जुलाई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की सातवीं कविता के रचनाकार भी हिन्द-युग्म के लिए नया चेहरा हैं। 3 सितम्बर 1983 को जन्मे योगेश कुमार ध्यानी कानपुर के निवासी हैं। पेशे से मरीन इंजिनियर हैं। लिखने का शौक बहुत पुराना है पर दूसरों के साथ बाँटना बस कुछ एक-डेढ़ वर्ष पहले से ही शुरू किया है, वो भी ओर्कुट और अपने ब्लॉग वग़ैरह के माध्यम से। 'बावरा मन' से कलम चलाने वाले ध्यानी गुलज़ार साहब से विशेष रूप से प्रेरित रहे हैं।
पुरस्कृत कविता- कभी कभी ऐसा लगता है
कभी कभी ऐसा लगता है
जैसे जो कुछ भी होता है
मेरी आँखों के आगे
सब कुछ एक धोखा है
जाने क्यूँ ऐसा लगता है
मुझसे मिलने वाला हर इक
कहता है मुझसे जो कुछ भी
सब कुछ पूर्वनियोजित है
मुझको ऐसा भी लगता है
जैसे मेरे पीछे मानो
सब कुछ ठहरा ठहरा सा हो
और वहीं आँखों के आगे
सब कुछ इतनी तेज़
बदलता है कि जैसे
दृश्य बदलते हैं नाटक के
मेरे आगे चलने वाले
मानो सारे लोग,सभी आवाज़ें
और सारी बातें
सब हिस्सा हैं इस नाटक के
मैं एक अकेला दर्शक हूँ
ये नाटक है मेरी खातिर
मेरी आँखों के अंत-शिखर तक
मंच है इसका
कई कथानक कई पात्र
सब साथ खड़े हैं
अपनी अपनी भूमिकाओं मे
जीवन भरते
कितना व्यापक है ये सबकुछ
ये नाटक इस सदी की सबसे
विशालतम प्रस्तुति है
कभी कभी ऐसा लगता है
नाटक भी कितने आख़िर
जीवंत बनाए जा सकते हैं
और तभी यूँ भी लगता है
ये जीवन भी कितना आख़िर
नाटकीय हो सकता है
ये दुविधा है मेरी मैं अब तक
इस नाटक का एक सहज सा
पात्र नही हो पाया हूँ
मैं एक अकेला दर्शक हूँ
ये नाटक है मेरी खातिर....
प्रथम चरण मिला स्थान- उन्नीसवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- सातवाँ
पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।