इंद्रधनुष के दो सिरों को खींचकर
टंकार कर दे आसमां में।
हथेली में हक को अपने भींचकर
हुंकार कर दे इस जहां में॥
रास्तों पर मंजिलों के
दर का पता तू टांक दे,
मंजिलों को अपने घर की
नींव का हीं फांक दे ।
हो गुमां पलको को जिनपे
आँख को यूँ ख्वाब दे,
लहरों से साहिल आ मिले
और पर्वत्तों को आब दे।
अपने लहू की सुर्खियों को बाँधकर
आग भर ले हर बयां में।
कायरों के नस्ल को अब लांघकर
नाग जड़ दे तू हया में ॥
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
bhut sundar. badhai ho.
तन्हा जी ,
हमेशा की तरह बहुत सुंदर रचना है . एक विनम्र विनती है , कृपया अन्तिम ४ पंक्तियों की व्याख्या कर दें. धन्यवाद .
बहुत ही सुंदर वीर रस कविता.
उत्साह भरी रचना अच्छी रचना .
सादर
रचना
बहुत जोशीली रचना!
अपने लहू की सुर्खियों को बाँधकर
आग भर ले हर बयां में।
वाह तन्हाजी ! क्या बात कही है !!
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