तीसरे और चौथे स्थान की कविताओं के रचनाकारों के परिचय अभी प्राप्त नहीं हुए हैं। इसलिए हम सीधे पाँचवीं कविता की बात कर रहे हैं। पाँचवीं कविता के कवि दिव्य-प्रकाश दुबे हिन्द-युग्म के सक्रियतम कार्यकर्ता भी हैं। पूरा परिचय यहाँ पढ़ें।
पुरस्कृत कविता- एक छुट्टी दे मुझे जरा
सुबह होते ही बिखर जाता हूँ किरणों के माफिक
अलग अलग किरदारों में...
कदम रखता हूँ घर के बाहर और भीड़ में तब्दील हो जाता हूँ...
ऑफ़िस पहुँच कर ओढ़ता हूँ नया चेहरा
वही काम कर कर के
तारीख को आगे बढ़ने में मदद कर जाता हूँ...
दोपहर आते ही वही गलतियाँ फिर से करके
अपने आपको जाने क्या समझाता हूँ...
शाम को लौटने से पहले सबकुछ समेटना चाहता हूँ...
कुछ हो जाने की कोशिश में अपने माजी को
बाजार मे कहीं बिखरा पाता हूँ...
घर मे अपने माँ के बेटे
और अपनी बीवी की पति को जोड़ना चाहता हूँ...
शाम ढलते-ढलते अपने बच्चे के सवालों में
खुद को उलझा पाता हूँ...
खाना खाने के बाद रात को टहलता हुए
तफसील से खुद को ढूँढ़ना चाहता हूँ...
कुछ खो गया हूँ अलग-अलग किरदारों में
एक छुट्टी दे दो मुझे जरा!!
एक छुट्टी दे दो मुझे जरा!!
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ४॰५, ४॰५, ६॰८५, ७॰७५
औसत अंक- ५॰७२
स्थान- सातवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ८ ५॰७२ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰५७३३
स्थान- पाँचवाँ
पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'समर्पण' भेंट करेंगे।
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता बहुत कुछ कहती है बहुत ही सही है .अच्छे भाव है
बधाई
रचना
Bahut pyari rachana hai. Saral aur bhaavpoorna. Koi naqaab nahin aur koi uljhe huye ya kathin tark-vitark nahin.
अच्छी है! यह बेचारा, काम के बोझ का मारा!
कुछ हो जाने की कोशिश में अपने माजी को
बाजार मे कहीं बिखरा पाता हूँ...
घर मे अपने माँ के बेटे
और अपनी बीवी की पति को जोड़ना चाहता हूँ...
शाम ढलते-ढलते अपने बच्चे के सवालों में
खुद को उलझा पाता हूँ...
बहुत अच्छे दिव्य प्रकाश जी !
अच्छी है...आन्तरिक द्वंद उजागर करती हुई एक व्यक्ति की मनोदशा दर्शाती पंक्तियाँ :)
मैं यह कहुँगा कि आज के नवयुवक के हृदय के काफी करीब पहुँचती है ये कविता !
एक दौड के भागीदार बनते जा रहे हैं सभी ! उस दिन का इंतजार है सभी को जब खुशी उनके चरण स्पर्श करेगी ! जीक़वन यांत्रिक होता जा रहा है !
भावनाविहीन !!!! कवि के दिल का हाल बहुत साफ है कि हम 24 घण्टे में कितने अलग-2 अवतारों में ढलते हैं ! और एक छुट्टी का दिन कवि के बहुत से सपनों को पूरा करने के लिये काफी नजर आता है और हाय रे जीवन ,वह एक दिन की छुटी भी मिल पाना कितना कठिन है !!
अच्छी कोशिश कहुँगा मैं इसे !!
मुबारक हो दिव्य भाई...
abhivyakt kia gaya bhaav bahut saral hai par utna hi aakarshak bhi. aise kaviyon ki zaroorat hai jo ankahe bhaavon ki shabdon mein rachna karein. kuch kuch gulzar ki tarz par. saraahniya kam hai!!
दिव्या प्रकाश जी ,
अभी तो आप अध्ययनरत है आपको एस तरह का आभास कैसे हुआ ????
वैसे बिल्कुल बिल्कुल आपने उसी तरह लिखा है जैसे
रोजमर्रा के जीवन में होता है
तारीखे आगे बढ़ने वालों की संख्या अपरिमित है
ढेर सारा साधुवाद जी,
राजेश कुमार पर्वत
आप सभी का धन्यवाद ,राजेश जी मैंने कुछ दिन ऑफिस जाके काम नही करके भी देखा है,इसलिए उस प्रकार के जीवन का भी कुछ आभास है मुझे !!
सादर
दिव्य प्रकाश
दिव्या प्रकाश जी,
अगर पूछ लेता है कोई प्रश्न, आफिस से छुटटी वाले दिन कि क्या अाज तुम्हारी छुटी है मन गुस्से से भर सा जाता है कब समझ पाता है कोई कि कम से कम कुछ बोझ तो कम होता छुटटी वाले दिन
एक अच्छी और यथार्थपरक रचना जीवन दर्पण सी
बधाई
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