प्रतियोगिता के चौथे स्थान की कविता के रचयिता पृथ्वीपाल रावत को अपने बारे में बस इतना पता है कि ये दर्द जीते हैं और दर्द पीते हैं। और जब इनकी पीर हद से गुजर जाती है तो होंठों पर आकर कविता बन जाती है। 15 अक्टूबर 1980 को अल्मोड़ा, उत्तराखंड में जन्मे पृथ्वीपाल रावत अकेला मुसाफिर नाम से कविताएँ लिखते हैं। फिलहाल गुड़गाँव में अध्यापन कर रहे हैं।
पुरस्कृत कविता- सीवन
उसके कुरते की सीवन
जो उधड़ चुकी थी उसके यौवन से
जिसे वह उँगलियों से छुपाती थी
आज और उधड़ चुकी है!
उसने जोड़ना चाहा था
एक-एक भेला
उसे सीने के लिए
पर हर बार
पेट की आग
खा जाती थी
उसकी सिलाई के पैसे
और हमेशा की तरह
वह छुपाती थी उस उधड़न को
अपनी उँगलियों से!!
पर आज
उँगलियाँ बहुत लचर हैं
बेबस हैं
उसकी उधड़न छुपाने को
उसके पेट की तरह
क्योंकि
सीवन उधड़ चुकी है
उसकी अपनी ही उँगलियों से!!
*भेला- टुकड़ा-टुकड़ा, पैसा-पैसा
प्रथम चरण मिला स्थान- चौथा
द्वितीय चरण मिला स्थान- चौथा
पुरस्कार और सम्मान- सुशील कुमार की ओर से इनके पहले कविता-संग्रह 'कितनी रात उन घावों को सहा है' की एक प्रति।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही मार्मिक वर्णन है
बढिया रचना
मार्मिक , सुंदर रचना गरीबी को दर्शाती है .बधाई
मार्मिक रचना ..!!
उसके कुरते की सीवन
जो उधड़ चुकी थी उसके यौवन से
जिसे वह उँगलियों से छुपाती थी
आज और उधड़ चुकी है!
मार्मिक रचना!!!
पृथ्वीपाल रावत जी,
बधाई..सुंदर कविता..
उँगलियों के चक्र,
हाथ की रेखाएं.
सब कुछ तो है उसके पास -
बस, सीवन को छुपाती है,
रेखाओं को भी छुपाती है -
सब उधड चुकी हैं.
उसकी अपनी ही उँगलियों से..!!
बहुत उम्दा रचना....अति-यथार्थवादी..
पर हर बार
पेट की आग
खा जाती थी
उसकी सिलाई के पैसे
और हमेशा की तरह
वह छुपाती थी उस उधड़न को
अपनी उँगलियों से!!
pet ki aag hoti hi kuchh asi hai
रावत जी कितना मार्मिक लिखा है
सादर
रचना
मार्मिक रचना,बधाई !
सच्चाई को छूती हुई सुन्दर कविता
उसके कुरते की सीवन
जो उधड़ चुकी थी उसके यौवन से
जिसे वह उँगलियों से छुपाती थी
आज और उधड़ चुकी है!
उसने जोड़ना चाहा था
एक-एक भेला
उसे सीने के लिए
पर हर बार
पेट की आग
खा जाती थी
उसकी सिलाई के पैसे
और हमेशा की तरह
वह छुपाती थी उस उधड़न को
अपनी उँगलियों से!!
पर आज
उँगलियाँ बहुत लचर हैं
बेबस हैं
उसकी उधड़न छुपाने को
उसके पेट की तरह
क्योंकि
सीवन उधड़ चुकी है
उसकी अपनी ही उँगलियों से!!
उसकी सिलाई के पैसे
और हमेशा की तरह
वह छुपाती थी उस उधड़न को
अपनी उँगलियों से!!
पर आज
उँगलियाँ बहुत लचर हैं
बेबस हैं
उसकी उधड़न छुपाने को
उसके पेट की तरह
क्योंकि
सीवन उधड़ चुकी है
उसकी अपनी ही उँगलियों से!!
accha likha hai sahab.badhayee.
aaj kal hamare aas pass itni vyathaye hai ki hamari lekhni hamesha kuch aisa hi chitra darshati hai. Rachna waise achhi hai aur dil ko chhu leti hai.
Saurabh
garib ki marmik dasha
ka behtreen chitran...
"nangi kya nahaye aur kya nichode"
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