मेरे लिए नहीं हैं कही पर कोई जमीन
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमाँ कुबूल !!
जिस दिल में सुलगती हुई ज़ज्बे की राख हो
उस दिल से उठने वाला मुझे हर धुंआ कुबूल !!
आँखों से बह गया हैं जो लम्हा बिना कहे
आरिज़ पे उस सफ़र का बना जो निशाँ कुबूल !!
मैंने तो अपने हक की दुआएं तुझी को दीं
लेकिन रहा जो दरम्याँ वो फांसला कुबूल !!
मेरी कर इक उम्मीद पे तू वा-वफ़ा हैं "मन"
फिर भी मैं वे-वफ़ा हूँ..ये भी सिला कुबूल !!
फिर भी मैं वे-वफ़ा हूँ .... ये भी सिला कुबूल !!
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
bahi is ke to sash me kya kehne
bahut achche
मेरे लिए नहीं हैं कही पर कोई जमीन
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमाँ कुबूल !!
bahut dino baad pad rahi hun aapko....aur vipin aap aaj bhi utna hi acha likhte hai,jaise pehle likha karte the.....
kya baat hai. bhut sundar rachana.
मेरे लिए नही है कहीं पर कोई ज़मीं
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमा कुबूल!!
वाह क्या खूब लिखा है.....
एक एक लाइन सुंदर
सादर
रचना
वर्तनी का ध्यान रखें तो खूबसूरती बढ़ जायेगी!
मेरे लिए नहीं हैं कही पर कोई जमीन
तो फिर मुझे खुदा ये तेरा आसमाँ कुबूल !!
जिस दिल में सुलगती हुई ज़ज्बे की राख हो
उस दिल से उठने वाला मुझे हर धुंआ कुबूल !!
गजब की बात कही !
dilsad very good
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