हर बात पर जब हो रज़ा , तो जिम्मेदारी किस लिए,
बिफरे कोई हक़ से कभी ,तो अश्क-बारी किस लिए!!
अव्वल तो अपनी दीद से, ताउम्र हीं तरसा रखा,
बिखरा जो तेरे अर्श से , अख्तर-शुमारी किस लिए ?
ज़ाहिद का जो माना नहीं, काफ़िर करार हो गया,
एक रब को तोड़ने की यह ,कुफ़्र-कारी किस लिए ?
दिल दैर-ए-इत्मीनान है, होकर दयार-ए-गैर भी!
वह माँ का कोख तो नहीं, तो आहो-ज़ारी किस लिए?
तड़ीपार ’तन्हा’ था हुआ, तू जब बोशा टांककर,
आज़ लम्स आ देखने की, ये अय्यारी किस लिए ?
शब्दार्थ:
रज़ा = हामी
अश्क-बारी = रोना
अर्श= आसमान
अख्तर-शुमारी = अनिद्रा,तारों को देखना
ज़ाहिद = उपदेश देने वाला
काफ़िर = जिसे खुदा पर विश्वास नहीं। परंतु आज के समय में हर वो इंसान जो ज़ाहिद से रज़ामंदी नहीं दिखाता, काफ़िर कहा जाता है।
कुफ़्र-कारी = अनैतिकता,खुदा में अविश्वास
दैर-ए-इत्मीनान = वह मंदिर जहाँ इत्मीनान मिलता है
दयार-ए-गैर= दूसरे का घर
आहो-ज़ारी= विलाप करना, जोर-जोर से रोना
बोशा = चुंबन
तड़ीपार होना= देश छोड़कर भाग जाना
लम्स= छुअन
अय्यारी = जासूसी
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
हर शेर लाजवाब है,बधाई
तनहा जी आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी
यूं तो सभी शेर कमाल है VD पर ये तो माशा अल्लाह गजब ही है -
ज़ाहिद का जो माना नहीं, काफ़िर करार हो गया,
एक रब को तोड़ने की यह ,कुफ़्र-कारी किस लिए ?
बहुत खूब ..... रात भर की मेहनत रंग लायी है
अव्वल तो अपनी दीद से, ताउम्र हीं तरसा रखा,
बिखरा जो तेरे अर्श से , अख्तर-शुमारी किस लिए ?
गजब कर दिया आपने तन्हा जी
हम तो घायल हो गये
भाषा बहुत क्लिष्ट है भई...बहुत शब्द सीखे मैंने :)
एक एक शे'र बहुत गहरा है। सब उतने ही पसंद आए। लिखते रहो ऐसे ही।
तन्हा जी,
अब तो आपकी ग़ज़लों का बहर भी दुरस्त होने की ओर अग्रसर है। आप तो युग्म के ऐसे कवि हैं जिसने हर जगह हाथ-पाँव मारने की तरह कलम मारी है और सफल भी हुए है। सभी शे'रों का कथ्य दमदार है।
तनहाँ जी
गज़ल तो बढ़िया है पर लगता है आप क्लिष्ट भाषा के दीवाने है। और इसी कारण आपको शब्द-अर्थ देने पड़े। भाषा यदि सहज़ हो तो प्रभावहीन नहीं हो जाती। भाषा तो मात्र शरीर है आत्मा तो भाव हैं ।
शोभा जी!
मैं क्लिष्ट भाषा का नहीं, वरन गज़लों का दीवाना हूँ। और गज़ल लिखने वक्त मैं बस यही चाहता हूँ कि अगर गज़ल उर्दू की हो तो हिन्दी के हल्के-फुल्के या फिर भारी-भरकम हीं शब्द न आएँ और अगर हिन्दी के शब्द डालने हों तो उर्दू का कोई भी लब्ज़ न हो। हो सकता है कि यह मेरी हीं सोच हो, लेकिन मुझे यह सोच अच्छी लगती है।
अगली गज़ल में उर्दू के लब्ज़ न होंगे :)
-विश्व दीपक ’तन्हा’
तनहा भाई,लाजवाब गजल,शुभकामनाएं
आलोक सिंह "साहिल"
tanha ji
bahut he aachi gazal lagi
aur urdu gyan bhi badh gya
sumit bhardwaj
अव्वल तो अपनी दीद से, ताउम्र हीं तरसा रखा,
बिखरा जो तेरे अर्श से , अख्तर-शुमारी किस लिए ?
बहुत खूब लिखे हैं सभी शेर आपने..
कुछ में एक दम नए ख्याल मिले..
बधाई..
अव्वल तो अपनी दीद से, ताउम्र हीं तरसा रखा,
बिखरा जो तेरे अर्श से , अख्तर-शुमारी किस लिए ?
ज़ाहिद का जो माना नहीं, काफ़िर करार हो गया,
एक रब को तोड़ने की यह ,कुफ़्र-कारी किस लिए ?
बेहद सुंदर गजल बेहद सुंदर भाव ..सब पसंद आए। बधाई दीपक जी
तन्हा जी, बहुत प्यारी ग़ज़ल है ... मज़ा आ गया
हर बात पर जब हो रज़ा , तो जिम्मेदारी किस लिए,
बिफरे कोई हक़ से कभी ,तो अश्क-बारी किस लिए!!
बधाई - सुरिन्दर रत्ती
तन्हा जी,
कमाल जी कमाल.. बहुत ही बढिया गजल..
एक एक शे'र, सेर-सेर भर का है..
बहुत वजन है भाई जी..
लिखते रहो.. बधाई
तन्हा जी आपने यह ग़ज़ल लिखने के लिये कितनी मेहनत की है , वो ग़ज़ल पड़ कर ही पता चलता है , अतः आपके लिये --
कभी कवि बनते देखा तुम्हे,
कभी गज़ल्गो बनकर आये ,
खुदा का करम लगता है तुमपे,
और कितने हुनर हो छिपाये?
बहुत बहुत बधाई
^^पूजा अनिल
तन्हा जी आप क्या गजल लेखन के साथ साथ उर्दू भी सीख रहे हो? कहां चल रहि है यह क्लास..?
कवि जी!!
सीखने की तमन्ना हो तो कोई कहीं भी कभी भी सीख सकता है। वैसे उर्दू की क्लास www.ebazm.com पर लगी है। वहीं से सीखता रहता हूँ :)
-विश्व दीपक ’तन्हा’
मै एक बार फिर यही कहूँगा कि,
आपका शब्द चयन लाजवाब है
हर एक शेर बहुत ही उम्दा है
मुझे बहुत ही पसंद आया|
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