फटाफट (25 नई पोस्ट):

कृपया निम्नलिखित लिंक देखें- Please see the following links

माना तुम्हें शहर ने जगमग जगमग रातें दी होंगी


भरा-भरा सा दिन लगता है लेकिन खाली-खाली शाम
कहाँ गयी चौपालों वाली बतियाती मतवाली शाम

घर जाने का मन होता था मन में घर आ जाता था
शाम ढले ही इंतजार में खुलती खिड़की वाली शाम

सारे दिन की थकन मिटाती गय्या जैसी लगती थी
आँगन के पीपल के नीचे करती हुई जुगाली शाम

बाबूजी का हुक्का पानी अम्मा का चूल्हा चौका
सब बच्चों की अपने अपने हिस्से वाली थाली शाम

सूरज जाते जाते लेकर चला गया है अपने साथ
मैंने सिर्फ तुम्हारी ख़ातिर इतनी देर संभाली शाम

वो चौपालों की शामें थीं ये शामे चौराहों की
आवारा सड़कों संग बैठी होगी कहीं मवाली शाम

माना तुम्हें शहर ने जगमग-जगमग रातें दी होंगी
पर इसके बदले में इसने देखो 'रवि' चुराली शाम

--रवीन्द्र शर्मा 'रवि

एक मुट्ठी आसमान


रोज़
जब किसी न किसी चौराहे पर
ट्रैफिक के चक्रव्यूह में
किसी अभिमन्यु को कटा पाता हूँ ,
झेलता हूँ अपने ही आसपास
खून की कै करते असंख्य लोगों को ,
जब मेरे नथुने
ताड़का की नाईं ज़हरीला धुयाँ उगलती चिमनियों को देख
फडफडा कर दर्शाते हैं
क़ि अब दम घुटने लगा है
तब सोचता हूँ क़ि लौट जाऊं ....
सुना है
शीशे के घरों
और हाथों में पत्थर लिए लोगों से दूर
सोंधी माटी का एक गाँव भी है
जहाँ उजड्ड लोग
पानी मांगने पर लस्सी पिला देते हैं
जहाँ दूधिया चाँद
सांझ होते ही
पोखर में उतर आता है
और सारी रात खेलता है होली
टेसू के फूलों से ...
सतरंगा इन्द्रधनुष
अब भी बहुत नीचे तक चला आता है
सहमी शरमाई सी
गेंहूँ की बालिओं को चूमने ...
नदी किनारे का वह आवारा आम
आज भी
किसी सांवली सी कोयल को देख कर
बौरा जाता है ...
अब भी
ऊंचे टीले पर की चिड़चिड़ी बेरी
हर आने जाने वाले का आँचल
बड़ी बेशर्मी से थाम लेती है
और पूछती है
शहर के राजमार्गों पर पंक्तिबद्ध खड़े
सफेदे के वृक्षों का हाल
जो बात बात पर
खुशामदी दरबारियों की तरह झुक कर
आदाब बजा लाते हैं ...
उन मनहूस तारकोली सड़कों की बावत
जहाँ पग पग पर निर्देशित होने पर भी
अपाहिज हो जाते हैं लोग
और जहाँ
सावन के महीने में भी
दूर तक बाहें फैलाये दौड़ते चले जाना
मना है ........
मेरी पीली आँखें
ढूँढने लगती हैं
वनफूलों से लदी कोई आवारा पगडण्डी
जो मुझे
इस तथाकथित सभ्यता से दूर ले जाए ....
तभी लगता है
दूर चारागाह में बूढ़े बरगद के नीचे
किसी चरवाहे की बांसुरी
गुनगुनाने लगी है
कोई बहुत पुराना लोकगीत .....
कांपते पैरों पर
खड़ा रहने का प्रयास करता हूँ मैं
और सुनता हूँ
एक ट्रांजिस्टर की फटी सी आवाज़
कि शहर में
एक और बम विस्फोट हो गया है .....

------- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'

मेरा अपना ही क्रंदन है और अकेला मैं हूँ


मन का गहरा खालीपन है और अकेला मैं हूँ
जैसे कोई निर्जन वन है और अकेला मैं हूँ

जिसको सुनकर रातों को मैं अक्सर जाग गया हूँ
मेरा अपना ही क्रंदन है और अकेला मैं हूँ

मेरे घर के आस पास ही रहना चाँद सितारों
मेरी नींदों से अनबन है और अकेला मैं हूँ

पक्की करके रक्खूं मैं मन की कच्ची दीवारें
मेरी आँखों में सावन है और अकेला मैं हूँ

कुछ आधी पूरी कवितायें कुछ यादें कुछ सपने
मेरे घर में कितना धन है और अकेला मैं हूँ

जीवन के कितने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलें हैं
समय बचा अब कितना कम है और अकेला मैं हूँ

कभी कभी लगता है कोई करे प्यार की बातें
'रवि ' बड़ा नीरस जीवन है और अकेला मैं हूँ

यूनिकवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'

हमेशा गाँव ही खुद को शहर में ढाल लेते हैं


मार्च माह की चौथी कविता एक ग़ज़ल है जिसे लिखा है रवीन्द्र शर्मा 'रवि' ने। रवि की ग़ज़लें हिन्द-युग्म के पाठक बहुत पसंद करते हैं। रवि एक बार हिन्द-युग्म के यूनिकवि भी रह चुके हैं।

पुरस्कृत ग़ज़ल

गरीबी में भी बच्चे यूँ उड़ाने पाल लेते हैं
ज़रा सी डाल झुक जाए तो झूला डाल लेते हैं

जहाँ में लोग जो ईमान की फसलों पे जिंदा हैं
बड़ी मुश्किल से दो वक्तों की रोटी दाल लेते हैं

शहर ने आज तक भी गाँव से जीना नहीं सीखा
हमेशा गाँव ही खुद को शहर में ढाल लेते हैं

परिंदों को मोहब्बत के कफस में कैद कर लीजे
न जाने लोग उनके वास्ते क्यों जाल लेते हैं

अभी नज़रों में वो बरसों पुराना ख्वाब रक्खा है
कोई भी कीमती सी चीज़ हो संभाल लेते हैं

ये मुमकिन है खुदा को याद करना भूल जाते हों
तुम्हारा नाम लेकिन हर घडी हर हाल लेते हैं

हमें दे दो हमारी ज़िन्दगी के वो पुराने दिन
'रवि' हम तो अभी तक भी पुराना माल लेते हैं


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

भूखे-नंगे टूटे-खस्ते कितने खुश हैं


रेंग-रेंग कर चलते रस्ते कितने खुश हैं
भूखे-नंगे टूटे-खस्ते कितने खुश हैं

हमने इनका बचपन छीन लिया है इनसे
बच्चों के कन्धों पर बस्ते कितने खुश हैं

शाम हुई तो घर लौटेंगे इनमें कितने
सुबह-सुबह कर रहे नमस्ते कितने खुश हैं

अपने चेहरे की कालिख का किसे पता है
इक दूजे पर फब्ती कसते कितने खुश हैं

आदर्शों को हड़प गयी बाज़ार सभ्यता
मूल्य हुए हैं कितने सस्ते कितने खुश हैं

इस दुनिया में कदर हो गयी है अब उनकी
कागज़ के झूठे गुलदस्ते कितने खुश हैं

शहर सो गया है अब खुलकर साँसें ले लें
बाहें फैलाये चौरस्ते कितने खुश हैं
----रवीन्द्र शर्मा 'रवि '

माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था


नवम्बर 2009 के यूनिकवि रवीन्द्र शर्मा 'रवि' ग़ज़ल-प्रेमी पाठकों की पहली पसंद हैं। इनके ग़ज़लें पाठकों और निर्णायकों का ध्यान एक साथ खींचतीं हैं। फरवरी 2010 की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी एक ग़जल ने आठवाँ स्थान बनाया।

पुरस्कृत कविता

वो राह कोई और सफ़र और कहीं था
ख्वाबों में जो देखा था वो घर और कहीं था

मैं हो न सका शहर का इस शहर में रह के
मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था

कुछ ऐसे दुआएं थीं मेरे साथ किसी की
साया था कहीं और शज़र और कहीं था

बिस्तर पे सिमट आये थे सहमे हुए बच्चे
माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था

इस डर से कलम कर गया कुछ हाथ शहंशाह
गो ताज उसी का था हुनर और कहीं था

था रात मेरे साथ 'रवि' देर तलक चाँद
कमबख्त मगर वक़्त ए सहर और कहीं था


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

हमारा आम होता है तुम्हारा खास होता है


कभी खामोश लम्हों में मुझे अहसास होता है
कि जैसे ज़िन्दगी भी रूह का बनवास होता है

जिसे वो रौनके होने पे अक्सर भूल जाता है
वही तन्हाईओं में आदमी के पास होता है

सुना था दर्द होता है ग़मों का एक सा लेकिन
हमारा आम होता है तुम्हारा खास होता है

किसी के वास्ते बरसात है बदला हुआ मौसम
किसी के वास्ते ये साल भर की आस होता है

जमा होते हैं शब् भर सब सितारे चाँद के घर में
न जाने कौन से मुद्दे पे ये इजलास होता है

'रवि ' मुमकिन है सहरा में कहीं मिल जाये कुछ पानी
समंदर तो हकीकत में मुकम्मल प्यास होता है

कवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'

पेड़ो, तुम जंगल में ही रहना


जनवरी 2010 की दूसरी कविता नवम्बर 2009 माह के यूनिकवि रह चुके रवीन्द्र शर्मा 'रवि' की है। रवि अपनी ख़ास किस्म की ग़ज़लों के लिए भी हिन्द-युग्म के पाठकों के मध्य पहचाने जाते हैं।

पुरस्कृत कविता: पेड़

तुमने उसी दिन रहन रख दी थी अपनी अस्मिता
जिस दिन तुमने आदमी को
जंगल के बीच में से होकर
गुजरने का अधिकार दे दिया था .....
तब नहीं सोचा था तुमने
कि पैरों में इतनी आग लिए घूमता है आदमी
और वनफूलों को इतना ताप सहने की आदत नहीं है
अब हाल ये है कि
जंगल तो शहर में ले आया है आदमी
पगडंडियाँ तब्दील हो गयी हैं
तारकोली सड़कों में
और तुम किसी अनपढ़ देहाती की तरह
भूल बैठे हो
अपने ही गाँव की
सीधी-साधी पगडण्डी का पता
और समझ नहीं पाते हो
शहर की दोमुँही सड़कों का भूगोल
जहाँ आदमी
फिर फिर वहीं आ जाता है
जहाँ से फिर कोई
अपने गाँव लौट नहीं पाता है .....

पेड़,
सड़क की बीच वाली पटरी पर खड़े तुम
गैस चेम्बर में पड़े कैदी की मानिंद
जब भी छटपटाते हो
तभी अपना कोई हिस्सा
शरीर से कटा पाते हो
तुम ये बार-बार भूल जाते हो
कि यह जंगल नहीं है
यहाँ के अपने नियम होते हैं
और यहाँ
एक निश्चित दायरे से बाहर हाथ बढ़ाना
अपराध है
यहाँ तुम्हारे चारों ओर जंगल नहीं
जंगला है
तुम्हें उसी के हिसाब से बढ़ना है
किसी मासूम बच्चे सी बेल को
किसी वृद्ध पीपल के कन्धों पर
किलकारी मार कर नहीं चढ़ना है
पेड़,
तुम क्यों नहीं समझते
कि बदल चुके हैं
तुम्हारी स्नेहिल छाया के सन्दर्भ
पत्थर के बदले परछाई का सिद्दांत
अब बेवकूफी की निशानी है
और मेहनतकश आदमी तथा बदहवास आदमी के पसीने में
फर्क होता है ........
अपना विस्तार रोको पेड़
चिमनियों के शिरों को ऊंचा जाने दो
गगनचुम्बी इमारतों में बैठे आदमी को
पता लगाने दो
कि बादल
अब बहुत नीचे तक क्यों नहीं आते
और सतरंगा इन्द्रधनुष
गाँव के गंवार लोगों के पास क्यों धरा है अब तक ....
इन्हें पता लगाने दो पेड़
कि गाँव के मिटटी गारे से बने पुश्तैनी घर
अब तक कैसे खड़े हैं ज्यों के त्यों
और हर बरसात में
उनके बूढ़े शरीरों से
सोंधी महक क्यों आती है
और यहाँ
गारंटीशुदा सीमेंट से बन रही खूबसूरत इमारत
बनने से पहले क्यों गिर जाती है ......
इन्हें तुम नहीं समझा पाओगे पेड़
कि मकान के खड़े रहने का सम्बन्ध
मन से है
धन से नहीं
और महकने के लिए
मिट्टी से जुड़ा होना बहुत आवश्यक है
अब संध्या के समय
बसों -कारों के कलरव में
बातूनी चिडियों का इंतज़ार
बहुत बेमानी हो गया है
अब शायद न ही बौराएँ तुम्हारी डालियाँ
क्योंकि उन्हें पहले ही
बौनी मानसिकता के हिसाब से
काट दिया जाएगा
और कटे हुए कन्धों पर सर रखने
क्षितिज कभी नहीं आएगा
ऐसे में
तुम्हारा जी तो बहुत घबराएगा
पर पेड़ करना इंतज़ार उस दिन का
जब कोई भूला भटका परिंदा
रुकेगा तुम्हारे पास
कुछ देर के लिए
और जाते जाते दे जायेगा ढेरों यादें
जंगल की अल्हड सावनी सभ्यता की...
तब कर तो कुछ नहीं पायोगे तुम
पर इतना ज़रूर कहना
पेड़ो तुम जंगल में ही रहना
शहर जंगल से अधिक भयानक है .
पेड़ हों या परिंदे
किसी का भी पक्की सड़कों की तरफ आना
खतरे से खाली नहीं है
कौवों की रियासत में कोयल के लिए
एक भी आरक्षित डाली नहीं है
यहाँ आम का अमलतास से लिपटना
संक्रमण या अतिक्रमण
कुछ भी हो सकता है
प्रेम प्रकरण नहीं हो सकता
आतंक की त्रासदी जी रहे शहर में
आम अमलतास के साथ नहीं सो सकता
यहाँ केवल
बौने दरबारी पेड़ ही चलते हैं
चुनावों के मौसम में
ख़ास-ख़ास क्षेत्रों में फलते हैं
शेष या तो काट दिए जाते हैं
या बिना जल के
तिल-तिल जलते हैं ...
इसलिए पेड़ो
तुम जंगल में ही रहना
यहाँ पैरों में बहुत आग लिए घूमता है आदमी
और वनफूलों को
इतना ताप सहने की आदत नहीं है
पेड़ो तुम जंगल में ही रहना ......
______________________________________________

पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

बिकाऊ शहर में हर ओर अब बाज़ार बाक़ी हैं


सभी सपने नहीं टूटे अभी दो चार बाकी हैं
कहो अश्कों से आँखों में अभी अंगार बाकी हैं

खुदाया ये तेरी दुनिया में इतना फर्क सा क्यों है
कहीं पर भूख बाकी है कहीं ज़रदार बाकी हैं

खरीदारी बची है या बचे हैं बेचने वाले
बिकाऊ शहर में हर ओर अब बाज़ार बाक़ी हैं

अभी भी ज़िन्दगी का जश्न हम मिलकर मनाते हैं
हमारे देश में अब भी कई त्यौहार बाक़ी हैं

हमे हैरान होकर देखते हैं देखने वाले
मिटाया है हमे हर बार हम हर बार बाक़ी हैं

यूनिकवि-रवीन्द्र शर्मा 'रवि '

इतने बच्चों का बिछोड़ा गाँव ने कैसे सहा


वो भी पत्थर की तरह खामोश सब सुनता रहा
देर तक पंछी ने जाने पेड़ से क्या-क्या कहा

बेहया बरसात में भीगा शजर जब देर तक
धूप ने डांटा तुझे लग जायेगी पागल हवा

तू भी मेरी ही तरह मजबूर सा है शहर में
ओ परिंदे आ बना ले मेरे घर में घोंसला

खूबसूरत रास्ते हैं शहर में पर हर जगह
फासला ही फासला है फासला ही फासला

एक बच्चा दूर जाता है तो मर जाती है माँ
इतने बच्चों का बिछोड़ा गाँव ने कैसे सहा

दर्द बढता है तो आंसू सूख जाते हैं 'रवि '
आपने तो सिर्फ वो देखा जो आँखों से बहा

यूनिकवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि '

शजर की मौत का इस शहर में मतलब नहीं कोई


गए होंगे सफ़र में और जाकर खो गए होंगे
उन्ही के मीत राहों के सफेदे हो गए होंगे

तुम्हारे शहर के ये रास्ते घर क्यों नहीं जाते
हमारे गाँव के रस्ते तो कब के सो गए होंगे

शजर की मौत का इस शहर में मतलब नहीं कोई
बहुत होगा तो आकर कुछ परिंदे रो गए होंगे

हवा चुपचाप अपना काम करके जा चुकी होगी
सभी इलज़ाम चिंगारी के जिम्मे हो गए होंगे

कई मौसम गुज़र जायेंगे उनकी परवरिश में ही
तेरे वादे मेरी आँखों में सपने बो गए होंगे

चलो लिक्खें इबारत उन्गलिओं से फिर मोहब्बत की
समंदर रेत पर लिक्खा हुआ सब धो गए होंगे

यूनिकवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि '

35वीं यूनिप्रतियोगिता के परिणाम


सर्वप्रथम हम अपने पाठकों से माफी माँगते हैं कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से हमें नवम्बर माह की यूनि प्रतियोगिता का परिणाम प्रकाशित करने में विलम्ब हुआ।

नवम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में सबसे अधिक कवियों ने भाग लिया। नवम्बर माह की यूनिकवि की होड़ में कुल 67 कवि शामिल हुए जो हिन्द-युग्म की इस मासिक प्रतियोगिता के लिए सर्वाधिक प्रतिभागिता है।

हम एक खुशख़बरी के साथ भी उपस्थित हैं कि इस परिणाम से हमारे विजेताओं को प्रतिष्ठित पत्रिका 'समयांतर' की ओर से उपहार प्रेषित किये जायेंगे। इससे व्यक्तिगत लेखकों द्वारा भेजे जाने वाले उपहारों को प्राप्त होने में होनेवाले विलम्ब से भी हम बच पायेंगे। श्रेष्ठ कविताओं का प्रकाशन भी समयांतर में किया जायेगा।

नवम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता का निर्णय 2 चरणों में कराया गया। पहले चरण में 2 जजों द्वारा दूसरे चरण में 3 जजों के निर्णय को शामिल किया गया। पहले चरण के निर्णय के बाद कुल 28 कविताओं को दूसरे चरण के निर्णय के लिए भेजा गया। और सभी पाँच निर्णायकों की पसंद और इनके द्वारा दिये गये अंकों के आधार पर रवीन्द्र शर्मा 'रवि' की कविता 'हम कब लौटेंगे' को इस माह की सर्वश्रेष्ठ कविता चुना गया।

रवीन्द्र शर्मा 'रवि' ने अक्टूबर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता से हिन्द-युग्म पर दस्तक देना शुरू किया है। अक्टूबर माह की प्रतियोगिता में भी इनकी एक ग़ज़ल ने शीर्ष 10 में स्थान बनाया था।

यूनिकवि- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'

पंजाब के गुरदासपुर जिले के पस्नावाल गाँव में जन्मे किन्तु राजधानी दिल्ली में पले बढे रवींद्र शर्मा 'रवि 'प्रकृति को अपना पहला प्रेम मानते हैं। शहरी जीवन को बहुत नज़दीक से देखा और भोगा, किन्तु यहाँ के बनावटीपन के प्रति घृणा कभी गयी नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स से बी॰ कॉम॰ (आनर्स ) करने के उपरांत एक राष्ट्रीय कृत बैंक में उप प्रबंधक के पद पर कार्यरत।

विद्यार्थी जीवन में प्राथमिक विद्यालय में ही भाषण कला में निपुण होने के कारण "नेहरु "नाम से संबोधित किया जाने लगे। सन् १९६९ में महात्मा गाँधी कि जन्मशती के दौरान अंतर विद्यालय भाषण प्रतियोगिता में दिल्ली में प्रथम पुरस्कार एवं कई अन्य पुरस्कार जीते। सन् १९७९ में नागरिक परिषद् दिल्ली द्बारा विज्ञान भवन में आयोजित आशु लेख प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाये। उसी वर्ष महाविद्यालय द्वारा वर्ष के सर्वश्रेष्ट साहित्यकार के रूप में सन्मानित काव्य संग्रह "अंधेरों के खिलाफ", "हस्ताक्षर समय के वक्ष पर", क्षितिज कि दहलीज पर और "परिचय-राग" में कवितायें प्रकाशित। समाचार पत्र पंजाब केसरी में लगभग १२ कहानियों का प्रकाशन। इसके अतिरिक्त नवभारत टाईम्स आदि अनेक समाचार पत्रों में रचनाओं को स्थान मिला। राजधानी के लगभग सभी प्रतिष्टित मुशायरों, कवि सम्मेलनों, काव्य गोष्ठियों में लगातार काव्यपाठ। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताओ का प्रसारण। दिल्ली की साहित्यिक संस्थाओं "परिचय साहित्य परिषद्", "डेल्ही सोसाइटी ऑफ़ औथोर्स", हल्का ए तशनागाना अ अदब", पोएट्स ऑफ़ डेल्ही", "आनंदम", "कवितायन","उदभव" इत्यादि से सम्बद्ध।
रवींद्र शर्मा "रवि" को इस बात का गर्व है कि उन्होंने पर्यावरण पर मंडरा रहे खतरे के बारे में तब लिखना शुरू कर दिया था जब कोई इसकी बात भी नहीं करता था। रवींद्र शर्मा "रवि " का मानना है कि उनकी कविता गाँव और शहर कि हवा के घर्षण से उपजी ऊर्जा है।

पुरस्कृत कविता- हम कब लौटेंगे

बताओ बापू
हम कब लौटेंगे
अपने उसी छोटे से गाँव में
जहाँ
एक प्यारी सी सफ़ेद हवेली बनाने का सपना लेकर
तुम इस जगमगाते शहर में चले आये थे
बहुत ढेर से पैसे बटोरने
आज से कई साल पहले ....
कितना कुछ बदल गया है इस बीच ...
शहर की सड़कों की तमाम कालिख
तुम्हारी आँखों के नीचे वाले गड्ढों में सिमट आई है
साफ़ दीखता है
तुम्हारे गले की नीली नसों में
ज़हरीली दूषित हवा का रंग
अकाल पीड़ित धरती की मानिंद तुम्हारा माथा
ज्योतिष के लिए चुनौती हो गया है ..
इतने दिशाहीन हो गए हो तुम
कि अक्सर जब भी मैंने
रात के सन्नाटे में
तुमसे ध्रुवतारे के विषये में पूछा है
तो यूँ ही ऊँगली उठाते हुए
समझ नहीं पाए हो तुम
कि उत्तर कहाँ है ...
और ये भी
कि सफ़ेद दूधिया बगुलों की कतारें
इस शहर के आकाश से होकर
क्यों नहीं गुज़रती सांझ ढले ....
मैने स्वयं देखा था तुम्हें
क्षितिज तक फैले धान के खेतों को
गाकर लांघते हुए
फिर ऐसा क्या है
इन काली सपाट सड़कों में
जो चूस लेता है हर रोज़
तुम्हारी सहजता का एक हिस्सा
और हर शाम
एक सहमा हुआ व्यक्तित्व लाद कर घर ले आते हो तुम
लौट आते हो हर शाम
आधे-अधूरे से
और फिर देर रात तक करते रहते हो
बंधुआ मजदूरों कि सी बातें ...
तब मुझे अक्सर लगा है
कि तुमने सचमुच खो दी है
इन्द्रधनुषी रंगों की पहचान
और तुम्हारा इस अचेतना से लौट आना
असाध्य हो गया है शायद .....
याद करो बापू
क्या तुम्हें बिलकुल याद नहीं
जब तुमने अपना गाँव छोड़ा था ...
गाँव का आवारा पीला चाँद
बहुत दूर तक
गाड़ी के साथ दौड़ा था ...
नदियाँ-नाले फलांगता
अलसी के कुँआरे फूलों को रौंदता
बया के घोंसलों में उलझता
पोखर के पानी पर तिरता ...
और फिर जाने कहाँ गुम हो गया था
शहर की तेज चकाचौंध रोशनियों में ...
याद करो बापू
सफेदे के लम्बे वृक्ष
हाथ हिला हिला कर
रोकते रहे थे तुम्हें
और बूढ़े अनुभवी पीपल ने दूर तक
अपने सूखे पत्ते दौड़ाए थे तुम्हारे पीछे ...
तब तुमने
सफेदे के वृक्षों की तुलना
शहर की गगनचुम्बी इमारतों से की थी
इस बात से अनभिज्ञ
कि इमारत जितनी बड़ी होती है
इंसान उतना ही छोटा
और शहर में
गाँव वाला चाँद कभी नहीं उगता ...
सच कहना बापू
कैसा लगता है तुम्हें
अब उसी भीड़ का हिस्सा होना
जिसकी नियति
बदहवास दौड़ते जाने के सिवा कुछ भी नहीं
बहुत कुछ पाकर भी तुम
कुछ नहीं बटोर पाए हो
अपनी माटी की गंध भी खो आये हो ...
सुनो बापू
मैं तुम्हे आदर्श की तरह नहीं
आत्मज की तरह निभाऊंगा
तुम्हें एक बार
उसी सोंधी माटी वाले गाँव में
ज़रूर ले जाऊंगा ...
बहुत संभव है
उस गाँव के उजड्ड लोगों ने
अब भी सहेज रखे हों
इंसानियत के आदमकद अंधविश्वास ...
आओ लौट चलें बापू
शायद तुम्हारी चेतना के मरुथल में
सावनी हवाओं से हरारत आ जाए
शायद हमारा वह चाँद
किसी झाड़ में फंसा पा जाए
कोई विरही पगडण्डी
हमें स्टेशन तक लेने आ जाए ....
फिर मैं तुम्हें गाते हुए देखूंगा
और जी भर कर देखूंगा
सफ़ेद बगुले
पनघट का पीपल
जवान सफेदे
और दूर तक छिटके
सरसों के कुआरे फूल ...
बताओ बापू
हम कब लौटेंगे ....


पुरस्कार और सम्मान- शिवना प्रकाशन, सिहोर (म॰ प्र॰) की ओर से रु 1000 के मूल्य की पुस्तकें तथा प्रशस्ति-पत्र। प्रशस्ति-पत्र वार्षिक समारोह में प्रदान किया जायेगा। दिसम्बर माह के अन्य दो सोमवारों को कविता प्रकाशित करवाने का मौका। समयांतर में कविता प्रकाशित होने की सम्भावना।

इनके अतिरिक्त हम जिन अन्य 9 कवियों की कविताएँ प्रकाशित करेंगे तथा उन्हें विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की ओर से पुस्तकें प्रेषित की जायेंगी, उनके नाम हैं-

अभिषेक कुशवाहा
मनोज कुमार
आवेश तिवारी
जतिन्दर परवाज़
भावना सक्सैना
आलोक उपाध्याय "नज़र"
संगीता सेठी
उमेश पंत
शामिख़ फ़राज़


हम शीर्ष 10 के अतिरिक्त भी बहुत सी उल्लेखनीय कविताओं का प्रकाशन करते हैं। इस बार हम निम्नलिखित 3 कवियों की कविताएँ भी एक-एक करके प्रकाशित करेंगे-

दीपक मशाल
अभिषेक पाठक
डॉ॰ अनिल चड्डा


उपर्युक्त सभी कवियों से अनुरोध है कि कृपया वे अपनी रचनाएँ 31 दिसम्बर 2009 तक अनयत्र न तो प्रकाशित करें और न ही करवायें।

पाठकों में राकेश कौशिक के रूप हिन्द-युग्म को बहुत ऊर्जावान पाठक मिला है। राकेश कौशिक की टिप्पणियों से ऐसा लगता है कि वे हर पोस्ट को बहुत ध्यान से पढ़ते हैं और अपनी समझ के अनुसार उसकी समीक्षा भी करते हैं। विनोद कुमार पाण्डेय ने राकेश कौशिक को कड़ी टक्कर दी। लेकिन वे काफी अनियमित रहे। इसलिए हमने राकेश कौशिक को ही यूनिपाठक बनाने का फैसला किया है।

यूनिपाठक- राकेश कौशिक

पच्चीस साल से राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली में कार्यरत। वर्तमान में कार्यकारी निदेशक के निजी सहायक के पद पर कार्यरत। 15 साल पहले, अनायास ही सितम्बर के महीने में कार्यालय में मनाये जाने वाले हिंदी पखवाड़े के अंतर्गत होने वाली हिंदी काव्य पाठ प्रतियोगिता से कविता लेखन की शुरूआत। लेखनी और वाणी पर माँ सरस्वती की कृपा की ऐसी बरसात हुई कि इनकी पहली कविता को ही प्रथम पुरुस्कार का सम्मान मिला। शौक को हवा लगी और हर वर्ष प्रतियोगिता के लिए कविता लिखने लगे, कवितायें लोगों को पसंद आने लगीं, कार्यालय की पत्रिका में प्रकाशित हुईं और कभी-कभी कविता पाठ कार्यालय की सीमाओं से बाहर भी निकलने लगे। लेखनी और वाणी पर वीणा वादिनी की अनुकम्पा होती रही ....... जारी है।

विशेष: इन्हें यदि कोई सम्मान मिलता है तो उसमें इनकी पत्नी, बेटा और बेटी का बहुत बड़ा सहयोग है।

पुरस्कार और सम्मान- विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की ओर से पुस्तकें तथा हिन्द-युग्म की ओर से प्रशस्ति-पत्र।

इस बार हमने दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान के विजेता पाठकों के लिए हमने क्रमशः विनोद कुमार पांडेय, सफरचंद और डॉ॰ श्याम गुप्ता को चुना है। इन तीनों विजेताओं को भी विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की ओर से पुस्तकें भेंट की जायेगी।

हम उन कवियों का भी धन्यवाद करना चाहेंगे, जिन्होंने इस प्रतियोगिता में भाग लेकर इसे सफल बनाया। और यह गुजारिश भी करेंगे कि परिणामों को सकारात्मक लेते हुए प्रतियोगिता में बारम्बार भाग लें। इस बार शीर्ष 13 कविताओं के बाद की कविताओं का कोई क्रम नहीं बनाया गया है, इसलिए निम्नलिखित नाम कविताओं के प्राप्त होने से क्रम से सुनियोजित किये गये हैं।

प्रियंका सागर
रवि ठाकुर "गाफिल"
मृत्युंजय साधक
शंकर सिंह
डॉ.कृष्ण कन्हैया
आलोक गौड़
अम्बरीष श्रीवास्तव
राकेश कौशिक
रतन कुमार शर्मा
मंजु गुप्ता
मुहम्मद अहसन
सौरभ कुमार
कुमार देव
रोहित अरोरा
अमित श्रीवास्तव
जितेन्द्र कुमार दीक्षित
राजेशा
दिवाकर कुमार रंजन (कविराज)
कमलप्रीत सिंह
स्नेह पीयूष
डॉ॰ कमल किशोर सिंह
राजीव यादव
दिव्य प्रकाश दुबे
रंजना डीने
लीना गोला
माधव माधवी
एम वर्मा
विनोद कुमार पांडेय
धर्मेन्द्र मन्नु
राम निवास 'इंडिया'
उमेश पंत
मनोज मौर्य
डॉ॰ भूपेन्द्र
कुलदीप पाल
पृथ्वीपाल रावत
अजय दुरेजा
सुनील गज्जाणी
स्वर्ण ज्योति
शारदा अरोरा
विवेक रंजन श्रीवास्तव
किशोर कुमार खोरेन्द्र
दीपक ...... इटानगर
उमेश्वर दत्त"निशीथ"
रेणू दीपक
पिंकी वाजपेयी
शन्नो अग्रवाल
भरत बिष्ट (लक्की)
अरविन्द कुरील
सुशील कुमार पटियाल
डा श्याम गुप्त
कविता रावत
एम के बिजेवार (आतिश)
चंद्रकांत सिंह
नीति सागर
अनिल यादव

ज़रा सी गुफ्तगू कुछ देर बस इतवार करता है


प्रतियोगिता की छठवीं कविता एक ग़ज़ल है, जिसके रचनाकार रवीन्द्र शर्मा "रवि" पहली बार हमारी प्रतियोगिता में भाग ले रहे हैं। पंजाब के गुरदासपुर जिले के पस्नावाल गाँव में जन्मे किन्तु राजधानी दिल्ली में पले बढे रवींद्र शर्मा 'रवि 'प्रकृति को अपना पहला प्रेम मानते हैं। शहरी जीवन को बहुत नज़दीक से देखा और भोगा, किन्तु यहाँ के बनावटीपन के प्रति घृणा कभी गयी नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स से बी॰ कॉम॰ (आनर्स ) करने के उपरांत एक राष्ट्रीय कृत बैंक में उप प्रबंधक के पद पर कार्यरत।

विद्यार्थी जीवन में प्राथमिक विद्यालय में ही भाषण कला में निपुण होने के कारण "नेहरु "नाम से संबोधित किया जाने लगे। सन् १९६९ में महात्मा गाँधी कि जन्मशती के दौरान अंतर विद्यालय भाषण प्रतियोगिता में दिल्ली में प्रथम पुरस्कार एवं कई अन्य पुरस्कार जीते। सन् १९७९ में नागरिक परिषद् दिल्ली द्बारा विज्ञान भवन में आयोजित आशु लेख प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाये। उसी वर्ष महाविद्यालय द्वारा वर्ष के सर्वश्रेष्ट साहित्यकार के रूप में सन्मानित काव्य संग्रह "अंधेरों के खिलाफ", "हस्ताक्षर समय के वक्ष पर", क्षितिज कि दहलीज पर और "परिचय-राग" में कवितायें प्रकाशित। समाचार पत्र पंजाब केसरी में लगभग १२ कहानियों का प्रकाशन। इसके अतिरिक्त नवभारत टाईम्स आदि अनेक समाचार पत्रों में रचनाओं को स्थान मिला। राजधानी के लगभग सभी प्रतिष्टित मुशायरों, कवि सम्मेलनों, काव्य गोष्ठियों में लगातार काव्यपाठ। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताओ का प्रसारण। दिल्ली की साहित्यिक संस्थाओं "परिचय साहित्य परिषद्", "डेल्ही सोसाइटी ऑफ़ औथोर्स", हल्का ए तशनागाना अ अदब", पोएट्स ऑफ़ डेल्ही", "आनंदम", "कवितायन","उदभव" इत्यादि से सम्बद्ध।
रवींद्र शर्मा "रवि" को इस बात का गर्व है कि उन्होंने पर्यावरण पर मंडरा रहे खतरे के बारे में तब लिखना शुरू कर दिया था जब कोई इसकी बात भी नहीं करता था। रवींद्र शर्मा "रवि " का मानना है कि उनकी कविता गाँव और शहर कि हवा के घर्षण से उपजी ऊर्जा है।

पुरस्कृत कविता

उड़ानों के लिए खुद को बहुत तय्यार करता है
ज़मी पर है मगर वो आसमां से प्यार करता है

ये कैसा दौर है इस दौर की तहजीब कैसी है
जिसे भी देखिये वो पीठ पर ही वार करता है

गुज़र जाते हैं बाकी दिन हमारे बदहवासी में
ज़रा सी गुफ्तगू कुछ देर बस इतवार करता है

तुम्हारे आंसुओं को देखना मोती कहेगा वो
सियासतदान है वो दर्द का व्यापार करता है

हवस के दौर में बेकार हैं अब प्यार के किस्से
घडा लेकर भला अब कौन दरिया पार करता है


पुरस्कार- रामदास अकेला की ओर से इनके ही कविता-संग्रह 'आईने बोलते हैं' की एक प्रति।