बंजर जमीन की
पथरीली दीवारों से
लड़ - झगड़कर निकली
एक मुलायम सी कोंपल-
विपरीत अपनी नियति के
सूखी , खामोश हवाओं की
बौखलाहट में वह धीरे धीरे
बढ़ी -
ज्यों - ज्यों वह बढ़ी
हवायें और आग उगलने लगीं
आस पास की
झाड़ियाँ और हो गयीं कँटीली
और घास- फ़ूसों की झल्लाहट
दिन - दिन बढ़ने लगी ।
काँटों ने
उसके कोमल पत्तों को
जितना चीरा, उसने
काँटों को उतना ही सहलाया -
जितना झल्लाये उसपर
घास - फ़ूस
उतना ही उसने उन्हें
धूप से बचाया ,
उसे गर्म हवाओं नें जितना झुलसाया
उतना ही वह झूमती रही ,
लेकिन धीरे धीरे
वह बढ़ती रही
अखिर में वह कोंपल एक वृक्ष बन गयी,
बच्चों ने उस पर
ढेले मारे, तो
उसने फ़ल दिये-
इस अनहोनी के कारण
पथरीली उस जमीन में
गड़े बीजों को नयी दिशा मिली
वे भी धरती से
संघर्ष करने लगे
और इसी पेड़ की छाया में
बढ़ने लगे-
वह बंजर जमीन
हरी भरी हो गयी,
उस छोटी से कोंपल नें
एक क्रांति को जन्म दे दिया था-
उस बंजर खेत में
आज एक बगीचा था,
फ़लदार वृक्षों का-
फ़िर एक दिन किसी ने
उस बाग पर
अपना हक जमाया,
वृक्ष खामोश रहे,
चारों तरफ़ लगाये
कँटीले बाड़,
और शुरु किया
फ़लों का व्यापार -
वृक्ष फ़िर भी चुप थे,
धीरे धीरे उन्हें
समय पर
फ़ल देने की आदत हो गयी
उस पहली कों पल वाले पेड़ के
चारों ओर
स्त्रियों ने रंगीन धागे बाँध दिये
और उसे टीक टाक कर
उसकी पूजा-परिक्रमा की-
किन्तु व्यापार चलता रहा ।
जब फ़ल देते देते ,
मुरादें पूरी करते करते,
थक कर,
वह गिरा
तो उसके टुकड़े कर दिये गये
और उनका सौदा हुआ,
अलग अलग भागों से
चौकी - दरवाजे बनाकर
उसका अन्तिम संस्कार हुआ।
फ़िर उसके बाद
किसी कोंपल ने
मिट्टी से भिड़ने का साहस
नहीं किया -
किसी नाजुक पत्ते नें
नहीं सहलाया काँटों को ,
और कोई पौधा
नहीं झूमा
गर्म हवा के झोंकों पर-
उस खेत में
फ़िर कभी कोई
क्रान्ति नहीं हुई
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत अच्छी रचना है.आरम्भ का संघर्श बाद में रुक क्यों जाता है.
बेहद सुंदर कविता... पर क्रांतियाँ फ़िर भी होंगी, ये सिलसिला थम नही सकता....जोशीली कोपलें नया इतिहास रचती रहेंगी....उनको क्या सिला मिलता है, उनका अंत क्या होता है, ये महत्वपूर्ण नही है, महत्वपूर्ण वो सोच है जो एक बंजर जमीं को हरा बना सकती है
बहुत अच्छे ! एक अच्छा प्रतीक लेकर अपनी बात को सुन्दरता से कह दिया |
बधाई |
-- अवनीश तिवारी
आलोक भाई!
आपकी रचना में बहुत हीं बडा संदेश छुपा है, बस जरूरत है उसे सही से समझने की।
मुझे आपकी रचना बड़ी ही प्रेरणादायक लगी। हो सकता है कि लोग कहें कि रचना अंत होते-होते निराशावादी हो गई है,लेकिन मेरे अनुसार यह प्रयोगवादी है और सच्चाई की ओर ईशारा करती है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
बेहद सुंदर ,बधाई.
आपने कविता की शुरुयात बहुत अच्छी की , कोपल का बहुत अच्छा रूपक चुना परन्तु बीच मी जाकर कविता बोझिल सी हो गई और अनावश्यक विस्तार भी लगा और अंत मी जाकर निराशा....... कुछ भी हो यह चक्र कभी थमता नही है , किसी न किसी रूप मी वह पनपता ही रहता है , भाव बहुत अच्छा था , थोडी और मेहनत करते टू रचना बहुत अच्छी होती
बहुत अच्छा संदेश आलोक जी। हिन्दयुग्म को भी इस कविता से प्रेरणा मिलेगी। कदम रूकने नहीं चाहिये।
गौरव जी,
तन्हा जी की बात से सहमत हू, एक सन्देशप्रद कविता जो किसी तरफ इंगित करती है..
बात आशावाद-निराशावाद की नही.. बात दूर्-दृष्टि की है..
आलोक जी , बहुत अच्छा लिखा है आपने , गहरे भाव छुपे हैं इस कविता में , एक प्रेरणास्पद कविता लिखने के लिये बधाई
^^पूजा अनिल
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