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जहां मैं गूंजता हूं



दीवारें हैं..

खामोशी हैं...

सन्नाटा है....

...और कुछ साए

एक समन्दर-सा है, वक़्त का

मैं तैरता हूं

घर है मेरा

जहां मैं गूंजता हूं

 
मेरी ही आंखें

दीवारों पर उभर आती हैं

घूरती हैं

 
मेरा ही अक्स

हर कहीं उभर आता है

 
मैं गुज़रता हुआ

मैं ठहरा हुआ

दीवारों की चंद गलियों में

मैं डोलता हुआ

 
घर है मेरा

जहां मैं गूंजता हूं....

सपने उम्मीद से ...


मौसम बदल रहा है
कहीं बादल फट रहे हैं
कहीं ज़मीं खिसक रही है
कहीं जलजला...तो कहीं सैलाब
परिंदे तक परेशां हैं...
कुछ पता लगा..
धरती उम्मीद से है..

संगम में अखाड़ों ने स्नान किया
घाट पर साधुओं का जमघट रहा
बाद में कुछ बात हुई... क्या बात हुई
साधुओं के बीच घमासान हुई
ख़बर का पता नहीं
पर हां धर्म अब उम्मीद से है...

नमाज़ियों ने वजु किया
जूहर का नमाज़ पढ़ा
मस्ज़िद में गहमा-गहमी रही
मुद्दा उठा... कुछ बात हुई...
सुना इबादती आपस में ही भिड़ गए
ख़ून-ख़राबा हुआ...
अब मज़हब भी उम्मीद से है...

मुज़फ्फ़रनगर में पैदा हुए
एक वैज्ञानिक पिता की किशोरवय बेटी
सूक्ष्मदर्शी से आंखें लगाए
घर में ही बने प्रयोगशाला में बैठी हुई है
थोड़ी देर में शायद उसने कुछ देखा
और चिल्लाई – पापा अमीबा फैल रहा है... शायद उम्मीद से है...

दो सपने आपसे में ही भिड़ गए
एक ने ख़ंज़र उठाया दूसरे को लहू-लुहान कर दिया
देखते-ही-देखते सपनों की भीड़ जमा हो गई
सब ने उसे तड़प-तड़प कर मरता हुआ देखा
फिर क्या था...
दंगा होना ही था
सपना देखने वाला शख्स हड़बड़ा कर उठ बैठा
पेशानी से गिरते हुए पसीने को पोंछते हुए
मुस्कुराने लगा
क्योंकि उसे लगने लगा है कि
उसके सपने उम्मीद से हैं...

जायज़ या नाजायज़
हालात, वक़्त की पैदाइश है
नया वक़्त, पुराने वक़्त के साथ
दांव-पेंच के खेल सीख रहा है
सीखने के इस खेल में 
कोई जीत रहा है, कोई हार रहा है
लड़ने वालों को
हमेशा की तरह सिफ़र ही हाथ लगे
फिर भी गुत्थम-गुत्थी नहीं रूकी
वक़्त के दोनों पहलू
आपस में ही उलझे पड़े हैं

क्या वक़्त उम्मीद से है ????




ग़लत है न?


अच्छी हो या बुरी?
सही हो या ग़लत?
ज़िन्दगी कैसी भी हो?
हिसाब ग़लत है
दो अधूरे इंसान मिलकर
एक मुक़्क़मल इंसान नहीं बनते
दो अधूरे रास्ते जुड़कर
किसी मंज़िल से नहीं मिलते
ये हिसाब ज़िन्दगी का है
और यहां नियम अलग हैं
एक बार बढ़कर कोई घट नहीं सकता
लेकिन वो बड़ा हो जाए
ऐसा भी ज़रूरी नहीं
यहां एक, एक के बराबर नहीं
यहां एक, एक से जुदा है
जैसे आंकड़े
आईने में अपनी सूरत देखने पर
उलट जाते हैं
ख़ुद ही की नज़र में
और ख़ुद ही हंसते हैं
एक-दूसरे पर
कभी दो संख्याएं ऐसे मिलीं कि अनन्त हो गईं
और कभी ऐसे कि सिफ़र
ये ज़िन्दगी का हिसाब है
और ये हिसाब ग़लत है...ग़लत
डर है इम्तिहान से
क्योंकि नतीज़ा क्या होगा
सबको पता है...
क्योंकि हारते हुए भी
कोई हारना नहीं चाहता

ग़लत है न?

लिखना बाकी है


शब्दों के नर्तन से शापित
अंतर्मन शिथिलाया
लिखने को तो बहुत लिखा
पर कुछ लिखना बाकी है

रुग्ण बाग में पंछी घायल
रक्त वमन जब बहता
विभत्स में शृंगार रसों की
लुकाछिपी खेलाई
विद्रोही दिल रोता रहता
दर्द बहुत ही सहता
फिर भी लफ्जों को निचोड़ कर
बदबू ही फैलाई
खाद समझ नाले से मैंने
कीचड़ तो बिखराया
किन्तु हाय! गन्ध फूलों की
बिखराना बाकी है।

साफ करूंगा वस्त्र भाव के
बचपन में कुछ सोंचा
किन्तु आज तक मैले कपड़े
धूल हटा ना पाया
दुर्गंध भरे, बिखरे बालों
को कितना भी नोचा
निर्मल करे सुभाये ऐसा
कुछ भी लिख ना पाया
ज्योत जलाने चला भले ही
अंधकार में डूबा
अब तक घने तिमिर की परतें
खुल जाना बाकी है।

कागद ने खुश होकर नभ के
रहस्य खूब उभारे
स्याही में डूबा तो, अचरज
पंछी खुद को पाया
ले आई आकाश में कलम
दुबका डर के मारे
उड़ ना पाया मुक्त हवा में
गड्ढे में घुस आया
बहुत किया डबरे में छपछप
थक कर यों पछताया
सागर से उठती लहरों को
छू लेना बाकी है

-हरिहर झा

एक रोआई वाला सपना


आज मरने के अट्ठारह साल बाद

बाबा, भईया को सपना दिखाए हैं

कि नहीं मिल रहा आजकल उनको

टाईम से खाना पानी.



उस सपने को 1 साल हो गया है

तब से माँ, जग जाती है रोज सबेरे

बिना नागा

चढ़ाती है बाबा की फोटो पर फूल

बना के पहली रोटी

रख देती है, तुलसी के चौरा पर

चिरई कऊआ के खाने के लिए

बाबूजी गाँव के पच्छिम वाले पीपल पर फिर से कलसा टांग आए हैं.....



बचपन में इतिहास वाले गुरूजी बताते थे

कि एक राजा के चार बेटे थे

एक बेटे ने राजा बनने के लिए

सब भाईयों को मार डाला

राजा को कैद कर लिया

राजा पानी बिना मर गया....

उस दिन कहानी सुन कर बड़ी रोआई बरी थी।



किरिन फूट गई है

माँ धर आई है तुलसी चौरा पर रोटी

बाबूजी कलसे में पानी भर आए हैं

बाबूजी खाने बैठे हैं

भईया पानी दे रहे हैं


का जाने काहे

आज सबेरे ही सबेरे, बहुत रोआई बर रही है।



देखूं जो तुमको भांग  पीके
अबीर गुलाल लगें सब फ़ीके












मोतियाबिन्दी नयनो  में काजल
्नित करता मुझको है पागल










अदन्त मुंह और हंसी तुम्हारी 
इसमे दिखता ब्रह्माण्ड है प्यारी












तेरा मेरी प्यार है जारी
 जलती हमसे दुनिया सारी




क्या समझें ये दुध-मुहें बच्चे
कैसे होते प्रेमी सच्चे







दिखे न आंख को कान सुने ना
हाथ उठे ना पांव चले ना





पर मन तुझ तक दौड़ा जाए
ईलू-इलू का राग सुनाए


हंसते क्यों हैं पोता-पोती
क्या बुढापे में न मुहब्ब्त होती




सुनलो तुम भी मेरे प्यारे
कहते थे इक चच्चा हमारे


कौन कहता है बुढापे में मुहब्ब्त का सिलसिला नहीं होता
आम भी तब तक मीठा नहीं होता जब तक पिलपिला नहीं होता







होली में तो गजल-हज्ल सब चलती है
                                                      
जलने दो गर दुनिया जलती है
ही तो होली की मस्ती है 


रेवड़ की नदी


रेवड़ की नदी ,
सतत प्रवाही शाश्वत .
पंहुंच वाले बांस,
गड़रियों के हाथ.
रेवड़ में छिपे कुत्ते,
संचालक के साथ .
हरी घास पर नदी ,
झील सी बिछा दी जाती .
जाओ -
हरी घास चरों,
उन उगाओ,
मेमनें जनो.
हमारे लिए-
भरदों अपने थन दूध से.
जिव्हा लपलपाते
नुकीले दांत चमकाते कुत्ते
नदी को हद में रखते
हांकते, हुडकते,पुचकारते गडरिये
ऊन उतारते,
दूध दुहते.
....
कुत्ते बदलते,
गडरिये बदलते पर,
न बदलती नदी की किस्मत .
रेवड़ की नदी
सतत प्रवाही शाश्वत .
**
-विनय के जोशी

उफ! ये सोच


सोचते-सोचते


दिमाग की नसें फूल गई हैं


ये भूल गई हैं सोना


साथ ही भूल गई हैं


सोते हुए इस आदमी को


सपने दिखाना


रात-दिन बस एक काम


सोचना...सोचना...सोचना


विचार की सूखी-बंज़र धरती को


खोदकर पानी निकालने की कोशिश में


पता है


हर रोज़ तारीख़ें ही नहीं बदल रही


बहुत कुछ बदल रहा है....



कुछ पहचान वालों की


उधार बढ़ती जा रही है


और उधार देनेवालों की फेहरिस्त भी


कुछ पहचानवालों की


बेचैनी बढ़ गई है...


वो अनजान बन जाने के लिए


बेचैन हो उठे हैं....


और दिमाग है


कि कमबख़्त सोचता जा रहा है...



पेट की आग कुरेदती है...


तो भूख सोचती है..


पहचानवालों की उधार से


ये आग बुझ जाती है


तो फिर दिन सोचता है...


रात सोचती है


प्राइवेट नौकरी की मार सोचती है


बॉस की फटकार सोचती है..


बेगार सोचता है


फटी जेब का फटेहाल सोचता है



एक आम आदमी का दिमाग


इक्कसवीं सदीं में


बा-ख़ुदा !!!


क्या-क्या जंजाल सोचता है???



सुलझता फितूर


आसमां का बरसना अभी बाक़ी है...
ज़मीं का उगना बाक़ी है...
बाक़ी है कहानी में कहानी की कहानी...
बात की बात करनी बाक़ी है...
क्या-क्या गुज़र चुका है अब तलक़....
क़तार में खड़ा बाक़ी अभी बाक़ी है...
वक़्त के कठघरे में वक़्त की पेशी बाक़ी है ...
और ख़त्म होने से पहले
अंजाम भी अपना अंजाम देखना चाहता है...
ये ख्वाहिशों की ख्वाहिशें कभी पूरी हो सकेंगी...
या रह जाएगी बाक़ी दास्तां हर कहानी की...
(मेरे उलझे दिमाग का सुलझता फितूर)

दुनिया बदल रही है....


खुद से टकराया
गिरा
और मर गया
मौत अजीब थी
लेकिन
आगे की दास्तां और भी अजीब थी
अपनी ही लाश के पास बैठा
वो शख़्स देर तक
फूट-फूटकर रोता रहा...रोता रहा
और जब थक गया
तो
उसका जनाज़ा सजाने लगा
फिर कब्र खोदी
और ख़ुद की लाश को
दफ़न कर दिया
आंखों में सूनापन लिए
भटक रहा है
इसी शहर में
कभी-कभी शहर का शोर
उसके जेहन तक उतरता हो शायद
और धीरे-धीरे
उसकी आंखों से निकला सूनापन
शहर में फैलता जा रहा है
नतीज़ा किसको पता है?
हां कुछ लोग
ज़रूर ख़ुद से टकरा रहे हैं
हां कुछ वैसे ही मरे जा रहे हैं
और अपने कंधों पर
अपनी लाशों को उठाए
शहरवालों की तादाद
गुजरते दिन के साथ
बढ़ती जा रही है
धीरे-धीरे
सूनापन
बढ़ता जा रहा है
जेहन में....शहर में... हर कहीं
कहते हैं...
दुनिया बदल रही है......

उपेक्षा


जागी उकताई रात ने
पैदा किया एक और
आवारा सूरज
भौर से संध्या तक
भटकता - झुलसता रहा ,
कोण बदल बदल कर,
देखता रहा धरा को,
शायद कही ....
छाँव मिल जाय
प्यार मिल जाय
पनाह मिल जाय
प्यार-छांह-पनाह तो दूर
किसी ने एक दृष्टि ना दी आभार में,
हर कोई उपभोग करता रहा
रोशनी का
पर किसी ने झाँका तक नहीं
सूरज क़ी ओर,
उपेक्षा क़ी आग लिए सीने में
जलाता रहा दिन भर,
जब घिन्न आने लगी
थोथे स्वार्थी संबंधों पर
डूब मरा समंदर में जाकर कही
और रात ..........
फिर से गर्भवती हो गई
*
विनय के.जोशी

दोहा सलिला : दोहों की दीपावली: --संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला :
दोहों की दीपावली: 
--संजीव 'सलिल'

दोहों की दीपावली, रमा भाव-रस खान.
श्री गणेश के बिम्ब को, अलंकार अनुमान..

दीप सदृश जलते रहें, करें तिमिर का पान.
सुख समृद्धि यश पा बनें, आप चन्द्र-दिनमान..

अँधियारे का पान कर करे उजाला दान.
माटी का दीपक 'सलिल', सर्वाधिक गुणवान..

मन का दीपक लो जला, तन की बाती डाल.
इच्छाओं का घृत जले, मन नाचे दे ताल..

दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, ईश्वर सबका एक..

बुझ जाती बाती 'सलिल', मिट जाता है दीप.
यही सूर्य का वंशधर, प्रभु के रहे समीप..

दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, लेकिन एक विवेक..

दीपक बाती ज्योति को, सदा संग रख नाथ!
रहें हाथ जिस पथिक के, होगा वही सनाथ..

मृण्मय दीपक ने दिया, सारा जग उजियार.
तभी रहा जब परस्पर, आपस में सहकार..

राजमहल को रौशनी, दे कुटिया का दीप.
जैसे मोती भेंट दे, खुद मिट नन्हीं सीप..

दीप ब्रम्ह है, दीप हरी, दीप काल सच मान.
सत-शिव-सुन्दर है यही, सत-चित-आनंद गान..

मिले दीप से दीप तो, बने रात भी प्रात.
मिला हाथ से हाथ लो, दो शह भूलो मात..

ढली सांझ तो निशा को, दीप हुआ उपहार.
अँधियारे के द्वार पर, जगमग बन्दनवार..

रहा रमा में मन रमा, किसको याद गणेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलाये दिनेश..

लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार.
तनिक न सोचा मिट सके, मन की कभी दरार..

सरहद पर रौशन किये, शत चराग दे जान.
लक्ष्मी नहीं शहीद का, कर दीपक गुणगान..

दीवाली का दीप हर, जगमग करे प्रकाश.
दे संतोष समृद्धि सुख, अब मन का आकाश..

कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
आशा-श्वासा बहन हैं, या आपस में सौत?.

पर उन्नति लख जल मरी, आप ईर्ष्या-डाह.
पर उन्नति हित जल मरी, बाती पाई वाह..

तूफानों से लड़-जला, अमर हो गया दीप.
तूफानों में पल जिया, मोती पाले सीप..

तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..

जीते की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
जलते दीपक को नमन, बुझते से जग दूर..

मातु-पिता दोनों गए, भू को तज सुरधाम.
स्मृति-दीपक बालकर, करता 'सलिल' प्रणाम..

जननि-जनक की याद है, जीवन का पाथेय.
दीप-ज्योति में बस हुए, जीवन-ज्योति विधेय..

नन्हें दीपक की लगन, तूफां को दे मात.
तिमिर रात का मिटाकर, 'सलिल' उगा दे प्रात..

दीप-ज्योति तन-मन 'सलिल', आत्मा दिव्य प्रकाश.
तेल कामना को जला, तू छू ले आकाश..


***********************

कौन बनेगा करोड़पति ?





करोड़पति के सेट पर, हो गया आज बवाल ।
कंप्यूटर स्क्रीन पर, आया गज़ब सवाल ॥
आया गज़ब सवाल जीतकर,फास्टेस्ट फिंगर फस्ट ।
हॉट सीट पर आ गए, नेता जी एक भ्रस्ट ॥
पहला प्रश्न जिताएगा, रुपये पाँच हजार ।
देश में भ्रस्टाचार का , कौन है जिम्मेदार ? ॥
सही जवाब बतलाइए , ऑप्शन ये रहे चार ।
ए) जनता बी) मंत्री सी) नेता डी) सरकार ॥
हम ही नेता, हम ही मंत्री, हमरी ही सरकार ।
जो जनता को लौक किया, चुनाव जाएँगे हार ॥
मंत्री जी पड़ गए सोच में, मदद करे अब कौन।
बोले - विपक्ष के अध्यक्ष को लगाया जाये फोन ॥
तीस सेकंड में हो गई, नोट वोट की डील ।
कुइट किया नेता जी बोले एक्चुली व्हाट आई फील ॥
बिना जवाब के अरबों बनते अपनी वोट - सीट पर।
क्या रखा है "राघव " छोड़ो ऐसी हॉट-सीट पर ॥
झूठे वादे, झूठी क़समें, झूठे दिखा कर सपने ।
वहाँ जनता के वोटिंग पेड्स पर सारे ऑप्शन अपने ॥
कभी कभी बस भाषण बाज़ी, करके तेवर तीखे ।
हो गया आज बवाल, सेट पर करोड़पति के ॥
हो गया आज बवाल, सेट पर करोड़पति के ॥
हो गया आज बवाल, सेट पर करोड़पति के ॥

इनार का विवाह


प्रमोद की कविताओं में लोकजीवन का हर रंग देखने को मिलता है। प्रमोद हमारी लोक परम्पराओं को जिस दृष्टिकोण और देशजता से चित्रित करते हैं, वह आज के युवा कवियों में ढूँढ़ पाना दुर्लभ ही है। जब वह गाँव और ग्राम्य-जीवन के बारे में लिख रहे होते हैं तो वह एक दार्शनिक होते हैं।

इनार का विवाह

ढोलकी की थाप और गीतों की धुन पर
झूमती-गाती चली जा रही थीं औरतें
इनार की ओर
कि बस गंगा माँ पैठ जाएँ इनार में
जैसे समा गई थीं जटा के भीतर

धूम-धाम से हो रहा था विवाह
कि भूल कर भी नहीं पीना चाहिए
कुँआर इनार का पानी

विवाह से पहले
नये लकड़ी के बने ‘कलभुत’* को
विधिवत लगाई गई हल्दी
पहनाया गया चकचक कोरा धोती,
और पल भर के लिए भी नहीं रुके गीत

गीत! विवाह के गीत
मटकोड़वा के गीत
चउकापुराई के गीत
गंगा माई के गीत

चली जा रही थी बारात
पर एक भी मर्द नहीं था बराती
जल-जीवन बचाने की जंग का
ये पूरा मोरचा टिका था
सिर्फ जननी के कंधों पर
कि पाताल फोड़, बस चली आएँ भगीरथी
जैसे उतर आती हैं कोख में

लकड़ी का ‘दुल्हा’ गोदी उठाए
आगे-आगे चली जा रही थीं श्यामल बुआ
मन ही मन कुछ बुदबुदाती
मानो जोड़ रही हों
दुनिया की सभी जलधाराओं का
आपस में नाभि-नाल।
चिर पुरातन चिर नवीन प्रकृति माँ से
मांगा जा रहा था वरदान
इनार की जनन शक्ति का

आदिम गीतों के अटूट स्वरों में
पूरे मन से हो रही थी प्रार्थना
कि कभी न चूके इनार का स्रोत
कभी न सूखे हमारे कंठ
हमेशा गीली रहे गौरैया की चोंच
माँ हरदम रहें मौजूद
आँखों की कोर से ईख की पोर तक में

दोनो हाथ जोड़े माताएँ टेर रहीं थीं गंगा माँ को
उनकी गीतों की गूँज टकरा रही थी
तमाम ग्रह-नक्षत्रों पर एक बूँद की तलाश में
जीवन खपा देने वाले वैज्ञानिकों की प्यास से
गीतों की गूँज दम देती थी
सहारा के रेगिस्तान में ओस चाटते बच्चों को।
गूंज भरोसा दे रही थी
तीसरे विश्वयुद्ध से सहमे नागरिकों को।
गीत पैठती जा रही थी
दुनिया भर की गगरियों और मटकों में
जो टिके थे
औरतों के माथे और कमर पर

गीतों के सामने टिकने की
भरपूर कोशिश कर रही थी प्यास
पर अपनी बेटियों के दर्द में बंधी
गंगा माँ
हमारे तमाम गुनाहों को माफ करती
धीरे-धीरे समाती जा रही थीं
ईनार में।

*लकड़ी से बना इनार का दुल्हा


-प्रमोद कुमार तिवारी (9868097199)

दोस्ती का पैगाम


दोस्त तुम यादों में हो, वादों में हो, संवादों में हो
गीतों में हो, ग़ज़लों में हो, ख़्वाबों में हो
चुप्पी में हो, खामोशी में हो, तन्हाई में हो
महफिल में हो, कहकहो में हो और बेवफाई में भी हो
तुम उन चिट्ठियों में हो जो तुम्हें दे न सका
तुम उस टीस में भी हो जो तुम देते रहे
और मैं उस मीठे दर्द को अल्फाजों में बदलता रहा
तुम उस खुशी में भी हो जो तुमने मुझे अनजाने में दी
...इतना कुछ होने के बाद तुम अगर मुझसे रूठ भी जाओ
तो अलग कैसे हो पावोगे?
नाराज होकर फेसबुक से अन्फ्रेंड कर दोगे
डायरी से फाड़ दोगे, ग्रीटिंग्स कार्ड जला दोगे
लेकिन मेरी यादें?
जानते हो...
यादें और चुप्पियाँ एक-दूसरे की डायरेक्टली प्रपोशनल होती हैं
चुप्पियाँ, यादों के समन्दर में डूबोती चली जाती हैं
कहते हैं... खामोशी और बोलती है... प्रतिध्वनि भी करती है
पगला देती है आदमी को
इसलिए शब्दों का और आँसुओं का बाहर निकलना बहुत जरूरी है
मैं बाहर निकल आया हूँ, तुम भी बाहर आ जाओ
अपने ईगो के खोल से
मैं भी सॉरी बोलता हूँ, तुम भी बोलो
...बोलो, तुम्हारा भी कद ऊँचा हो जाएगा
अब छोड़ो भी इन बातों को, गलती किसी की भी हो
पर हत्या तो दोस्ती की हुई न?
...और हमारी दोस्ती इतने कमजोर धागों से नहीं बँधी है
कि एवीं टूट जाय
न दोस्ती को एवीं टूटने देंगे... न जिन्दगी को
क्योंकि दोनों अनमोल हैं।

कवि- मनोज भावुक

नई उपमा


उसकी आँखे
कि बारिश में
भीगी कोई लड़की
बार-बार
बदन को छूते कपड़े
छुड़ाए

उसकी बातें
कि माँ सामने बैठा कर
खाना खिलाए
और रोटी पलटना ही भूल जाए


उसका रूठना
कि मुँह फुलाए बच्चे के गाल पर
काटे चिकोटी,माथा चूमें और मुस्कुरा दे


उसका मनाना
कि कोई हो इतना मजबूर
कि न होंठ हँसे खुल के न आँखों में आँसू आए


उसका चलना
कि उफने कोई बरसाती नदी
और अचानक मुड़ जाए


उसका होना
कि होना हो सब कुछ का


उसका न होना
कि ........

कवि- मनीष वंदेमातरम्

तुम, मैं और तितली


आया था मैं जगाने तुम्हें
सुबह-सुबह
दिखाने तुम्हें
ढलती रात
निकलता दिन
पर मैंने देखा
एक तितली बैठी है
तुम्हारी आँखों पर
होंठों पर
भीनी-भीनी मुस्कान है तुम्हारे
जैसे बुना हो कोई स्वेटर
और पूछ रही हो मुझसे
बताओ तो कैसा है?
मैं चाहता था रंग भरना
फिर से, तितली में
तुम्हारे साथ
तुम मेरी बातों का
गीलापन भरती
और मैं तुम्हारी आँखों का काजल
पर अचानक उड़ गयी वो तितली
तुम्हारी आँखों से
तुमने स्वेटर उधेड़ दिया था शायद
कुछ घर ज्यादे बुन गये होंगे तुमसे।

कवि- मनीष वंदेमातरम्

औरत


चिंताओं को गुट्टक की तरह फेंक
बिटिया के साथ
इक्खट-दुक्खट खेलती है
अपनी इच्छाओं को
रोटियों में बेल
घर मे परोसती है स्वाद
पति, बेटे के बीच
मतभेदों को
कभी आँचल मे बाँधती
कभी धागे-धागे सुलझाती है
अपने मान को बुझा
गिलाफ मे कढ़ा फूल बन
सेज महकाती है
रिश्ते की ओढ़नी
पर, टाँकती है त्याग का गोटा
रात जब बुनती है
सभी की आँखों में सपने
उसके अंदर की
मासूम गुड़िया जागती है
उसको, उसके होने का
अहसास दिलाती है
औरत को मिलजाती है ऊर्जा
वो शुरू करती है
नया दिन
और
फिर होती है तैयार
अपने अलावा सभी के लिए जीने को।

कवयित्री- रचना श्रीवास्तव

जागो!


सुनो ना...
सिर्फ सुनो
सबकी कहानी
सच-सपने-हक़ीक़त
सब बयां करेंगे

देखो ना...
सुकून मिलेगा
सब मुन्तज़िर हैं
नज़र-नज़ारे-शहर
सब गुमां करेंगे

कहो ना...
कुछ कहो
सब सुनेंगे
हवा-मंज़र-तन्हाई
सब बातें करेंगे

छू लो...
थामने को
सब आगे बढ़ेंगे
चाहत-ख़्वाब-साथ
सब अपना लेंगे

चलो ना...
क़दम-दो-क़दम
सब चल पड़ेंगे
रास्ता-सफ़र-मंज़िल
सब संग होंगे

महसूस करो...
हर पल, हर घड़ी
सब पा जाओगे
जज़्बात-यकीन-हौसला
सब तुम्हें जिएंगे !!!

लउर


जिक्र करूँ मैं अब यदि
लउर का आपसे
यदि नहीं हुए भोजपुर-वासी या भाषी
तो हकबकाकर पूछेंगे आप
का मतलब
मराठी-भाषी होंगे तो पूछेंगे
लउर बोलते तो?
लउर का अर्थ
गजब है
डंडा, गोजी या लाठी
कुछ भी बताना
उतना ही गलत
जितना साँढ़ को बताया बैल
सिर्फ संस्कृतियाँ जानती हैं
साँढ़ और बैल का अन्तर
ओ शहरी बाबू
प्रभु वर्ग का यही अज्ञान
सारी समस्याओं का सृजेता है
शुरू होती है सरहद अज्ञान की
गाँव-गँवई की देहाती सुगन्ध से
स्थिति-परिस्थिति, आशा-निराशा
जरूरतें, परेशानियाँ, जोश-हताशा
नाक की ऊँचाई
यहीं निर्मित होती है
घटी तो शर्मसार
वरना हिम्मतवान
अपनी सम्पूर्णता में
सभ्य कानों तक
पहुँचेगी सीमा पार
अभिजात, नगरीय-बोध में ऐंठे
ऊँचे-ऊँचे आसनों पर बैठे
अमर-बेल की जड़ों तक पैठे
बुद्धिजीवियों को
समझाने की
लउर से
पता नहीं
ये समस्या केवल मेरी है
या सबकी है
मेरी दिक्कत
असमर्थकता या अल्पज्ञता होती
नहीं कर रहा होता
बर्बाद आपका वक्त
आज ये दिक्कत
सबकी है सब ओर फैली है
नहीं, नहीं श्रीमान
हिकारत से हाथ हिलाते हुए
मेरी बात टालने से पहले
जरा ठहरिए
मेरे पास प्रमाण हैं
जी, हाँ
गांधी से प्रेमचन्द तक के सारे प्रयास
विफल रहे हैं
सहानुभूतिपूर्ण संवाद से इस दूरी को
मिटाने में
असफल रहे है सारे महापुरुष
राजनीति से लेकर समाज-शास्त्र तक के महापंडित
शहरी और देहाती समझ के बीच फैली
इस खाई को पाटने में
सारे बड़े-बड़े दावे
चाहे वो धोती वाले के हों, लुंगी वाले के हों
या पगड़ी वालों के हों
वहाँ उस तपती रेत में निष्प्राण पड़े हैं
जी, श्रीमान
ठीक वहीं, जहाँ पड़े हैं निष्प्राण शरीर किसानों के
उन लाखों-लाख ग्रामवासियों के
जो मजबूर थे
मौत को माँ की गोद समझ
सो जाने के लिए
क्षमा करें श्रीमान
मैं भी कहाँ-कहाँ भटक जाता हूँ
बेकार की बातों में अटक जाता हूँ
लउर के अफसाने में व्यवस्था का जिक्र
जब कि कुछ लेना-देना नहीं है
लउर को आत्म-हत्या से
लउर से सम्बन्धित मुहावरे हैं-
लउर ना अउर चले,
चल मियाँ जगदीशपुर।
तो गीत भी हैं-
धुरिया चटावे जाने, पीठ न देखावे जाने
डीठ ना लगावे जाने, आने के बहुरिया।
आन पर लड़ावे जाने, जान के ना जान जाने
चले के उतान जाने, तान के लउरिया।
परन्तु लउर का
ठीक-ठीक अर्थ जानने के लिए
आवश्यक है आप जानें
लउर के निर्माण की प्रक्रिया
सबसे पहले तो खोजनी होती है
बँसवाड़ी
जो न एकदम नई हो, न बहुत पुरानी
फिर मुट्ठी-भर के समान अन्तर पर ठोस गाँठों वाला
एक सीधा हरौती बाँस
न कच्चा हरा, न पका पीला
न बहुत लचीला, न बहुत हठीला
यानी पकड़े रहना है
बीच का रास्ता
देखो यह दिलचस्प प्रक्रिया
होती है बँसववाड़ियाँ
विषधर नागों का प्रिय स्थान
हिकमत, चौकन्नापन और फुर्ती हो
तभी आप तलाश सकते हैं
और काटकर ला सकते हैं
मनचाहा हरौती बाँस
यानी समझदार और साहसी की ही
सम्पत्ति हो सकती है लउर
नहीं है आसान
मनचाहे बाँस को
लउर में बदलना
कोई ब्रांड प्रोडक्ट तो है नहीं
बन्दूक, तमंचे, पाउडर या क्रीम जैसा
भिन्न होती है प्रत्येक लउर
दूसरे किसी भी लउर से
ठीक वैसे ही जैसे होते हैं भिन्न चेहरे
लउर रखने वालों के
पहली बात लम्बाई की
आपके लउर की लम्बाई होनी चाहिए
आपकी लम्बाई से बित्ता भर ज्यादा
ताकि बनी रहे आपकी पहुँच दूर तक
और चलाने में भी रहे आसानी
फिर आग में तपा कर बाँस को सीधा करना
तकरीबन उतना ही श्रम-साध्य
उतनी ही कुशलता आवश्यक
जितनी सोने को तपा शुद्ध करने में
अब तो आप समझ गए होंगे
क्यों होती है लउर इतनी कीमती
अपने स्वामी के लिए
इतना सब निबटाने के बाद
शुरू होता है लउर को
तेल पिलाने का काम
जब फुर्सत मिली लउर को निकाल
उस पर सरसो का तेल चुपड़ना
करना इंतजार
जब तक सोख न ले तेल पूरी तरह
और फिर खोंस देना लउर को चुहानी के छप्पर में
ताकि चूल्हे का धुँआ लगते-लगते
उसका रंग हो जाए गहरा कत्थई
चलती है एक लम्बे समय तक लगातार यह क्रिया
तब होता है तैयार लोहे-सा लउर
बम की तरह कारगार वह दिखने वाला
पर डरावना कभी मत पड़िए बहकावों में
इस्पात कंपनियों के दावों में
लउर लोहा ही है
असली भारतीय लोहा
अन्तिम शृंगार के लिए
दोनों छोरों पर आप
पसंद अनुसार
लगावा सकते हैं लोह-बंद
पीतल या लोहे का
ताकि लउर की ठनक
पड़े हमेशा भारी
सिक्कों की खनक पर
तो तैयार होते हैं ऐसे लउर
और फिर जब
थामे अपनी लउर होकर उतान
निकलते हैं, गाँव देहात से मर्दे हिन्दोस्तान
होती है अलग ही उनकी आन-बान शान
खेत-खलिहान, घर-दुआर
गाय-बैल जैसा ही लउर
एक सुरक्षित प्रमाण
जुड़ जाता है पोशाक की तरह
ग्रामीण की सम्पत्ति में
अविभाज्य
पढ़ रहा हूँ
चेहरे पर आए
मनोभाव आपके
किसी भी दमदार डंडे, लाठी या गोजी को
नहीं कर सकते लउर
लउर को समझिए
लउर है प्रतीक
आन-बान शान का
हमले का हथियार नहीं
सम्बल शक्ति है
लउन ढाल है
किसी भी आपदा-विपदा के विरुद्ध
सम्राट के हथ में उठा
राजदंड
आज भी दिलाता है भरोसा
न्याय का, अनुशासन का
सन्नद्ध हाथों में उठा हुआ लउर
‘प्रजादंड’
दया का, सुरक्षा का और समृद्धि का
किसी ग्रामीण के हाथ
लउर का आना
विरथ रघुवीरा के लिए
जेहि जय होई सो
स्यंदन आना
लोगों की मजबूत पकड़ में बँधी
यह महान अहिंसक शक्ति
बन जाती है सुरक्षा कवच
ताकतवर माकूल
प्रायोजित हमलों के विरुद्ध
आपको मसझाने के चक्कर में
लउर पर कविता लिख
मोल ले रहा हूँ मैं
बहुत बड़ा खतरा
बन्दूक या तमंचे की तरह
लगा लाइसेन्स
लोगों के हाथ में लउर
और सामने मेरी कविता
एक हिदायतनामें की तरह
भविष्य का शांति-कपोत होगा
समझते थे बापू
लउर को
प्रतीकात्मक रूप में
लाठी बन रहा उनके हाथों में
सदा बना रहा प्रहरी
हाँ प्रहरी भी तो है
लउर
खेत-खलिहान का
परिवार, परिजनों के कल्याण का
आत्म-सम्मान का
उतरता है बाढ़ का पानी
गंगा के दियर में
तो मिट चुकी होती है
खेतों की विभाजक आड़-डंरेड़
कठिन हो जाता है
पहचानना अपनी-अपनी जमीन
कहावत है कि
लउर से ही जाती है खीची
आड़-डंरेड़
जी हाँ
खेतों के सीमान्त
निर्धारित होते हैं तब लउर से
समझदारी
शांति, मैत्री, सद्भाव
सम्मानजनक समझौतों के लिए
भी
आवश्यक है
लउर
एक लउर सदा रखी रहनी चाहिए
सौंदर्य वृद्धि के लिए
अपने विदेश मंत्री के दफ्तर में भी
मत भूलिए
सशक्त हाथों में
दृढ़ता से पकड़ी गई लउर की
अहिंसक मुद्रा ही थी
जिससे घबड़ा
भागे थे अंग्रेज
जन-मानस में रचा-बसा
लउर
सम्राट अशोक के ऐतिहासिक लाट की तरह
पूजा लउर-बाबा के नाम से
ग्रामीणों द्वारा बिहार में
पूजा स्थल
बेतियों के पास लउरिया में
मैं
कायम हूँ अपनी बात पर
नहीं होता कोई संबंध
लउर का आत्महत्या से
पर लउर का आत्महत्या से
पर लउर का होकर रहेगा संबंध
उन हाथों से
जो करते हैं विवश किसानों को
आत्म-हत्या के लिए
श्रीमान शहरी बाबू
लाख चिल्लाने पर भी
आप समझ गए होंगे
या
मैं समझाता रहूँगा
तब तक
जब तक आती रहेंगी खबरें
किसानों के खुदकुशी की
मैं तो लउर की बात
लिख रहा हूँ
हाथों में कलम लिए
आ जाएँगे लाखों-लाख
हाथों में लउर
लिखे को क्रिया में बदलने के लिए
भस्मासुरी-उदारता जैसी
उदार आर्थिक नीतियाँ
और विश्व बाजार के लिए नये नक्श
पलट देंगे वे नक्शे
तब खोजते रहेंगे आप
सुरक्षा-तंत्र
आज भी खड़ा है
प्रहरी लउर
किसान
न बदले जा सकेंगे वे
मजदूरों में
कितनी भी कोशिश करें
सेठ और बहुदेशीय कंपनियाँ
अपने अटूट मनोबल
असीम मनोबल
असीम शक्ति के साथ
लउर पकड़ने वाले हाथ
बेताब है
अपनी अहिंसक मुद्रा में आने को
महाने अशोक की लाट में बदल जाने को
‘प्रजादंड’ बन जाने को।

कवि- उपेन्द्र कुमार