ऐ जिंदगी, तूने मेरी जिंदगी बिगाड़ दी,
कहीं का भी नहीं छोड़ा, हसरतें हजार दी।
मेरा उनसे एकतरफा इश्क था क्या बुरा,
इकरार की दी आरजू औ' दौलते-इंकार दी।
घर जोड़ने, घर छोड़कर आया तेरे लिए,
एक नींव की पड़ताल में ठोकरों की मार दी।
इंजीनियर तेरे जोर से बनने जो चल पड़ा,
तूने शाइरी की आशिकी मुझमें उतार दी।
यारी में उजड़ गए कई यारों के घरोंदे,
चोटें मेरी तबियत को तूने जो बेशुमार दी।
तू जिंदगी कभी भी यूँ मेरी न हो सकी,
"तन्हा" को खुदा ने है तेरी बंदगी उधार दी।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
शायरी की आशिकी आपने जीवन में उतारकर 'जिदंगी' ने अच्छा ही किया, हमें कम से कम कुछ प्रयोग तो पढ़ने को मिल जाते हैं।
जीवन एसा ही है जो चाहिए देता नही जो नही चाहिए बिन मांगे दे देता है
बहुत अच्छी ग़ज़ल
सादर
रचना
यारी में उजड़ गए कई यारों के घरोंदे,
चोटें मेरी तबियत को तूने जो बेशुमार दी।
तू जिंदगी कभी भी यूँ मेरी न हो सकी,
"तन्हा" को खुदा ने है तेरी बंदगी उधार दी।
man ko chu gaee hai je panktiyan
विश्व दीपक जी,
बिगाड़ दी - हजार दी | जमा नही |
आपकी पूर्व रचनाएँ अधिक प्रभावशाली उनकी तुलना में यह कमजोर है |
सादर,
विनय
ऐ जिंदगी, तूने मेरी जिंदगी बिगाड़ दी,
कहीं का भी नहीं छोड़ा, हसरतें हजार दी।
-- नहीं जमा | बिगाड़ और हजार का मेल ?
और सब ठीक लगा |
स्नेह,
अवनीश
यारी में उजड़ गए कई यारों के घरोंदे,
चोटें मेरी तबियत को तूने जो बेशुमार दी।
बहुत बढ़िया.
मेरा उनसे एकतरफा इश्क था क्या बुरा,
इकरार की दी आरजू औ' दौलते-इंकार दी.
बहुत ही बढ़िया लिखा है.
मेरा उनसे एकतरफा इश्क था क्या बुरा,
इकरार की दी आरजू औ' दौलते-इंकार दी।
बहुत अच्छी गजल है तन्हा जी!
वाकई आप को ग़ज़ल का क ख ग भी तो नहीं आता सीखें या न लिखें अगर शब्दों के ऐसे जुगाड़ ग़ज़ल कहलायेंगे ,तो मेरे गालिब अपनी कब्रों में कराहयेंगे|
अनाम बंधु!
आपकी टिप्पणी का शुक्रिया।
जीवन सीखने का हीं नाम है, इसलिए धीरे-धीरे मैं भी सीख हीं रहा हूँ। मेरी यह रचना गज़ल है या नहीं, यह तो आप सभी पाठक हीं निर्धारित करेंगे। अब आपके अनुसार मुझे गज़ल का "क ख ग घ" भी नहीं आता, तो कृप्या इस "क ख ग घ" से मुझे अवगत कराएँ, तभी तो यह नाचीज़ सीख पाएगा।
अच्छा लगता है अगर आप अपने व्यक्तित्व से मेरा परिचय करा देते, तभी तो आपके पद-चिह्नों पर चलने की मैं कोशिश करता, यह अनाम का छ्द्म भेष धरने की क्या आवश्यकता थी।
मिर्जा गालिब को इतना वक्त कहाँ, कि हरेक कथित गज़ल के शव पर वो कराहें। और अगर उन्होंने कराहना शुरू कर दिया होता, तो अब तक तो उनकी लाश भी कितनी बार मर चुकी होती।
अन्त में फिर से आपका शुक्रिया।
विनय जी, अवनीश जी!
आपकी टिप्पणियों के पश्चात मुझे भी अपने पहले शेर में कमी का अहसास हो गया है।
अगली बार से कोशिश करूँगा की ऎसी गलती न हो।
सभी मित्रों की अमूल्य टिप्पणी का शुक्रिया।
तनहा जी गजल लेखन विधि सीखने के लिए यहाँ पर पधारें
और पुरानी पोस्टों को पढें
www.subeerin.blogspot.com
वीनस केसरी
तनहा भाई इस बार मुझे भी मज़ा नही आया
no comments!
तनहा जी,
आपकी रचनाएं पहले भी पढ़ चुकी हूँ , उनके मुकाबले कुछ कम लगी .
सादर
^^पूजा अनिल
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