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Wednesday, April 21, 2010

एक मुट्ठी आसमान


रोज़
जब किसी न किसी चौराहे पर
ट्रैफिक के चक्रव्यूह में
किसी अभिमन्यु को कटा पाता हूँ ,
झेलता हूँ अपने ही आसपास
खून की कै करते असंख्य लोगों को ,
जब मेरे नथुने
ताड़का की नाईं ज़हरीला धुयाँ उगलती चिमनियों को देख
फडफडा कर दर्शाते हैं
क़ि अब दम घुटने लगा है
तब सोचता हूँ क़ि लौट जाऊं ....
सुना है
शीशे के घरों
और हाथों में पत्थर लिए लोगों से दूर
सोंधी माटी का एक गाँव भी है
जहाँ उजड्ड लोग
पानी मांगने पर लस्सी पिला देते हैं
जहाँ दूधिया चाँद
सांझ होते ही
पोखर में उतर आता है
और सारी रात खेलता है होली
टेसू के फूलों से ...
सतरंगा इन्द्रधनुष
अब भी बहुत नीचे तक चला आता है
सहमी शरमाई सी
गेंहूँ की बालिओं को चूमने ...
नदी किनारे का वह आवारा आम
आज भी
किसी सांवली सी कोयल को देख कर
बौरा जाता है ...
अब भी
ऊंचे टीले पर की चिड़चिड़ी बेरी
हर आने जाने वाले का आँचल
बड़ी बेशर्मी से थाम लेती है
और पूछती है
शहर के राजमार्गों पर पंक्तिबद्ध खड़े
सफेदे के वृक्षों का हाल
जो बात बात पर
खुशामदी दरबारियों की तरह झुक कर
आदाब बजा लाते हैं ...
उन मनहूस तारकोली सड़कों की बावत
जहाँ पग पग पर निर्देशित होने पर भी
अपाहिज हो जाते हैं लोग
और जहाँ
सावन के महीने में भी
दूर तक बाहें फैलाये दौड़ते चले जाना
मना है ........
मेरी पीली आँखें
ढूँढने लगती हैं
वनफूलों से लदी कोई आवारा पगडण्डी
जो मुझे
इस तथाकथित सभ्यता से दूर ले जाए ....
तभी लगता है
दूर चारागाह में बूढ़े बरगद के नीचे
किसी चरवाहे की बांसुरी
गुनगुनाने लगी है
कोई बहुत पुराना लोकगीत .....
कांपते पैरों पर
खड़ा रहने का प्रयास करता हूँ मैं
और सुनता हूँ
एक ट्रांजिस्टर की फटी सी आवाज़
कि शहर में
एक और बम विस्फोट हो गया है .....

------- रवीन्द्र शर्मा 'रवि'

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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

रचना प्रवेश का कहना है कि -

shaher ke mashini jeevan se trast hoker ,gaanv ki sondhi si mahk dil mai basa di aapki rachna ne ,itane trast hone ke bawjood kyo aaj bhi gaanv shahro ki or palayan ker rahe hai ........ek dhamake mai khud ko mitane ke liye?

M VERMA का कहना है कि -

मेरी पीली आँखें
ढूँढने लगती हैं
वनफूलों से लदी कोई आवारा पगडण्डी
जो मुझे
इस तथाकथित सभ्यता से दूर ले जाए ....
वाकई तथाकथित सभ्यता से दूर जाने की ही इच्छा होने लगती है पर --
बेहतरीन
बेमिसाल

manu का कहना है कि -

''NICE''




ye hamaaraa nice hai..
padh kar diyaa hai..




jaraa alag saa dikhtaa hai...

rachana का कहना है कि -

उन मनहूस तारकोली सड़कों की बावत
जहाँ पग पग पर निर्देशित होने पर भी
अपाहिज हो जाते हैं लोग
और जहाँ
suchne lagi ki kitna sach llikha hai

सतरंगा इन्द्रधनुष
अब भी बहुत नीचे तक चला आता है
सहमी शरमाई सी
गेंहूँ की बालिओं को चूमने ...
नदी किनारे का वह आवारा आम
आज भी
किसी सांवली सी कोयल को देख कर
बौरा जाता है ...
sunder barnan
badhai
rachana

Unknown का कहना है कि -

शहर से गाँव तक को कविता में ढाला बहुत बहुत बधाई धन्यवाद
विमल कुमार हेडा

amita का कहना है कि -

और पूछती है
शहर के राजमार्गों पर पंक्तिबद्ध खड़े
सफेदे के वृक्षों का हाल
जो बात बात पर
खुशामदी दरबारियों की तरह झुक कर
आदाब बजा लाते हैं ...
aapki is sunder kavita ne mujhe mere gauv pahuncha diya...

अपूर्व का कहना है कि -

व्यथित करने वाली कविता...
...मगर शहर मे धूल-धुँए भरी थकी रातों के ऐसे कुछ खुशनुमा मगर घुँधले स्वप्न बस रात भर के साथी होते हैं..आभासी से..दूर चरवाहे की बाँसुरी के लोकगीत की तरह..जिसे सुन भर लेने के बाद वापस काम पर ही जाना होता है..क्योंकि भूख को बमविस्फ़ोट के बहाने नही समझ आते...

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