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Thursday, August 06, 2009

ऐसे गुजारता हूँ एक दिन


सबसे पहले पीता हूँ
एक प्याली मीठी सुबह
ताजे अखबार की गंध के पड़ोस में।

फिर गाँठता हूँ दोपहर की सवारी
पहुँचने के लिए दफ्तर।

जब परिंदे लौटते है नीड़ को
मैं ओढ़ता हूँ शाम की जर्द सी शाल
लौटने के लिए घर।

जब थकान करती है अन्तिम प्रहार
तब बिछाता हूँ रात का साँवला-सा बिछौना
और लगाता हूँ नींद का गावद तकिया ।

ऐसे गुजारता हूँ एक दिन ।

--मनीष मिश्रा

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

निर्मला कपिला का कहना है कि -

मनीशजी फिर तो आप बहुत बडिया तरीके से दिन गुजारते हैं उन्हें देखिये जिन्हें नींद भी नसीब नहीं और दफ्तर भी नहीं अच्छी रचना है आभार्

mohammad ahsan का कहना है कि -

pehle 2 stanza se laga ki shaaed kavi koi vyang likhne jaa raha hai. antim 2 stanza se laga ki kavi jeewan chakra ko samjhaane ki koshish kar raha hai.
kul mila kar prabhaavhiin kavita.

Science Bloggers Association का कहना है कि -

Man ko chhu gayi rachna.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

बहुत बेहतर तरीके से जिंदगी बिता रहे है आप..
लगता है हर पल जिंदगी गुनगुना रही है.

vinita का कहना है कि -

agar dekhen to kavita me kuchh khas bhav nahi lage .
prabhav nahi chhod pai kavita

vinita

Manju Gupta का कहना है कि -

सच अनुभव बन सामने आ गया .बधाई .

अमिता का कहना है कि -

मनीष जी ऐसे ही बढ़िया दिन सबको गुजारने को मिल जाएँ तो और क्या चाहिए.
एक तनाव मुक्त कविता कह सकते हैं. जिसे पढ़ कर लगता है की ऐसी जिंदगी भी नसीब हो सकती है बस आशावादी बने रहिये .
अमिता

अनूप शुक्ल का कहना है कि -

बढिया दिन गुजरता है।

दिपाली "आब" का कहना है कि -

केवल उपमाओं के आ जाने से कविता में जान नहीं आती,
कविता के भाव गायब हैं.

Guftugu का कहना है कि -

आज के जटिल समय में जब हमें उलझाव में जीने की आदत हो गयी है ऐसे में
एक सीधी,आशावादी किन्तु बेहद सुन्दर बिंबो से युक्त कविता.बहुत सुन्दर.
एक प्याली मीठी सुबह और सावला बिछौना वाह!

सदा का कहना है कि -

जब परिंदे लौटते है नीड़ को
मैं ओढ़ता हूँ शाम की जर्द सी शाल
लौटने के लिए घर।


मन को छूते भावों के साथ बहुत ही सुन्‍दर रचना, बधाई ।

Akhilesh का कहना है कि -

itne manveekerno ke baad bhi kavita main niskersh nahi nahi.

na kavita main pravaah hai na prabhavit kerne ki chamta.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

क्या बात है जवाब नहीं आपकी कविता का. इसी पहलु में मैं कही और भी एक कविता पढ़ी थी.

सबसे पहले पीता हूँ
एक प्याली मीठी सुबह
ताजे अखबार की गंध के पड़ोस में।

फिर गाँठता हूँ दोपहर की सवारी
पहुँचने के लिए दफ्तर।

जब परिंदे लौटते है नीड़ को
मैं ओढ़ता हूँ शाम की जर्द सी शाल
लौटने के लिए घर।

जब थकान करती है अन्तिम प्रहार
तब बिछाता हूँ रात का साँवला-सा बिछौना
और लगाता हूँ नींद का गावद तकिया ।

ऐसे गुजारता हूँ एक दिन ।

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