झूठ दौड़ता सरपट लेकिन; सच के पाँवों में है मोच,
कैसा मरहम कौन लगाये, कुछ मैं सोचूँ, कुछ तू सोच।
जिसके हाथों ख़ून हुआ था, वही न्याय की कुर्सी पर,
कैसे हो निष्पक्ष फैसला, कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
नहीं रोशनी कोई भीतर; बाहर कोई आग नहीं;
कैसे होगा दूर अंधेरा; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
माली की ख़ुदगर्जी थी; या बाग बगावत कर बैठा;
काँटे ही काँटे क्यों बिखरे; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
बरसा मेघ टूट कर बरसा; अग-जग पानी-पानी है;
फिर भी धरती प्यासी क्यों है; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
इतना सा तो दिल है इसमें; कितने यादों के जंगल;
अपनी दुनिया कहाँ बसायें; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
आस्तीन के साँपों से तो; फिर भी बचना मुमकिन है;
अपने विष का तोड़ कहाँ है; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
आदमख़ोरों की बस्ती में; रहना कोई खेल नहीं,
कैसे फिर भी जिंदा हैं हम; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
तेरे पाँवों के छालों की, पीड़ा मेरे पाँव सहें;
अपना सुख-दु:ख कैसे बाँटें; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
अपना घर तो शीशे का है; उनके हाथों में पत्थर;
कैसे बीतेगा कल अपना; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
--सत्यप्रसन्न
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
सत्यप्रसन्न जी,
क्या खूब उकेरा है तरह-तरह के भावों को अपनी कविता में.
माली की ख़ुदगर्जी थी; या बाग बगावत कर बैठा;
काँटे ही काँटे क्यों बिखरे; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
बहुत-बहुत सुंदर कविता! वधाई.
आज के यथार्थ को दर्शाया है .बधाई
बहुत ख़ूबसूरत रचना है
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'विज्ञान' पर पढ़िए: शैवाल ही भविष्य का ईंधन है!
बहुत...
बहुत.....
बहुत.......
बहुत ही प्यारा लिखा है जनाब....
गजल का पूरा लुत्फ़ मिला आपकी रचना में..
बहुत सुंदर रचना है कितना सच्चा और अच्छा लिखा है बधाई स्वीकार करें
अमिता
अच्छी कविता..!!
सत्य जी,
अगर इसे हम कविता मान ले तो बेहतर है, ख़याल खूबसूरत हैं, पर ग़ज़ल के लहजे से रचना खारिज हैं.
वाह सत्प्रसन जी क्या खूब लिखा आपने { वर्तमान को कुछ शब्दों में कैद किया } , भाई बहुत बहुत बधाई , धन्याद , वीमल हेडा
तेरे पाँवों के छालों की, पीड़ा मेरे पाँव सहें;
अपना सुख-दु:ख कैसे बाँटें; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
बहुत ही सुन्दर रचना बधाई ।
इतनी सुन्दर गज़लें केवल लिखते सत्यप्रसन्न ही हैं
कहाँ मिलेंग ऐसे शायर कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच
दीप जी,
मैंने कब कहा कि यह ग़ज़ल है। बहरहाल रचना आपकॊ अच्छी लगी यही मेरे लिये यथेष्ट है।
सुंदर लिखा है .समाज का सच यही है आप ने शब्दों में इस को बंद किया पढ़ के आनंद आया
झूठ दौड़ता सरपट लेकिन; सच के पाँवों में है मोच,
कैसा मरहम कौन लगाये, कुछ मैं सोचूँ, कुछ तू सोच।
kya khoob kaha hai
रचना
kavita ki pehli line padhker hi likhne ki lay kuch janni pahchaani si lagi. man main aapka naam bhi aa raha tha . neeche aapka naam dekh ker confirm bhi ker liya.
aap jaise log hi kavita ko phir se aam jan ke kareeb le aayenge.
बहुत दिनों बात बहुत भावः पूर्ण कविता पढने को मिली ...
हार्दिक बधाई..
सादर
शैलेश
सत्यप्रसन्न जी बहुत लुत्फ़ आया आपकी रचना पढ़कर.
इतना सा तो दिल है इसमें; कितने यादों के जंगल;
अपनी दुनिया कहाँ बसायें; कुछ मैं सोचूँ कुछ तू सोच।
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