जनवरी 2010 की दूसरी कविता नवम्बर 2009 माह के यूनिकवि रह चुके रवीन्द्र शर्मा 'रवि' की है। रवि अपनी ख़ास किस्म की ग़ज़लों के लिए भी हिन्द-युग्म के पाठकों के मध्य पहचाने जाते हैं।
पुरस्कृत कविता: पेड़
तुमने उसी दिन रहन रख दी थी अपनी अस्मिता
जिस दिन तुमने आदमी को
जंगल के बीच में से होकर
गुजरने का अधिकार दे दिया था .....
तब नहीं सोचा था तुमने
कि पैरों में इतनी आग लिए घूमता है आदमी
और वनफूलों को इतना ताप सहने की आदत नहीं है
अब हाल ये है कि
जंगल तो शहर में ले आया है आदमी
पगडंडियाँ तब्दील हो गयी हैं
तारकोली सड़कों में
और तुम किसी अनपढ़ देहाती की तरह
भूल बैठे हो
अपने ही गाँव की
सीधी-साधी पगडण्डी का पता
और समझ नहीं पाते हो
शहर की दोमुँही सड़कों का भूगोल
जहाँ आदमी
फिर फिर वहीं आ जाता है
जहाँ से फिर कोई
अपने गाँव लौट नहीं पाता है .....
पेड़,
सड़क की बीच वाली पटरी पर खड़े तुम
गैस चेम्बर में पड़े कैदी की मानिंद
जब भी छटपटाते हो
तभी अपना कोई हिस्सा
शरीर से कटा पाते हो
तुम ये बार-बार भूल जाते हो
कि यह जंगल नहीं है
यहाँ के अपने नियम होते हैं
और यहाँ
एक निश्चित दायरे से बाहर हाथ बढ़ाना
अपराध है
यहाँ तुम्हारे चारों ओर जंगल नहीं
जंगला है
तुम्हें उसी के हिसाब से बढ़ना है
किसी मासूम बच्चे सी बेल को
किसी वृद्ध पीपल के कन्धों पर
किलकारी मार कर नहीं चढ़ना है
पेड़,
तुम क्यों नहीं समझते
कि बदल चुके हैं
तुम्हारी स्नेहिल छाया के सन्दर्भ
पत्थर के बदले परछाई का सिद्दांत
अब बेवकूफी की निशानी है
और मेहनतकश आदमी तथा बदहवास आदमी के पसीने में
फर्क होता है ........
अपना विस्तार रोको पेड़
चिमनियों के शिरों को ऊंचा जाने दो
गगनचुम्बी इमारतों में बैठे आदमी को
पता लगाने दो
कि बादल
अब बहुत नीचे तक क्यों नहीं आते
और सतरंगा इन्द्रधनुष
गाँव के गंवार लोगों के पास क्यों धरा है अब तक ....
इन्हें पता लगाने दो पेड़
कि गाँव के मिटटी गारे से बने पुश्तैनी घर
अब तक कैसे खड़े हैं ज्यों के त्यों
और हर बरसात में
उनके बूढ़े शरीरों से
सोंधी महक क्यों आती है
और यहाँ
गारंटीशुदा सीमेंट से बन रही खूबसूरत इमारत
बनने से पहले क्यों गिर जाती है ......
इन्हें तुम नहीं समझा पाओगे पेड़
कि मकान के खड़े रहने का सम्बन्ध
मन से है
धन से नहीं
और महकने के लिए
मिट्टी से जुड़ा होना बहुत आवश्यक है
अब संध्या के समय
बसों -कारों के कलरव में
बातूनी चिडियों का इंतज़ार
बहुत बेमानी हो गया है
अब शायद न ही बौराएँ तुम्हारी डालियाँ
क्योंकि उन्हें पहले ही
बौनी मानसिकता के हिसाब से
काट दिया जाएगा
और कटे हुए कन्धों पर सर रखने
क्षितिज कभी नहीं आएगा
ऐसे में
तुम्हारा जी तो बहुत घबराएगा
पर पेड़ करना इंतज़ार उस दिन का
जब कोई भूला भटका परिंदा
रुकेगा तुम्हारे पास
कुछ देर के लिए
और जाते जाते दे जायेगा ढेरों यादें
जंगल की अल्हड सावनी सभ्यता की...
तब कर तो कुछ नहीं पायोगे तुम
पर इतना ज़रूर कहना
पेड़ो तुम जंगल में ही रहना
शहर जंगल से अधिक भयानक है .
पेड़ हों या परिंदे
किसी का भी पक्की सड़कों की तरफ आना
खतरे से खाली नहीं है
कौवों की रियासत में कोयल के लिए
एक भी आरक्षित डाली नहीं है
यहाँ आम का अमलतास से लिपटना
संक्रमण या अतिक्रमण
कुछ भी हो सकता है
प्रेम प्रकरण नहीं हो सकता
आतंक की त्रासदी जी रहे शहर में
आम अमलतास के साथ नहीं सो सकता
यहाँ केवल
बौने दरबारी पेड़ ही चलते हैं
चुनावों के मौसम में
ख़ास-ख़ास क्षेत्रों में फलते हैं
शेष या तो काट दिए जाते हैं
या बिना जल के
तिल-तिल जलते हैं ...
इसलिए पेड़ो
तुम जंगल में ही रहना
यहाँ पैरों में बहुत आग लिए घूमता है आदमी
और वनफूलों को
इतना ताप सहने की आदत नहीं है
पेड़ो तुम जंगल में ही रहना ......
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पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
gazab ki prastuti.........padhte padhte jad ho gayi.
बहुत ही बड़ी रचना के लिए बहुत ही बड़ी बधाई,
धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
मेरी कविता "पेड़ो तुम जंगल में ही रहना " का एक पृष्ठ लगातार दो बार प्राकाशित हो गया है , जिस से कविता बेवजह बहुत लम्बी प्रतीत हो रही है .
पाठक कृपया इस भूल को नज़रंदाज़ कर के ही कविता का मूल्यांकन करें .
सस्नेह ,
रवीन्द्र शर्मा "रवि "
यहाँ आम का अमलतास से लिपटना
संक्रमण या अतिक्रमण
कुछ भी हो सकता है
प्रेम प्रकरण नहीं हो सकता
आतंक की त्रासदी जी रहे शहर में
आम अमलतास के साथ नहीं सो सकता
यहाँ केवल
बौने दरबारी पेड़ ही चलते हैं
चुनावों के मौसम में
ख़ास ख़ास क्षेत्रों में फलते हैं
कविता अपने व्यंग्य के उरुज पर है और अर्थपूर्ण लग रही है ...
बहुत ही बांधनेवाली रचना ..अंत तक पठनीय व आत्मीय लगी !
लाज़वाब भाव..बधाई रवीन्द्र जी...सुंदर कविता
aur sir , aap aaye nahi , 6 feb ko book fair mein.
hum log aapke intzaar mein the.
hamesha ki tarah accha likha hai,
9359164782
आप सब का और हिंद युग्म का आभार .अखिलेश जी मैं ६ तारीख को आया था ,सपरिवार . पुरस्कार भी ग्रहण किया . न जाने आप से भेंट क्यों नहीं हो पायी . चलिए फिर मिलेंगे . (रवि)
aap ki kavita jitna padhti gai uthi jyada achchhi lagi
pedon ke madhyam se aap ne bahut kuchh kah diya hai sunder andaj me
badhai
saader
rachana
bahut achchi kavita hai bahut kuch kah diya aapne pedon ke dard ke bare main. badhai
बेहद खूबसूरत तथ्य और शिल्प का समावेश . तथ्य की तिलमिलाती धार अंदर तक बेचैनी का वो आलम भरती है की देर तक मन उदास सा हो रख्खा है| इस माह की सबसे अच्छी रचना|
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