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माँ तो माँ है.....गीत भी , कविता भी


यूँ तो माँ पर लिखना आसान नहीं, लेकिन यह भी है कि माँ पर लिखना सबसे ज्यादा हीं संतोषप्रद होता है। वह जिसको आप अपनी ज़िंदगी के पहले क्षण से जानते हैं,उसका चरित्र-चित्रण करने के लिए आपको दिमाग के घोड़े नहीं दौड़ाने पड़ते। बातें खुद-ब-खुद दिल से कागज़ पर उतरती जाती हैं।

जो रचना मैं आज यहाँ पेश कर रहा हूँ, वह दर-असल एक गीत है, जो मैंने आवाज़ के लिए लिखा है। यह गीत आज आवाज़ पर भी प्रस्तुत हुआ है। गीत सुनने के लिए यहाँ जाएँ। पाँच मुखड़ों और पाँच अंतरों में लिखा यह गीत जब रिकार्ड हुआ तो समयाभाव के कारण तीन मुखड़ों और दो अंतरों तक हीं सीमित होकर रह गया । पूरा का पूरा गीत लोगों के सामने आए और मैं पूरे पाँच अंतरों के माध्यम से माँ तक अपनी भावनाओं को पहुँचा सकूँ ,बस इसीलिए इसे यहाँ सबके सामने रख रहा हूँ।


माँ मेरी लोरी की पोटली,
गुड़ जैसी!!

मिट्टी पे दूब-सी,
कुहे में धूप-सी,
माँ की जाँ है,
रातों में रोशनी,
ख्वाबों में चाशनी,
माँ तो माँ है,
ममता माँ की, नैया की नोंक-सी,
छलके दिल से, पत्तों में झोंक-सी।

माँ मेरी पूजा की आरती,
घी तुलसी!!

आँखों की नींद-सी,
हिंदी-सी , हिंद-सी,
माँ की जाँ है,
चक्की की कील है,
मांझा है, ढील है,
माँ तो माँ है।
चढती संझा, चुल्हे की धाह है,
उठती सुबह,फूर्त्ति की थाह है।

माँ मेरी भादो की दुपहरी,
सौंधी-सी!

चाँदी के चाँद-सी,
माथे पे माँग-सी,
माँ की जाँ है,
बेटों की जिद्द है,
बेटी की रीढ है,
माँ तो माँ है।
भटका दर-दर, शहरों मे जब कभी,
छत से तकती, माँ की दुआ दिखी।

माँ मेरी भोली सी मालिनी
आँगन की!

अपनों की जीत में,
बरसों की रीत में,
माँ की जाँ है,
प्यारी-सी ओट दे,
थामे है चोट से,
माँ तो माँ है,
चंपई दिन में,छाया-सी साथ है,
मन की मटकी, मैया के हाथ है।

माँ मेरी थोड़ी-सी बावली,
रूत जैसी!

मेरी हीं साँस में,
सुरमई फाँस में,
माँ की जाँ है,
रिश्तों की डोर है,
हल्की-सी भोर है,
माँ तो माँ है,
रब की रब है, काबा है,धाम है,
झुकता रब भी, माँ ऎसा नाम है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

आज मन कर आचमन!


आज मन कर आचमन!
खींच ला अंतड़ियों से खोखले संयम का कण-कण!!

क्षत-विक्षत!
फिर भी विनत!
कौन-सा यह धर्म है!
तुझको तनिक-भी शर्म है?


अमृत पलकों को दिखा के,
नैनों में जो नश्तर टाँके,
सोच! उसकी भावना का
मोल क्या,क्या अर्थ है?
जान ले, कुमित्रता की
मित्रता एक शर्त्त है।

सत-असत,
बस एक मत,
जो निकट पलता दंश हो,
हितकारी है - विध्वंस हो ।

मेरे मन!
दॄश्य दुश्मन वो तो अदॄश्य- शांत रहने का चलन,
खींच ला अंतड़ियों से खोखले संयम का कण-कण।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

यम आना इत्मीनान से


शोक , ना अवसाद है,
मेरी रूह बे-औलाद है।

परदा करे वो इसलिए,
परदे में हीं आज़ाद है।

फ़िक्र आईने की क्यूँ,
संगत में जो बर्बाद है।

यम आना इत्मीनान से,
तबियत अभी नाशाद है।

तुम सबकी बद्दुआओं से,
दुनिया मेरी आबाद है।

दुखता है दिल इंसान का,
’तन्हा’ हीं एक अपवाद है।

शब्दार्थ:
यम = यमराज
नाशाद= उदास, गमगीन

-विश्व दीपक ’तन्हा’

ऐ जिंदगी


ऐ जिंदगी, तूने मेरी जिंदगी बिगाड़ दी,
कहीं का भी नहीं छोड़ा, हसरतें हजार दी।

मेरा उनसे एकतरफा इश्क था क्या बुरा,
इकरार की दी आरजू औ' दौलते-इंकार दी।

घर जोड़ने, घर छोड़कर आया तेरे लिए,
एक नींव की पड़ताल में ठोकरों की मार दी।

इंजीनियर तेरे जोर से बनने जो चल पड़ा,
तूने शाइरी की आशिकी मुझमें उतार दी।

यारी में उजड़ गए कई यारों के घरोंदे,
चोटें मेरी तबियत को तूने जो बेशुमार दी।

तू जिंदगी कभी भी यूँ मेरी न हो सकी,
"तन्हा" को खुदा ने है तेरी बंदगी उधार दी।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

आज की आवाज़


इंद्रधनुष के दो सिरों को खींचकर
टंकार कर दे आसमां में।
हथेली में हक को अपने भींचकर
हुंकार कर दे इस जहां में॥

रास्तों पर मंजिलों के
दर का पता तू टांक दे,
मंजिलों को अपने घर की
नींव का हीं फांक दे ।

हो गुमां पलको को जिनपे
आँख को यूँ ख्वाब दे,
लहरों से साहिल आ मिले
और पर्वत्तों को आब दे।


अपने लहू की सुर्खियों को बाँधकर
आग भर ले हर बयां में।
कायरों के नस्ल को अब लांघकर
नाग जड़ दे तू हया में ॥

बेसबब


मैं साकी को हीं हमनफ़स अब बना लूँ,
सबब 'मय' हीं 'मय',मैं बेसबब बना लूँ।

अदा से अदावत निभाए जो हमसे,
कसम पाक रब की, उसे रब बना लूँ।

मिले न मुझे खुशनसीबी के शब जो,
सुखन के हरेक हर्फ़ को शब बना लूँ।

मुझे वो बला जो नज़रबंद कर ले,
उसी पल अदब से उसे सब बना लूँ।

न पाई किसी ने इश्क से सरफ़राज़ी,
कहो क्यूँ मैं 'तन्हा' उसे ढब बना लूँ?

शब्दार्थ:
हमनफ़स- दोस्त, मित्र
सबब - कारण
अदावत - दुश्मनी
सुखन - कविता
हर्फ़ - अक्षर
सरफ़राजी - दुआ, फ़ायदा
ढब- रिवाज, नियम

-विश्व दीपक ’तन्हा’

आज़ाद हिंद


नभ-विजयी तिरंगा जो अपने रूबरू है,
जश्न-ए-आज़ादी की रौनक चार-सू है।

कहा आज पूरवा से मैने,
अर्श तक खोलो ये डैने,
काहे का हो आँखों में डर,
खुल के झूमो ओ बवंडर!
रेत पर खुद को उकेरो,
पछिया से न आँखें फेरो,
अब तो तेरा अक्स फैला कू-ब-कू है,
जश्न-ए-आज़ादी की रौनक चार-सू है।

सुन रे माटी ,ताक खुद पे,
इकसठा चढ आया तुझपे,
बरगदों के जड़ तक उखड़े,
सदियों से थे तुझको जकड़े,
अब तो उगल सोने-मोती,
ना कहे कोई -"किम् करोति?"
देख अपनी किस्मत तुझ-सी हू-ब-हू है,
जश्न-ए-आज़ादी की रौनक चार-सू है।

सुन तू भी,ऎ इब्न-ए-हिंद!
आज़ाद लब, आज़ाद जिंद-
आज़ाद लहू तेरी रगों के,
हैं ऋणी उन सब नगों के,
जो मिटे हिंद पे अब तक,
लड़ गए बेधडक-अनथक,
देख यह माहौल यूँ नहीं स्वयंभू है,
जश्न-ए-आज़ादी की रौनक चार-सू है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

गुठली


आँखों की गुठली से
आँसू के बिरवे
निकल आते हैं
हरदम हीं।

बदजात, बदगुमान, बदमिजाज
नक्षत्रों के
फूटे मटकों से
जमती है बहुत
अश्कों के शाखों पे
औंधे पड़े
मोतियों की,
झांकते हैं जो
खोलकर आसमानी पलकों को।

उनकी
जड़ों से जकड़े
गीली मिट्टी के सपने
पड़े होते हैं
हर चार कदम पर-
महँगे इतवारों के
इंद्रधनुषी झांसों की तरह...
छुपाते रहते हैं
गंदले दागों को
कोढ के खाज के मानिंद।

इन सब के बीच
"मैं"-रूपी
कोई बरगद
या फिर मही
या शायद आसमान
देखता होता है
अपने भविष्य की दुर्गति
बेरूखी बारिश कीआगोश में..

काश
कभी किसी ने
गुठली फोड़ दी होती
और कर दिया होता
शंखनाद युद्ध का......
फिर
ना होता बाँस, न बजती बाँसुरी।

काश!!!!!!!

-विश्व दीपक ’तन्हा’

दर्द


नींद की जो बाटजोही करवटें करती नहीं,
जागते दरख्तों पर अब धूप उतरती नहीं।

मालूम है मामूल पर ना-वास्ता के वास्ते,
जिंदगी इन फेफड़ों में साँसे भी भरती नहीं।

दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में,
मरते हैं गज़लगो पर गज़लें कभू मरती नहीं।

रख दिया है आसमां के चाँद को उबालकर,
फिर भी क्यूँ ये चाँदनी खुलकर बिखरती नहीं?

इन बुतों की बात में पोशीदा मुगलते कई,
रूख्सार से नज़रें हटे, नियत पर मुकरती नहीं।

’तन्हा’ कमख्याली ने लूटा हाल-औ-माज़ी को,
कोटरों की कोख से क्यों आँखे उभरती नहीं?

शब्दार्थ:
मामूल = नियम , रूटीन
कभू= कभी
बुत= मूर्त्ति, प्रियतमा, भगवान
हाल-औ-माज़ी= वर्त्तमान और भूत

-विश्व दीपक ’तन्हा’

शिकवा


जिंदगी भर जिंदगी से शिकवा न करना,
खुदा को सरेआम यूँ बेहया न करना ।

उसकी मेहर को मिल्कियत मानने वाले,
साँसों को सरजमीन से अलहदा न करना।

जोश-औ-जुनूं बटे हैं सबमें हीं एक से,
हिम्मत से बदसलूकी तो बेवज़ा न करना।

अब तक करे है तू तकदीर का रोना,
अंधी सरपरस्ती तू इस दफा न करना।

इम्तिहां और इत्मीनान सीखकर उससे,
रात को सुबह का तू रास्ता न करना।

बरबस हीं बेबसी बन जाए है तेरी,
रिंदों को घरौंदे का यूँ हमनवा न करना।

’तन्हा’ ,लिबास रेशमी मिल गया तुझे,
खुदा की नेमतों को बस वाक्या न करना।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

मैं और मेरा रहबर ..... एक गज़ल


अंजुमन-ए-इश्क में मेरी तकदीर नौ-आमोज,
रहबर मेरा, साकी मेरा, नज़रें न दे दिल-दोज़ ।

अदू को कू-ए-यार में मैं छोड़ आया हूँ,
अब तो सो न पाएँगे वो भी शब-औ-रोज़ |

होता दर-ब-दर वो फलक संग आफताब के,
इक नाज से नाज जो गढती है एक सोज़।

काफ़िर कमाल का वही अपने को भूल जाए,
खुद में हीं जो खुदा, क्या शिकवा कैसी खोज।

मालिक-मकान से मैं दो गज हूँ ले चुका,
जब हो खुल्द से बुलावा, हो जाऊँ जमींदोज़।

लईम हूँ, खुद को मैं जाहिर नहीं करता,
वरना भरती आहें हूरें , मेरा देखकर फरोज़।

'तन्हा' उदास है क्यूँ, जरा सबब तो बता,
है फिज़ा-ए-बू-ए-हुस्न, तू गोशानशीं हनोज़।

शब्दार्थ:
नौ-आमोज = नया , शुरूआती
दिल- दोज = दिल तोड़ने वाला
अदू ,उदू = दुश्मन
कू-ए-यार = यार की गली
नाज = नखरा, नाजनीं
सोज़= ऊर्जा , जुनून
खुल्द = स्वर्ग
जमींदोज़ = जमीन में गड़ जाना
लईम = कंजूस
फरोज़ = चमक
फिज़ा-ए-बू-ए-हुस्न = हुस्न की खुशबू से सनी फिज़ा
गोशानशीं = अकेला
हनोज़ = अब तक

-विश्व दीपक ’तन्हा’

किस लिए....एक गज़ल


हर बात पर जब हो रज़ा , तो जिम्मेदारी किस लिए,
बिफरे कोई हक़ से कभी ,तो अश्क-बारी किस लिए!!

अव्वल तो अपनी दीद से, ताउम्र हीं तरसा रखा,
बिखरा जो तेरे अर्श से , अख्तर-शुमारी किस लिए ?

ज़ाहिद का जो माना नहीं, काफ़िर करार हो गया,
एक रब को तोड़ने की यह ,कुफ़्र-कारी किस लिए ?

दिल दैर-ए-इत्मीनान है, होकर दयार-ए-गैर भी!
वह माँ का कोख तो नहीं, तो आहो-ज़ारी किस लिए?

तड़ीपार ’तन्हा’ था हुआ, तू जब बोशा टांककर,
आज़ लम्स आ देखने की, ये अय्यारी किस लिए ?

शब्दार्थ:
रज़ा = हामी
अश्क-बारी = रोना
अर्श= आसमान
अख्तर-शुमारी = अनिद्रा,तारों को देखना
ज़ाहिद = उपदेश देने वाला
काफ़िर = जिसे खुदा पर विश्वास नहीं। परंतु आज के समय में हर वो इंसान जो ज़ाहिद से रज़ामंदी नहीं दिखाता, काफ़िर कहा जाता है।
कुफ़्र-कारी = अनैतिकता,खुदा में अविश्वास
दैर-ए-इत्मीनान = वह मंदिर जहाँ इत्मीनान मिलता है
दयार-ए-गैर= दूसरे का घर
आहो-ज़ारी= विलाप करना, जोर-जोर से रोना
बोशा = चुंबन
तड़ीपार होना= देश छोड़कर भाग जाना
लम्स= छुअन
अय्यारी = जासूसी

-विश्व दीपक ’तन्हा’

इंसान


मेरी आँखों में था जो, जिसे आईना समझा किया,
सामने हीं बिक गया, पूजा जिसे, सज़दा किया ।

इस शहर में मोल क्या ईमान का, कैसे कहूँ ?
हर चौक पर बेदाम हीं कईयों ने है सौदा किया।

एक दौर तक तहज़ीब की ऊँगली थाम कर चले,
फिर जिंदा लाश छोड़के,सबने ज़ुदा रस्ता किया।

खुद को बददुआ दी तो कभी जग को बुरा कहा,
खुदाया! मैने हिस्से का हर काम बावफ़ा किया।

कहते हैं, दौरे-आदम से यह बात चलती आ रही,
इंसां ने खुद के हक़ के हीं साथ है धोखा किया।

बस आह आने-जाने को हीं जिंदगी कह देते हैं,
रफ्ता-रफ्ता ज़ेहन में मैने यह मुगलता किया।

खुशी-गम के दो लहज़े में हीं इंसान तराशे गए ,
खुदा ने ’तन्हा’ वास्ते मुख्तलिफ सांचा किया।

शब्दार्थ:
हक़ = अधिकार, भगवान
ज़ेहन = दिमाग
मुगलता = भ्रम
मुख्तलिफ= भिन्न

-विश्व दीपक ’तन्हा’