सभी पंक्तियाँ, सच लगती हैं. बहुत लोगों को अपनी ज़िंदगी का सच दिखेगा किसी ना किसी शेर में. बहुत अच्छी लगी यह कविता, या गाज़ल, जो भी आप कहें. "वो अपनो के आँसू को अपना लहू समझते हैं..". उत्तम भाव.
"फ़िक्र-ए-रोज़गार में रिश्ते बिसर गये जो..", यह मेरे और मेरी लेखनी के रिश्ते की भी बात है. आपने मुझे फिर से प्रोत्साहित किया है. उम्मीद है मैं उस रिश्ते को फिर से बना पाऊँगी जो मैं "फिर-ए-रोज़गार" में भूल गयी थी.
सरल और सुलझी हुई रचना है, फिर भी बहुत गहरी भावनायें व्यक्त की गयी हैं. मेरे विचार में, इसकी सरलता ही इसकी सुंदरता है. बधाई हो आलोक जी.
ख्वाब गुमसुम हैं आँख से उतर गए हैं जो
सच होने के नाम पर कभी मुकर गए हैं जो
बहुत अच्छी दिल को छूती हुई रचना,
बधाई |
नहीं हो पायेंगे वो जिंदगी की दौड़ में शामिल
कामयाबी के इंतज़ार में रास्ते ठहर गए हैं जो
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
क्या खूब लिखा है हर एक शब्द उम्दा है.
वो अपनों के आंसू को अपना लहू समझते है
अपने परिवार के लिए दूसरे शहर गए हैं जो
बहुत
सुंदर रचना बधाई हो
अमिता
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