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Thursday, September 04, 2008

मैंने तो अपने हक की दुआएं तुझी को दीं ......


मेरे लिए नहीं हैं कही पर कोई जमीन
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमाँ कुबूल !!
जिस दिल में सुलगती हुई ज़ज्बे की राख हो
उस दिल से उठने वाला मुझे हर धुंआ कुबूल !!
आँखों से बह गया हैं जो लम्हा बिना कहे
आरिज़ पे उस सफ़र का बना जो निशाँ कुबूल !!
मैंने तो अपने हक की दुआएं तुझी को दीं
लेकिन रहा जो दरम्याँ वो फांसला कुबूल !!
मेरी कर इक उम्मीद पे तू वा-वफ़ा हैं "मन"
फिर भी मैं वे-वफ़ा हूँ..ये भी सिला कुबूल !!
फिर भी मैं वे-वफ़ा हूँ .... ये भी सिला कुबूल !!

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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

Rakesh Kaushik का कहना है कि -

bahi is ke to sash me kya kehne
bahut achche

ritusaroha का कहना है कि -

मेरे लिए नहीं हैं कही पर कोई जमीन
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमाँ कुबूल !!


bahut dino baad pad rahi hun aapko....aur vipin aap aaj bhi utna hi acha likhte hai,jaise pehle likha karte the.....

Advocate Rashmi saurana का कहना है कि -

kya baat hai. bhut sundar rachana.

दीपाली का कहना है कि -

मेरे लिए नही है कहीं पर कोई ज़मीं
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमा कुबूल!!

वाह क्या खूब लिखा है.....

Anonymous का कहना है कि -

एक एक लाइन सुंदर
सादर
रचना

Smart Indian का कहना है कि -

वर्तनी का ध्यान रखें तो खूबसूरती बढ़ जायेगी!

Harihar का कहना है कि -

मेरे लिए नहीं हैं कही पर कोई जमीन
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमाँ कुबूल !!
जिस दिल में सुलगती हुई ज़ज्बे की राख हो
उस दिल से उठने वाला मुझे हर धुंआ कुबूल !!
गजब की बात कही !

Unknown का कहना है कि -

dilsad very good

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