मृत्युंजय साधक की एक कविता प्रतियोगिता के माध्यम से प्रकाशित हो चुकी हैं। आज हम इनकी जो कविता प्रकाशित कर रहे हैं, उसने जनवरी 2010 माह की प्रतियोगिता में छठवाँ स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता: मां उपमा नहीं होती
माँ हिमालय से भी ऊंची होती है
लेकिन
पाषाण की तरह कठोर नहीं
सागर से भी गहरी होती है मां
लेकिन
सागर जैसी खारी नहीं
भगवान को भी जन्म देती है माँ
लेकिन
भगवान की तरह दुर्लभ नहीं होती
माँ तो वायु से भी ज्यादे गतिशील है
पर
अदृश्य बिल्कुल नहीं
दिखती रहती है हरदम
हम सब के बीमार होने पर
गुमसुम
बैठी सिरहाने
माथे पर हाथ फेरते.....
लम्बी उम्र की कामना करते ....
यह शाश्वत सत्य है...
मां उपमा नहीं हो सकती
क्योंकि
कोई नहीं है
मां के समान
किससे करें हम उपमा उसकी............
मां...
मां ...होती है
सिर्फ मां ....
मां उपमा नहीं होती
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुन्दर कविता !
मां...
मां ...होती है
सिर्फ मां ....
मां उपमा नहीं होती
बिल्कुल सच कहा आपने..........मा कि कोइ तुलना नहि हे ,यह एक शब्द अपने आप मे परिपुर्ण हे
माँ जैसी कोई नही...एक ऐसा नाम जो भगवान से भी कहीं उँचा है....सुंदर अभिव्यक्ति...धन्यवाद
ati uttam bahut hi sunder rachna hai sach main man ki tulna yogay koi nahi man to sirf man hai bahut sunder badhai
amita
बढिया लिखते हो,बधाई,आभार!
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