जुलाई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की अंतिम कविता की रचयिता शोभना चौरे का जन्म खंडवा (मध्य प्रदेश) में हुआ। हिन्दी साहित्य पढ़ने में रुचि रखती हैं तथा कविता, कहानी, लेख, व्यंग्य लिखने में रुचि रखती हैं। बी॰ए॰ तक पढ़ी-लिखीं शोभना गृहिणी हैं। पहले वामा,धर्मयुग में इनके लेख प्रकाशित हुए हैं। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविता और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। वर्तमान में ये बंगलूरू में रहती हैं, जहाँ मजदूरों के बच्चों को पढ़ाकर उन्हें सरकारी पाठशालाओं में दाखिल करवाती हैं। अभी तक इनके यहाँ कुल 23 बच्चे पढ़ रहे है और इस साल कक्षा ५ में हैं।
कविता- बेटों की माँ
वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर
सौतेली माँ के प्यार में पली
अपने से दुगुनी उम्र के
राजा की रानी बनी
जो आधे रास्ते में ही
साथ छोड़ गया
खेतों में कपास चुनकर,
मिर्ची तोड़कर
शहरों में ईंट और सीमेंट
माथे पर ढोकर
पसीने का दूध पिलाया
सपूतों को
जीवन को धन्य मानती रही
बेटों की किलकारी सुनकर।
सुना था उसने
शिक्षा
आदमी बना देती है
तो स्थायी
काम तलाशकर
वो घरों में
बाई* बन गई
खाने-कपड़े
की बचत करके
बेटों को भेजा
आदमी बनने
बड़ा बेटा तो
आदमी न बन सका
'नवाब' बन बैठा
बिना मेहनत के
खाने की आदत हो गई
माँ नही! तो बीबी सही!
दूसरे ने-
सत्रहवी किलास (क्लास )
पास कर ली
वो खुश
हरि विठल को
धन्यवाद दिया।
बड़ा गाली-गलोच करता
उसकी अच्छी "साख" को
मिट्टी में मिला देता
वो सीने पर
पत्थर रखकर
"आदमी" बने बेटे की ओर
ताकती!
न जाने?
इस "आदमी "को
कौन से 'दल' ने
अपने रंग में रंग दिया
आये दिन
सरकारी गाड़ियों में
राजधानी जाता
पुलिस की
लाठियाँ खाता
कभी थाने में बंद होता,
कभी जूलूस में
सबसे
आगे-आगे होता
नारे लगाता।
उसके परिवार
को पालने में
वो आज भी
65 साल की उम्र में
घर-घर को कंचन बनाती
'झूला-घर'
में ममता लुटाती
बेटों की
"माँ हूँ"
कभी भी इससे
उबर न पाती ..........
*बाई- निमाड़ में माँ को बाई कहते है और मुंबई में काम करने वाली महिलाओ को बाई कहते है
प्रथम चरण मिला स्थान- पंद्रहवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- सत्रहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
33 कविताप्रेमियों का कहना है :
औरत की स्थिति का बेहद संवेदनशील वर्णन...नारी के जीवन और समाज के रीतियों पर लिखा गया आपकी यह कविता बहुत ही भावपूर्ण है.
बहुत बहुत बधाई आपको...
औरत की दशा पर मार्मिक अभिव्यक्ति आभार शभना जी को बधाई
आपने औरत के हालत को बयां करते हुए एक अच्छी कविता लिखी. बधाई.
वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर
आपने कई जगह पर कविता में व्यंग भी किये. जिससे कविता की सुन्दरता बढ़ गई.
सौतेली माँ के प्यार में पली
अपने से दुगुनी उम्र के
राजा की रानी बनी
जो आधे रास्ते में ही
साथ छोड़ गया
यह भी खूब रही.
बेटों को भेजा
आदमी बनने
बड़ा बेटा तो
आदमी न बन सका
'नवाब' बन बैठा
बहुत ही मार्मिक कविता के लिए बहुत बहुत बधाई
विमल कुमार हेडा
बहुत ही मार्मिक कविता .. बहुत बहुत बधाई !!
वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर.........
मार्मिक अभिव्यक्ति........
@shobhana ji
muaaf kijiye par yeh kavita nahi hai, yeh kahani ho sakti hai, vaakya, ya aapbeeti ho sakti hai, par yeh kavita nahi hai.
imagination acchi hai, par naya pan nahi hai.
Regards
Deep
Manju will come to comment also. And after reading this poem she never feel anything wrong and will leave comment as.
स्त्री की दशा पर मार्मिक रचना. बधाई.
There will not be anything like wise comment as others doing.
----Manju's shubhchintak
Please learn How to comment.
आपकी रचना दिल की गहराई तक जाती है, संवेदनशीलता का पर्याय होती है
दीपाली जी शायद आपको यह रचना कविता इसलिए नहीं लगी क्योंकि इसमें generalization नहीं है. हर बात सीधे तौर पर कह दी गई है. किसी भी बात के लिए कोई symbol कोई नहीं लिया गया है. मेरे ख्याल से शायद यही बात रही होगी. लेकिन एक बात मैं कहना चाहूँगा कि हिंदी कि कविताओं में यह एक आम बात होती है. उसमे किसी भाव को सीधे तौर पर ही लिख दिया जाता है. किसी बात को generalize करके कि मिसाल उर्दू बहुत मिलती है.
एक मिसाल देखें जिसमे एक कैफी साहब ने औरत के उपर कही है और एक हिंदी कि है. दोनों में कितना difference है.
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ कर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
तौक़ यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
kaifi aazmi
बस स्टैंड पर खड़ी है
बस का इन्तज़ार करते हुए
एक औरत
वह बार-बार देखती है घड़ी
जिसमें सरक रहा है समय
उसे घर पहुँचने की जल्दी है
औरत की गोद में बच्चा है
किलकारी मार कर हँसता हुआ
अपनी माँ की बेचैनी से बेख़बर
भीड़ और शोर के बीच
खड़ी है औरत
सड़क की तरफ़ देखती हुई
हर आहट पर चौकन्नी है
देर हो जाती है और
औरत के चेहरे पर भर जाता
है तनाव
वह चारों ओर देखते
खो जाते इन्तज़ार करते
ऊब गई है
वह सब-कुछ देखती है
लेकिन देख नहीं पाती
अपने हँसते हुए बच्चे को
इसलिए हिंदी भाषा में यह एक कविता ही है.
ममतामयी माँ की महिमा का शब्द चित्र सजीव हो गया है .गाली -गलोच में शब्द युग्म का स्वाभाविक उपयोग किया .बधाई
Shobhana ji ek achchi kavita ke liye badhai...par hamhe shamikh faraz ji ki tippani bahut achchi lagi
प्रिय जी आपको मेरी कमेन्ट अच्छी लगी. इसके लिए आपका धन्यवाद.
सटीक.....
आप बहुत अच्छा काम भी कर रही हैं...
SHUKRIA.THINKABLE AND TOUCHING THOUGHTS.
शोभना जी आपकी यह कविता स्थान कोई भी पाई हो इस प्रतियोगिता मे परंतु इसमे निहित भाव मेरा दिल जीत लिए,
आपको तहे दिल से बधाई इस सुंदर काव्य रचना के लिए..
वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर
गहरे भावों के साथ मार्मिक रचना
shobhnaji,,,sunder ati sunder.. hi ablaa teri yahi kahani,aanchal me hai dudh aur aankho me paani,,,aapki rachnao me stri ke dard ki gahrai hai,,,kamna mumbai ,,,
shobhnaji,,,sunder ati sunder.. hi ablaa teri yahi kahani,aanchal me hai dudh aur aankho me paani,,,aapki rachnao me stri ke dard ki gahrai hai,,,kamna mumbai ,,,
वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर
सुन्दर पंक्तियाँ एक माँ की स्थिति का मन भावन चित्रण
सौतेली माँ के प्यार में पली
अपने से दुगुनी उम्र के
राजा की रानी बनी
जो आधे रास्ते में ही
साथ छोड़ गया
खेतों में कपास चुनकर,
मिर्ची तोड़कर
शब्द सजीव हो उठे हैं
सादर
रचना
आप सभी का hrday से abhar मानती हूँ जो की आपने इस kvita को सराहा |
dhnywad
शेमिक जी बहुत बहुत शुक्रिया |
आपने कविता का सत्य परिभाषित किया |
sath ही खुबसूरत कविता भी udhart की धन्यवाद |
दीपाली जी को भी धन्यवाद jinhone कविता को अपने dhang से परिभाषित किया है
सुना था उसने
शिक्षा
आदमी बना देती है
तो स्थायी
काम तलाशकर
वो घरों में
बाई* बन गई
खाने-कपड़े
की बचत करके
बेटों को भेजा
आदमी बनने....अच्छी कविता.बधाई.
वो रोज़ मरती रही
अपने ही सपूतों का संताप लेकर
वो रोज़ लड़ती है
अपनी ममता का वास्ता लेकर
भारत की कितनी माँओं के जीवन की सच्ची कहानी इस कविता में सामने आ गयी. आप जैसे कर्मठ लोग हैं तो हालत ज़रूर बदलेंगे. आभार!
@Faraz saheb
hindi ki kuch kavitaayein kabhi Nida fazli saheb ki waqt mila to share karungi. nahi mila to aap padhiyega. hindi poetry ki mahan kavyitri thi Mahadevi verma, aur bhi kayi hindi kaviyon ko kaafi padha hai maine, jyada to nahi, par jo dil mein aaya keh diya, agar aapko ya lekhika ko bura laga to theek hai main comment hi nahi karungi, kyunki main jo kehti hun dil se kehti hun aur uske peeche meri koi bhi aisi bhaavna nahi hoti ki kisi ko bhi dukh pahuche. agar margdarshan ko, samaalochna ko bhi sahi nahi samjha jayega to kaise chalega. aap kahiye.
dipali ji
mujhe bilkul bhi bura nhi lga hai mai ne to apko dhnywad hi diya hai har rachna smalochna ka hak rkhti hai .mai aapke marg darshn ki abhari hoo .krpya mere blog par bhi apni prtikriya de .
shubhkamnaye
dhnywad
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)