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गली-गली द्वार-द्वार बच्चे हैं रो रहे


आपस के प्यार स्नेह, नींद में हैं सो रहे
और हम तो संबंध, भार लिये ढो रहे
रीति ये चली है कि, प्रीति को हराना है
आपस में प्यार करो, राग यह पुराना है
भाई-भाई के बीच दीवार खिंच गई
मंथरा अब कहती है, मौसम सुहाना है
मानवता, प्रेम, भाव अर्थ आज खो रहे
और हम तो संबंध भार लिये ढो रहे
आपस के प्यार...............................

नीम की टहनियों पर पियराये पात हैं
शकुनी की अंगुली पर अनचाहे घात हैं
दुल्हन को लूट लिया दानवी दहेज ने
और हम तो हत्यारी लौटी बारात हैं
नफरत की गीता बना कर संजो रहे
और हम तो संबंध भार लिये ढो रहे
आपस के प्यार...........................

बौराया सागर है आज हर किनारे पर
फिर भी बंद सांकल है रिश्तों के द्वारे पर
पेट की ज्वाला है धधक रही और तेज
छोड़ कर गई है मां किसके सहारे पर
गली-गली द्वार-द्वार बच्चे हैं रो रहे
और हम तो संबंध भार लिये ढो रहे
आपस के प्यार.....................

कवि- मृत्युंजय साधक

खनक तो पैसे में ही होती है


यक्ष प्रश्न..............

मोची मुझे देखता है
मैं मोची को देखता हूं
मोची को मैं जूता नजर आता हूँ
मोची मुझे बुलाता नहीं है
मैं भी उसके पास जाता कहाँ हूँ
जूते मुझे लेकर स्वयं उसके पास जाते हैं
मैं उससे बातें करता हूँ
लेकिन कहाँ कर पाता हूँ उससे बात
मेरे पास दो-चार सिक्के हैं
जिन्हें मोची ताड़ जाता है
कहता है इतने में ही हो जायेगा काम
गंठ जायेगा जूता श्रीमान
महिने के आखिरी दिनों में
दो-चार सिक्के भी जेब से निकल जायेंगे
सोचकर उदास हूँ
लेकिन मोची की कातर दृष्टि
मुझे भेद जाती है
दोनों एक-दूसरे को देखते हैं
घुल-मिल जाते हैं एक दूसरे के चेहरे
न मैं मना कर पाता हूँ
न ही मुझसे जूता ले पाता है
अजीब कशमकश.....
स्थिर मूर्तियाँ फिर प्राणवान
वो खींच लेता है मेरा जूता
मैं भी कुछ बोल नहीं पाता
क्योंकि मैं अब अपने नहीं
उसके वश में हूँ
जूता तैयार होने के बाद
मेरे आगे बढ़ाता है वो मेरा जूता
उन जूतों को देखकर
मैं अपने पैर बढ़ाता हूँ
लेकिन यह क्या पैर ठिठक जाते हैं
चिंतन की धारा चल पड़ती है
मैं प्राणवान से फिर मूर्तिमान...
बाजार के कोलाहल से टूटती है तन्द्रा
मैं जूते पहन लेता हूँ
मोची मेरी इस विवशता को
नजदीकी से महसूस करता है
पर बोल कुछ नहीं पाता
भीड़ में आते- जाते चेहरे
मुझे और उस मोची को देखकर
कई रंगों में बदलते हैं
पर मेरा और उस मोची का रंग
या तो बदलता नहीं
या बदलता भी है तो जूते के रंग में ही
यह कौन सी विवशता है मेरी और जूते वाले की
अद्भुत सा लगता है सब कुछ
मैं जूते में घिसटकर
आगे बढ़ता जाता हूँ
मोची की आँख मुझे दूर तक करती है पीछा
मैं भी तो उसी को देखता रहता हूँ
मेरी यादों में बसा है उसका वही गोल चेहरा
जो मेरी विवशता भाँप जाता है
फिर क्या विवशता के कोई रंग होते हैं
होते होंगे
....
लेकिन खनक तो पैसे में ही होती है

कवि- मृत्युंजय साधक

तुम्हारे प्यार की खुशबू


हम हर माह के तीन सोमवारों को उस माह के यूनिकवि की रचनाएँ प्रकाशित करते रहे हैं। उसी परम्परा मे प्रस्तुत है हमारे मई माह के यूनिकवि मृत्युंजय ’साधक’ का यह मधुर गीत, जो प्रेम-गीतों की वासंती-बगिया के एक मनोहर पुष्प सी मोहकता लिये है।



तुम्हारे प्यार की खुशबू, जेहन में तैरती मेरे;
सुबह हो शाम हो दिन हो, सदा रहती मुझे घेरे॥

तुम्हारी याद में खोया रहा मैं, क्यों यहाँ अक्सर
मिले जो खत मुझे तुमसे, निकलता हूँ उन्हें पढ़कर
तुम्हारी राह तकता हूँ, मुझे भी तक रही है वह
बनाऊँ किस तरह उन पर, तुम्हारे ख्वाब के डेरे
तुम्हारे प्यार की खुशबू, जेहन में तैरती मेरे...॥

बहुत बेचैन होता हूँ, अगर तुमको ना देखूँ तो
ये फूलों का मुकद्दर है, तुम्हारे पास फेंकूँ तो
उमंगों की कली, खिलकर मचलती है यहां अक्सर
तुम्हारे बिन सबेरे भी सताते हैं नजर फेरे
तुम्हारे प्यार की खुशबू, जेहन में तैरती मेरे ..॥

तुम्हें अब हो गई फुरसत, ह्रदय में छा रहे हो तुम
हिमालय से बही गंगा, बहाये जा रहे हो तुम
चलो अब सीपियाँ ढूढ़ें, चलो मोती कहीं चुन लें
तुम्हारे साथ चलकर हम, उतर जायें कहीं गहरे
तुम्हारे प्यार की खुशबू, जेहन में तैरती मेरे...॥


मई माह की यूनिप्रतियोगिता के परिणाम


कविता अपने समय से संवाद करने की महत्वपूर्ण कड़ी है, तो उसे आइना दिखाने और उसकी विद्रूपताओं को उजागर करने का माध्यम भी। हिंद-युग्म यूनिप्रतियोगिता के द्वारा समकालीन कविता मे हमारे समय के पदचाप खोजने का प्रयास करता है। इस बार हिंद-युग्म मई माह की यूनिप्रतियोगिता के परिणाम ले कर उपस्थित है। पिछले 41 महीनों से अनवरत जारी अंतर्जाल की इस कविता-यात्रा को पाठकों और प्रतिभागियों का अटूट स्नेह प्राप्त हुआ है। मई माह की प्रतियोगिता भी इसका कोई अपवाद नही है। हमें कुल मिला कर 67 प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं, जिनको प्रथम चरण मे तीन व द्वितीय चरण मे भी तीन निर्णायकों ने आँक कर अंक दिये। दोनो चरणों के निर्णायकों के द्वारा दिये गये औसत अंकों के आधार पर मई माह की प्रतियोगिता मे मृत्युंजय ’साधक’ की कविता को यूनिकविता चुना गया है।


यूनिकवि- मृत्युंजय साधक

मई माह के यूनिकवि मृत्युंजय साधक पिछले कुछ माह से हिंद-युग्म से जुड़े हैं, और इनकी कविताएं यूनिप्रतियोगिता के शीर्ष 10 में अपना स्थान बना चुकी हैं। इनकी पिछली कविता मार्च माह मे तीसरे स्थान पर रही थी। 3 मई 1976 में जन्मे मृत्युंजय साधक प्रसिद्ध भोजपुरी टीवी-चैनल 'हमार टीवी' में बतौर सहायक-निर्माता (असिस्टेंट प्रोड्यूसर) काम कर रहे हैं। पत्रकारिता (हिंदी) मे एम. ए. कर चुके मृत्युंजय को सरस्वती साहित्य वाटिका, खजनी, गोरखपुर द्वारा सरस्वती प्रतिभा सम्मान से सम्मानित किया गया था तथा इनकी की कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रही हैं। इन्होंने आकाशवाणी-दूरदर्शन पर अपनी कविताओं का पाठ भी किया है।
पता- मृत्युंजय कुमार श्रीवास्तव ’साधक’
न्यूज सेक्शन ’हमार टीवी’
 ए-30, सेक्टर-4, नोएडा (उ. प्र.)
फोन संपर्क- 9711995584

यूनिकविता- विदाई

चौड़ी पगडंडी,
दोनो ओर जुते हुए खेत
झक सफेद
बूढ़ी चौधराईन काकी के बाल की तरह
बीच-बीच में
मैकू की बैलगाड़ी की छाप
दोपहर की तेज धूप,
सनसनाती हवा
और
रिक्शे पर बुझारत की विदा होती बेटी
गांव के पश्चिमी सन्नाटे को भेदती
उसकी आवाज,
हो जाते पके आम भी खट्टे
और झिनकू लुहार रख देता घन
सभी के हैं भरे नयन
टूसी की गाय रंभाती,
काफी देर से बछड़ा छुटा
भागा है पगहा,
कोई नहीं पकड़ता है उसे,
शामिल हैं सब बेटी की विदाई में
(देकर उसके आंचल में कुएं की दूब, हल्दी और अक्षत)
जो जा रही है खूँटे सहित
तुड़ाया नहीं उसने खूँटा
ना ही किसी को सींग दी.......
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पुरस्कार और सम्मान-   विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता तथा हिन्द-युग्म की ओर से प्रशस्ति-पत्र। प्रशस्ति-पत्र वार्षिक समारोह में प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति मे प्रदान किया जायेगा। समयांतर में कविता प्रकाशित होने की सम्भावना।

इनके अतिरिक्त हम जिन अन्य 9 कवियों को समयांतर पत्रिका की वार्षिक सदस्यता देंगे तथा उनकी कविता यहाँ प्रकाशित की जायेगी उनके क्रमशः नाम हैं-

स्वप्निल तिवारी ’आतिश’
हरदीप राणा ’कुँअर जी’
वसीम अकरम
राजेंद्र स्वर्णकार
प्रदीप शुक्ल दीप
देवेश पांडे
सुरेंद्र अग्निहोत्री
अवनीश सिंह चौहान
एम वर्मा

हम शीर्ष 10 के अतिरिक्त भी बहुत सी उल्लेखनीय कविताओं का प्रकाशन करते हैं। इस बार हम निम्नलिखित 8 अन्य कवियों की कविताएँ भी एक-एक करके प्रकाशित करेंगे-

रितु सरोहा
मुकुल उपाध्याय
मनसा आनंद ’मानस’
लवली गोस्वामी
दीपाली ’आब’
हरकीरत कल्सी ’हकीर’
आशीष पंत
उम्मेद सिंह वैद


उपर्युक्त सभी कवियों से अनुरोध है कि कृपया वे अपनी रचनाएँ 4 जुलाई 2010 तक अन्यत्र न तो प्रकाशित करें और न ही करवायें।

हिन्द-युग्म दिसम्बर 2010 में वार्षिकोत्सव का आयोजन करेगा, जिसमें वर्ष भर के 12 यूनिकवियों के साथ-साथ 4 पाठकों को भी सम्मानित किया जायेगा। पाठकों के टिप्पणियों के अनियमित क्रम को देखते हुए हम सभी पाठकों से अनुरोध करेंगे कि वे हिन्द-युग्म पर प्रकाशित सभी रचनाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी करें और वार्षिक यूनिपाठक सम्मान के हकदार बनें।

हम उन कवियों का भी धन्यवाद करना चाहेंगे, जिन्होंने इस प्रतियोगिता में भाग लेकर इसे सफल बनाया। और यह गुजारिश भी करेंगे कि परिणामों को सकारात्मक लेते हुए प्रतियोगिता में बारम्बार भाग लें। इस बार शीर्ष 18 कविताओं के बाद की कविताओं का कोई क्रम नहीं बनाया गया है, इसलिए निम्नलिखित नाम कविताओं के प्राप्त होने से क्रम से सुनियोजित किये गये हैं।

डॉ महेंद्र प्रताप पांडेय ’नंद’
अशोक शर्मा
रितु वार्ष्णेय
शिव नंद द्विवेदी
पवन शर्मा समीर
अरुण राय
पारुल माहेश्वरी
अलका मेहता
वेदना उपाध्याय
अरविंद कुरील सागर
ओम राज पांडेय ओमी
शील निगम
उमेश्वर दत्त मिश्र निशीथ
जोमयिर जिनि
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
खन्ना मुजफ़्फ़रनगरी
शिखा गुप्ता
बैजनाथ
कैलाश जोशी
सुधीर गुप्ता
नीलेश माथुर
संगीता सेठी
अनिल चड्ढा
रवीश रंजन
कामना राय
प्रदीप वर्मा
सुमन मीत
राजेश कश्यप
आँच ’आतिश’
रंजना डीन
हीरा लाल
संदेश दीक्षित
शारदा अरोरा
कविता रावत
गोपाल दत्त देवतल्ला
सुप्रेम द्विवेदी
नीरा त्यागी
भावना सक्सेना
अनामिका घटक
आलोक गौर
सीत मिश्र
राजलक्ष्मी शर्मा
मंजू महिमा भटनागर
श्याम गुप्ता
पीयूष दीप
के के यादव
आलोक उपाध्याय
ज्योत्सना पांडेय
स्नेह पीयूष





माँ और बेटा


युवा कवि मृत्युंजय साधक की दो कविताएँ हिन्द-युग्म पर प्रकाशित हो चुकी हैं। आज हम इनकी तीसरी कविता प्रकाशित करने जा रहे हैं, जिसने मार्च माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में तीसरा स्थान बनाया है।

पुरस्कृत कविताः स्नेह

घर
बहुत दिन बाद आया बेटा
माँ
उसे सीने से लगा लेती है
पूछती है
कैसे रहे?
कोई
तकलीफ तो नहीं?
बेटा
नहीं कह कर
माँ
के आँचल में छुप जाता है
ठीक
वैसे ही जब बचपन में
माँ
की डाँट से बचने के लिए
छुपा करता था....
माँ
की ममतामयी आँचल
आज
भींग गई है आँसुओं से
आँचल
में छुपा बेटा
रोक
नहीं पाता अपने को
और
बह पड़ती है
गंगा-जमुनी धारा
नेत्र
के दोनों कूलों से
एक
दूसरे का कर रहे
जलाभिषेक
आँसुओं से.......
कोई एक
दूसरे को
छोड़ना
नहीं चाहता
बहुत
दिनों का दर्द
आज
सामूहिक हो गया है
कौन
हटाये उन्हें कैसे हटें वे
दोनो
की आँखें लाल
पर
आँसू रुकना ही नहीं चाहते
उन्हे
तो बहुत दिनों के बाद
स्नेह
का स्वाद मिला है
बेटा
झट माँ के चरण छूता है
माँ
उसके माथे को चूमती है...
बेटे
के माथे पर कटे निशान को
याद
कर फिर रो लेती है...
जब
उसके बेटे को लगी थी
कैंची साइकिल चलाते समय गिरकर चोट
बेटा
माँ की फटी साड़ी से
झाँकते
बालों को छिपाता है...
पर
अपने आँसू नहीं छिपा पाता
दोनों
की यादें आज हरी हो गई हैं
पा
रहीं हैं पानी दोनों के आँसुओं का
अब
कौन किससे कहे
कौन
किसकी सुने
दोनों
मौन ...नि:शब्द...
बेटे
को अभी माँ के लिए
लाई
साड़ी निकालनी है
तो
माँ को बेटे के लिए
बूढ़ी
आँखों से बुने ऊनी दास्ताने....
बेटे
को अभी पूछना है
नंदिनी
गाय ने अबकी बाछा दी या बाछी
संवरु
कुत्ता कहाँ ....?
आज
चौराहे पर नहीं मिला .....
माँ
को भी बताना है
मंगरु
के बेटी लाली का गौना हो गया
और
वो चली गई
और
पड़ोस के राय साहब आये थे
कुंडली, फोटो दे गये हैं...................


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

माँ उपमा नहीं होती


मृत्युंजय साधक की एक कविता प्रतियोगिता के माध्यम से प्रकाशित हो चुकी हैं। आज हम इनकी जो कविता प्रकाशित कर रहे हैं, उसने जनवरी 2010 माह की प्रतियोगिता में छठवाँ स्थान बनाया है।

पुरस्कृत कविता: मां उपमा नहीं होती

माँ हिमालय से भी ऊंची होती है
लेकिन
पाषाण की तरह कठोर नहीं
सागर से भी गहरी होती है मां
लेकिन
सागर जैसी खारी नहीं
भगवान को भी जन्म देती है माँ
लेकिन
भगवान की तरह दुर्लभ नहीं होती
माँ तो वायु से भी ज्यादे गतिशील है
पर
अदृश्य बिल्कुल नहीं
दिखती रहती है हरदम
हम सब के बीमार होने पर
गुमसुम
बैठी सिरहाने
माथे पर हाथ फेरते.....
लम्बी उम्र की कामना करते ....
यह शाश्वत सत्य है...
मां उपमा नहीं हो सकती
क्योंकि
कोई नहीं है
मां के समान
किससे करें हम उपमा उसकी............
मां...
मां ...होती है
सिर्फ मां ....
मां उपमा नहीं होती


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

बिटिया की आंखो में हरदम एक उदासी रहती है


प्रतियोगिता की 8वीं कविता का रचनाकार भी कविता जगत की नई सम्भावना है। 3 मई 1976 में जन्मे मृत्युंजय साधक प्रसिद्ध भोजपुरी टीवी-चैनल 'हमार टीवी' में बतौर सहायक-निर्माता (असिस्टेंट प्रोड्यूसर) काम कर रहे हैं। सरस्वती साहित्य वाटिका, खजनी, गोरखपुर द्वारा सरस्वती प्रतिभा सम्मान से सम्मानित कवि साधक की कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इन्होंने आकाशवाणी-दूरदर्शन पर अपनी कविताओं का पाठ भी किया है।

पुरस्कृत कविता- गुल्लक क्या फूटी

सपनों की क्या बात करें, जब सारे सपने झूठे हैं
अपनों की क्या बात करें, जब सारे अपने रुठे हैं।
तुमने भी तो दर्द को मेरे अपना दर्द बनाया है
मुझसे तो पूछा होता, वो खट्टे हैं या मीठे हैं।
मां की आखों में हर बच्चा सूरज भी है चंदा भी
भले वो दुनिया के नजरों में काले और कलूटे हैं।
बिटिया की आंखो में हरदम एक उदासी रहती है
पैसों की खातिर कितने ही रिश्ते उसके टूटे हैं।
मदिरालय ने मां की चूड़ी, कंगन भी हैं पी डाले
गुल्लक क्या फूटी, गुल्लक के साथ भाग्य भी फूटे हैं
प्रेम के रस में ऐसी ताकत कैसे साधक बतलाऊँ
शबरी से कब कहा राम ने बेर सभी ये जूठे हैं।


प्रथम चरण मिला स्थान- तीसरा


द्वितीय चरण मिला स्थान- आठवाँ


पुरस्कार और सम्मान- मुहम्मद अहसन की ओर से इनके कविता-संग्रह 'नीम का पेड़' की एक प्रति।