इंदौर के निकट धार रोड पर स्थित कलारिया नामक ग्राम में एक वृद्धा की हत्या कर दी गयी! १७-४- ००८ के नई दुनिया के मुख्य पृष्ठ पर मैने खबर पढ़ी| विस्तार से यह कविता बताएगी!
पता था उन्हे...
चिल्ला नही सकती
एक सौ दो साल की बुधिया
आधी रात,बरामदे से,
खटिया सहित उठाया
फिर ले गये
नहर के उस पार...
सुनसान खेत में!
वाह !
चाँदी के मोटे कड़े
खरी चाँदी !
बहुत खींचे..
फिर काट डाले पैर
कम्बख़्त पैर नहीं बिकते...
कड़े बिक जाएँगे
बेरहमी से नोंचे गये
सोने के कुंडल,
कान सहित!
नाक से नथनी...
चमड़ी के साथ आई!
कलाइयाँ..
कुछ पाँच फुट
दूर पड़ी थीं सुबह
कंगन कैसे छोड़ देते वो?
माला समझदार थी...
आराम से निकल गयी
वरना गला सिलना पड़ता
जलाने के पहले!
खून बहता रहा
बहता ही रहा....
सुबह अधखुले पोपले मुँह में
लहू भरा मिला
गंगाजल की जगह!
कटे पैरों का माँस...
रात भर नोंचते रहे कीड़े!
कलाईयों में चीटियाँ लग गयीं थीं!
बेहोश हो गये लोग
उसकी लाश देखकर
उफ्फ़!
कैसे जलाया होगा उसे ?
अख़बार मे पढ़ा मैने
लगा..
जीवन की सड़क पर घूमते
सुअर हैं हम!
गंदा खाते हैं..
वही पसंद है हमे,
वही बिखरा है
हमारे चारों ओर..
भरा पड़ा है पूरी दुनिया में
हमारे दिमाग़ों में भी!
बस..
अब कोई ट्रक आएगा
कुचल देगा हमें
अंतड़ियाँ बाहर निकल आएँगी..
राम-राम कहते
बाजू से निकल जाएँगे सब!
पिचले हुए अंग...
बिखरे होंगे सड़क पर
कुछ लाल-लाल सा
चिपचिपाता रहेगा
कुछ दिनों!
कुछ और भी गाड़ियाँ
रौंदती हुई..
निकल जाएँगी !
चिलचिलाती धूप में..
रूह चिपक जाएगी
पिघले कोलतार से
चिपकी ही रहेगी...हमेशा!
हाँ.. ऐसा ही होगा...
सुअर हैं हम!
यूँ ही सड़कों पर घूमते..
बददिमाग़ और नाकारा सुअर !
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
अख़बार मे पढ़ा मैने
लगा..
जीवन की सड़क पर घूमते
सुअर हैं हम!
गंदा खाते हैं..
वही पसंद है हमे,
वही बिखरा है
हमारे चारों ओर..
विपुल इंसान के हैवानियत भरे चहरे को देखकर उबलता हुआ गुस्सा हर शब्द में झलक रहा है, पर यहाँ बुधिया शीर्षक कुछ सटीक नही लगा. ये सब एक वृधा के साथ ही नही किसी के भी साथ हो सकता है, और दुःख इस बात का है की इन सब ख़बरों को पढ़ कर अब हमारी रूह भी नही कांपती .... रोजमर्रा की बात लगती है सब, खैर तुमने अपनी बात बेहद संवेदनशील अंदाज़ में बयां की है बधाई
i dont have anything to say....
u can understand
ऐसा लगता है कि यदि .... कविता लिखते समय कोई तुम्हारे सामने आ गया होता तो शायद ज़िंदा ना होता......
इस कविता को पढ़ना विचित्र अनुभव था ......गुस्से क साथ खुशी भी मिली कि किसी को तो गुस्सा आता है..... खैर... भाव बहुत गहरे है पर गुस्से से भावातिरेक से जैसे शब्द नही फूटते उसी प्रकार व्यक्त अच्छे से नही कर पाए(शुरू कि पंक्तियाँ देखें)...
शुरू कि पंक्तियाँ ....समाचार पत्र की पंक्ति लगती है....
कविता नही गद्य अधिक...... बाकी अंतिम पंक्तियों से आप अच्छे ख़ासे हँसते व्यक्ति को गुस्सा दिला सकते है (जो मुझे भी आ रहा था)...आपकी इस उपलभ्दि के लिए साधुवाद एवं शुभकामनाएँ....
पता था उन्हें चिल्ला नही सकती ..............,शुबहा अधखुले पोपले भरे मुह मे लहू भरा मिला ,गंगाजल की जगह ........
जैसी पंक्तियाँ अत्यन्त मार्मिक हैं कविता मे कवि ने एक कर्वे सच की छवि को पाठको के आगे प्रस्तुत किया है व्यक्त करने का ढंग अच्छा लगा .शुभकामनाओं सहित
मैत्रेयी
पीयूष भाई,समाचार पत्र में ही तो पढ़ा था मैने ! आप अगर देखें तो मेरी अधिकतर कविताएँ इसी तरह की कथात्मक शैली में होती हैं|काफ़ी समय से मेहनत कर रहा हूं इस शैली पर कितु अभी तक प्रवीण नही हो पाया|वैसे इस तरह किसी कहानी या घटना को कविता में बदला जाए तो कुछ पंक्तियाँ सपाट तो रह ही जाती हैं| कम शब्दों में सारा विषय जो समेटना होता है|पहले भी शैलेशजी इस बारे में कह चुके हैं पर क्या करूँ इस तरह की कविताओं में यह कमी रह ही जाती है|
आपकी प्रशंसा के लिए धन्यवाद...!
उचित लिखा आपने.
विपुल!
घटना खुद में इतनी हृदयविदारक है कि उसके बारे में सोचना हीं आक्रोश एवं क्षोभ से भर देता है। इसलिए तुम्हारी लेखनी में गुस्से की झलक अप्रत्याशित नहीं। तुम इस बार भी अपनी बातें कहने में सफल हुए हो।
हाँ, थोड़ी गद्यात्मक है,लेकिन जब कवि खुद अपनी कमी को स्वीकारे एवं उचित प्रयास पर बल दे तो ऎसी छोटी-मोटी बातें नज़र-अंदाज खुद-ब-खुद हो जाती हैं।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
uf kaise log hote hai,chandi jaisi bejan chiz ke liye ek jaan le sakte hai,aapki kavita ka har shabd us ghatana chitra nazaron ke samane lata hai,kuch chitra man ne dekhne se bhi inkaar kar diya,jaise maas khate kide,aapka prayas prashansaniya hai,bahut badhai.jaha pathak kuch sochne pa majboor ho,kavita vahi safalta paa leti hai.
आपकी कविता किसी को भी रुला सकती है , बस इससे ज्यादा शब्द ही नही है कुछ कहने को
सच कहूँ तो तुम्हारी कविता विपुल मैंने पूरी नहीं पढ़ सकी क्योंकि थोडी पढ़ कर ही मन खराब हो गया--मुझे वक्तिगत तौर पर ऐसी कविता बहुत विचलित करती हैं-इसलिए पसंद नहीं आती-
विपुल भाई,
हृदय झकझोर देने वाली कविता है..
आपकी कविता संदेश दे रही है कि ,"अब तो जागो सोने वालों" , इतना घृणित कृत्य देख कर , सुन कर भी कोई कुछ नहीं कर सकता , ये एक लाचारी है , आपका आक्रोश स्वाभाविक है और आपने बहुत अच्छा भी लिखा है , इसी तरह लिखते रहिये .
^^पूजा अनिल
विपुल.......
बहुत खूब, दूसरो के दुःख में जो आखें रो पड़े वही सही मानवीय ह्रदय है,
भारत के वर्तमान परिवेश का वास्तविक चित्रण है ये, ये देश कि नाकारा सरकार
और कमजोर व्यवस्था पर भी तीखा व्यंग है, क्योकि ऐसे हादसे कम होने कि जगह
बड़ ही रहे है, मुझे हमेशा ही ऐसी बातें हैरत मैं डाल देती है कि जिन हादसों से हमारी
आत्मा रो देती है, रोंगटे खडे हो जाते है मानवीय दिल दहल जाते है, और कुछ लोगों
ऐसे कृत्य पूरी मानवीय जाती पर प्रश्न-चिन्ह लगा देते है, और उसके बाद भी हम खुद
को ईशवर कि श्रेष्ठ कृति कहते है...............
एक बहुत ही अदभुद रचना है आपकी, रचना क्या है पूरा करुना का सागर है, ऐसा लगता
है कि आपकी बुधिया भारत के हर गाओं व गाओं के हर घर में रहती है, मैंने आपके ब्लोग
में कुछ अन्य लोगो के भी विचार पड़े, एक कोई करुना कि सूरत ऐसी भी है जो पूरी रचना
को भी नहीं पड़ पाई, शायद वह बहुत सह्रदय व भावुक है नमन करता हूँ उन्हें.......
दूसरी तरफ ऐसे लोग जो ऐसा कुछ भी कर जाते है, आपने सही कहा ज़िन्दगी कि
सड़क पर घुमते हुये सूअर है वे लोग......... बहुत खूब............
............................................................................-नितिन शर्मा
han aur kavita me ek aur baat thi ki use padhte sath hi mere samaksh ek chitra sa khinch gaya.....yah uplabdhi adbhut hai ek kavi k liye.....
shubhkamanayen
विपुल,
बहुत अच्छा प्रयास क्या कहूँ तुम्हारी कविता ने मुझे मौन कर दिया है .घटना ही इतनी ह्रदय विदारक है,और तुमने जो लिखा वो यही साबित करता है की
"हम कौन थे? क्या हो गए?
और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिल कर ये समस्याएं सभी."
तुम्हारी कविता में मुझे जो सबसे अच्छी लगी वो थी मनुष्य की तुलना सूअर,नाकारा सूअर से.हमने अपनी सारी संवेदनाएं खो दी है.
विपुल,
जीवन को लेकर इतनी पीड़ा, घृणा और आक्रोश ठीक नहीं कि शब्दों से ही लहू टपकने लगे और काव्य अंतरआत्मा में दहशत क्रिएट कर दे. स्याह पक्ष के साथ ही हमेशा से जीवन चला आ रहा है. चाहे देवलोक का हो या मृत्युलोक का. चाहें तो भगवान राम के युग से देख लीजिए. हां, विपुल या उनकी पीड़ा से सहमत होने वालों के लिए जरूरी है कि ऐसा समाज बनाने में लगें, जो इस कदर आत्माहीन न हो. मुझे उम्मीद है विपुल यह कर रहे होंगे, उनके साथी भी यही कर रहे होंगे, और बहुत मामूली स्तर पर मैं भी यही कर रहा हूं. हाँ... एक बात और मैं विपुल की भावना पर टिप्पणी कर रहा हूं. उनकी कविता पर नहीं. वहां अभी लंबा रास्ता तय किया जाना बाकी है.
- ईशान अवस्थी
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