सभी पाठकों को रक्षाबंधन की बधाइयाँ। आज हम इस अवसर लेकर आये हैं, इसी विषय पर एक कविता, जिसके रचनाकार हैं स्वप्निल तिवारी ' आतिश'। स्वप्निल की कविताएँ पिछले 2 महीनों से हम लगातार प्रकाशित कर रहे हैं।
पुरस्कृत कविता- मेरी बहनें
जैसे इक
काँच की आवाज़ से
रंगा गया हो उन्हें,
उड़ती हैं तितलियों सी
तो पंख बजते हैं,
कितनी रंगीन आवाजें
उभर के आती हैं,
आसमां तक जो ये पहुंचें
तो धनक बनता है ...
चमन-चमन
वो बहती हैं
हवाओं की तरह,
पहली बरसात के
पानी की तासीर लिए ...
हर एक गुल पे
बैठ-बैठ के
थक जाती है जब,
धनक से होते हुए
और बारिशों को छुए
लिए कांच की तितलियाँ
ये मेरी बहनें
बाँध जाती हैं
आके मेरी कलाई पे तब,
जैसे राखी के धागों से
उन्हें बुना हो खुदा ने........
प्रथम चरण मिला स्थान- प्रथम
द्वितीय चरण मिला स्थान- आठवाँ
पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
रक्षा बंधन पर सभी भाईयो और बहनों मेरी हार्दिक शुभ कामनाए बहुत मार्मिक कविता है .भाई की याद दिला दी . बधाई
ये मेरी बहनें
बाँध जाती हैं
आके मेरी कलाई पे तब,
जैसे राखी के धागों से
उन्हें बुना हो खुदा ने........
सुन्दर भाव राखी के
राखी की बहुत बधाई सभी को..
ये मेरी बहनें
बाँध जाती हैं
आके मेरी कलाई पे तब,
जैसे राखी के धागों से
उन्हें बुना हो खुदा ने........
आतिश जी..
आपकी कविता बहुत पसंद आयी,,,,
ये मेरी बहनें
बाँध जाती हैं
आके मेरी कलाई पे तब,
जैसे राखी के धागों से
उन्हें बुना हो खुदा ने........
behter hai.
kathya accha laga. bahdayee
ये मेरी बहनें
बाँध जाती हैं
आके मेरी कलाई पे तब,
जैसे राखी के धागों से
उन्हें बुना हो खुदा ने
बहुत ही मर्मस्पर्शी भावों के साथ दिल को छूते शब्द आभार्
कितने सुंदर भाव और कितने सुंदर शब्द जिससे आपने उन भावों को व्यक्त कर एक बेहतरीन कविता बना दी..
छोटी छोटी पंक्तियों में पिरोई हुई बहुत सुन्दर कविता.
हर एक गुल पे
बैठ-बैठ के
थक जाती है जब,
धनक से होते हुए
और बारिशों को छुए
लिए कांच की तितलियाँ
ये मेरी बहनें
बाँध जाती हैं
आके मेरी कलाई पे तब,
जैसे राखी के धागों से
उन्हें बुना हो खुदा ने........
आपकी कविता पढ़कर मुनव्वर रना साहब का एक शे'र याद आया.
मुझे इस शहर की सब लड़कियां आदाब करती हैं.
मैं उनकी कलाई के लिए राखी बनाता हूँ
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