आज मन कर आचमन!
खींच ला अंतड़ियों से खोखले संयम का कण-कण!!
क्षत-विक्षत!
फिर भी विनत!
कौन-सा यह धर्म है!
तुझको तनिक-भी शर्म है?
अमृत पलकों को दिखा के,
नैनों में जो नश्तर टाँके,
सोच! उसकी भावना का
मोल क्या,क्या अर्थ है?
जान ले, कुमित्रता की
मित्रता एक शर्त्त है।
सत-असत,
बस एक मत,
जो निकट पलता दंश हो,
हितकारी है - विध्वंस हो ।
मेरे मन!
दॄश्य दुश्मन वो तो अदॄश्य- शांत रहने का चलन,
खींच ला अंतड़ियों से खोखले संयम का कण-कण।
-विश्व दीपक ’तन्हा’