रेंग-रेंग कर चलते रस्ते कितने खुश हैं
भूखे-नंगे टूटे-खस्ते कितने खुश हैं
हमने इनका बचपन छीन लिया है इनसे
बच्चों के कन्धों पर बस्ते कितने खुश हैं
शाम हुई तो घर लौटेंगे इनमें कितने
सुबह-सुबह कर रहे नमस्ते कितने खुश हैं
अपने चेहरे की कालिख का किसे पता है
इक दूजे पर फब्ती कसते कितने खुश हैं
आदर्शों को हड़प गयी बाज़ार सभ्यता
मूल्य हुए हैं कितने सस्ते कितने खुश हैं
इस दुनिया में कदर हो गयी है अब उनकी
कागज़ के झूठे गुलदस्ते कितने खुश हैं
शहर सो गया है अब खुलकर साँसें ले लें
बाहें फैलाये चौरस्ते कितने खुश हैं
----रवीन्द्र शर्मा 'रवि '
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
रवि जी की ग़ज़लें हिंद-युग्म के सामयिक हस्तक्षेप को एक नया स्तर प्रदान करती हैं..बेहद सरल शब्दों मे और रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजों के जरिये हमारे समय पर टिप्पणी कर देना आपकी खासियत है
हमने इनका बचपन छीन लिया है इनसे
बच्चों के कन्धों पर बस्ते कितने खुश हैं
यहाँ पर बस्ते सिर्फ़ किताबों के वजन ही नही बल्कि बच्चों के अभिवावकों की बेतहाशा उम्मीदों और दबाव के बोझ का भी प्रतीक बन जाते हैं..जो बचपन से बचपन बाहर कर देता है!!(हालांकि पहली पंक्ति मे इनका-इनसे का प्रयोग कुछ पुनरुक्ति सा लगता है)
शहर सो गया है अब खुलकर साँसें ले लें
बाहें फैलाये चौरस्ते कितने खुश हैं
ऐसे ही शहर के सो जाने पर थके चौरस्तों का बांह फैला कर एक अंगड़ाई लेना कितना सटीक बना है..वैसे तो आजकल के शहर भी ’इन्सोम्नियेक’ हो गये हैं..
शाम हुई तो घर लौटेंगे इनमें कितने
सुबह-सुबह कर रहे नमस्ते कितने खुश हैं
रविन्द्र जी का हर शेर लाजवाब होता है. इस गज़ल में उक्त शेर देश में व्याप्त सुरक्षा की एक बेबाक तस्वीर खींचता है. साधुवाद.
(corrected comment )
शाम हुई तो घर लौटेंगे इनमें कितने
सुबह-सुबह कर रहे नमस्ते कितने खुश हैं
रविन्द्र जी का हर शेर लाजवाब होता है. इस गज़ल में उक्त शेर देश में व्याप्त असुरक्षा की एक बेबाक तस्वीर खींचता है. साधुवाद.
अच्छी गज़ल.
हमने इनका बचपन छीन लिया है इनसे
बच्चों के कन्धों पर बस्ते कितने खुश हैं
अपने चेहरे की कालिख का किसे पता है
इक दूजे पर फब्ती कसते कितने खुश हैं
सुंदर रचना बधाई
अपने चेहरे की कालिख का किसे पता है
इक दूजे पर फब्ती कसते कितने खुश हैं
आज के परिप्रेक्ष्य मे लिखी गई एक बेहतरीन गज़ल के लिए रविन्द्र जी बहुत -बहुत बधाई! प्रत्येक शेर में संदेश है!
शाम हुई तो घर लौटेंगे इनमें कितने
सुबह-सुबह कर रहे नमस्ते कितने खुश हैं
शहर सो गया है अब खुलकर साँसें ले लें
बाहें फैलाये चौरस्ते कितने खुश हैं
bahut khoob
saader
rachana
chintao mein bhi khushi dekh lene ka kaam ravindra ji jaisa samrtha kalamkar hi kar sakta hai.
har chinta par aise pesh aaye hai ki padne wala apne halat ka aaina dekhe aur apna muh na nochne lage balki halke se muskura uthe..
is bisangatiyo ke bavjood agar hum jee rahe to yahi uplabdhi kuch kam nahi..
badhayee.
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