नवम्बर 2009 के यूनिकवि रवीन्द्र शर्मा 'रवि' ग़ज़ल-प्रेमी पाठकों की पहली पसंद हैं। इनके ग़ज़लें पाठकों और निर्णायकों का ध्यान एक साथ खींचतीं हैं। फरवरी 2010 की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी एक ग़जल ने आठवाँ स्थान बनाया।
पुरस्कृत कविता
वो राह कोई और सफ़र और कहीं था
ख्वाबों में जो देखा था वो घर और कहीं था
मैं हो न सका शहर का इस शहर में रह के
मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था
कुछ ऐसे दुआएं थीं मेरे साथ किसी की
साया था कहीं और शज़र और कहीं था
बिस्तर पे सिमट आये थे सहमे हुए बच्चे
माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था
इस डर से कलम कर गया कुछ हाथ शहंशाह
गो ताज उसी का था हुनर और कहीं था
था रात मेरे साथ 'रवि' देर तलक चाँद
कमबख्त मगर वक़्त ए सहर और कहीं था
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
.....शज़र और कहीं था थोड़ा कठिन समझने में क्यूँकि दिमाग़ में साये के साथ दरख़्त ही आता है। कुल मिला कर एक उम्दा ग़ज़ल।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल...
खासकर...
मैं हो न सका शहर का इस शहर में रह के
मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था
बहुत असरदार शे'र...
bahut achhi gazal.......badhai
बिस्तर पे सिमट आये थे सहमे हुए बच्चे
माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था
yah panktiya dil ko choo gai
बेहतरीन गज़ल
बिस्तर पे सिमट आये थे सहमे हुए बच्चे
माँ-बाप में झगड़ा था असर और कहीं था
ye sher bahut accha lga
मैं हो न सका शहर का इस शहर में रह के
मैं था तो तेरे शहर में पर और कहीं था
एक जड़ से उखड़े हुए इंसान के लिये यह शे’र बहुत मार्मिक लगता है रवि जी..क्योंकि अपनी जमीन के उखड़ने के बाद कितने भी गमलों का सफ़र वह पौधा तय न कर ले..मिट्टी कहीं नही पकड़ पाता..
bahut bad hiya sir
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