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Sunday, May 04, 2008

मैं और मेरा रहबर ..... एक गज़ल


अंजुमन-ए-इश्क में मेरी तकदीर नौ-आमोज,
रहबर मेरा, साकी मेरा, नज़रें न दे दिल-दोज़ ।

अदू को कू-ए-यार में मैं छोड़ आया हूँ,
अब तो सो न पाएँगे वो भी शब-औ-रोज़ |

होता दर-ब-दर वो फलक संग आफताब के,
इक नाज से नाज जो गढती है एक सोज़।

काफ़िर कमाल का वही अपने को भूल जाए,
खुद में हीं जो खुदा, क्या शिकवा कैसी खोज।

मालिक-मकान से मैं दो गज हूँ ले चुका,
जब हो खुल्द से बुलावा, हो जाऊँ जमींदोज़।

लईम हूँ, खुद को मैं जाहिर नहीं करता,
वरना भरती आहें हूरें , मेरा देखकर फरोज़।

'तन्हा' उदास है क्यूँ, जरा सबब तो बता,
है फिज़ा-ए-बू-ए-हुस्न, तू गोशानशीं हनोज़।

शब्दार्थ:
नौ-आमोज = नया , शुरूआती
दिल- दोज = दिल तोड़ने वाला
अदू ,उदू = दुश्मन
कू-ए-यार = यार की गली
नाज = नखरा, नाजनीं
सोज़= ऊर्जा , जुनून
खुल्द = स्वर्ग
जमींदोज़ = जमीन में गड़ जाना
लईम = कंजूस
फरोज़ = चमक
फिज़ा-ए-बू-ए-हुस्न = हुस्न की खुशबू से सनी फिज़ा
गोशानशीं = अकेला
हनोज़ = अब तक

-विश्व दीपक ’तन्हा’

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

विपुल का कहना है कि -

ग़ज़ल का शीर्षक पढ़ा तब थोड़ा अंदेशा हुआ और पहला शेर पढ़ते पढ़ते पूरा यकीन हो गया था की तन्हा जी ही हो सकते हैं..
पुराना अंदाज़ बरकरार रखा है बल्कि उससे भी ज़्यादा अच्छा लिखा है आपने इस बार...

Anonymous का कहना है कि -

aaha bahut khubsurat,muddat ke baad ek sundar gazal padhi,bahut badhai,khalis urdu aafarin.

pallavi trivedi का कहना है कि -

बहुत उम्दा ग़ज़ल....

Admin का कहना है कि -

आपकी तारीफ करना हमारे बस की बात नहीं... बहुत खूब लिखा है..

लेकिन शीर्षक मैं 'एक ग़ज़ल' लिखना मुझे भाया नहीं...यह तो स्वप्रदर्शित है ही..

Harihar का कहना है कि -

काफ़िर कमाल का वही अपने को भूल जाए,
खुद में हीं जो खुदा, क्या शिकवा कैसी खोज।
तन्हा जी , काफी गहराई है आपके शेर में
....

लईम हूँ, खुद को मैं जाहिर नहीं करता,
वरना भरती आहें हूरें , मेरा देखकर फरोज़।
यह चुंटिलापन बहुत भा गया

सीमा सचदेव का कहना है कि -

बहुत खूब ...सीमा सचदेव

Pooja Anil का कहना है कि -

अगली गज़ल में उर्दू के लब्ज़ न होंगे :)

-विश्व दीपक ’तन्हा’

तन्हा जी,
माफ़ कीजियेगा इस तरह से आप ही के कहे शब्दों को लिख रही हूँ , पर इसकी वजह यह है कि मैं इस बार आपकी हिन्दी ग़ज़ल का इंतज़ार कर रही थी.....???

खालिस उर्दू ज़बान में लिखी ग़ज़ल के लिये बधाई , बहुत ही सुंदर लिखा है

^^पूजा अनिल

विश्व दीपक का कहना है कि -

पूजा जी!
दर-असल अगली गज़ल मैं हिन्दी में हीं लिखने वाला था, लेकिन वक्त नहीं मिला।यह गज़ल जो मैने पोस्ट किया है, वो मैने २ साल पहले लिखा था। कल कुछ नया न होने के कारण मुझे यही पोस्ट करना पड़ा। आप सब को यह गज़ल अच्छी लगी, इसके लिए आप सबको शुक्रिया।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

रंजू भाटिया का कहना है कि -

काफ़िर कमाल का वही अपने को भूल जाए,
खुद में हीं जो खुदा, क्या शिकवा कैसी खोज।

बहुत खूब दीपक जी ..बेहद खूबसूरत गजल है

Sajeev का कहना है कि -

VD भाई आपका और आपके रहबर का प्रेम यूहीं बरकरार रहे, यही कामना है.... इससे हमारा भी कुछ भला हो जाएगा :)

Anonymous का कहना है कि -

तनहा कवी जी .....अपने इतनी मुश्किल ग़ज़ल लिख दी ...मेरे तो सब ऊपर से निकल गया है ......फ़िर भी आपको बधाई इतने सारे मुश्किल शब्द उपयोग तो किए आपने.....आपसे में भी कुछ सिख रही हूँ.......थोड़ा उर्दू :)

बधाई और प्रेम

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