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उपेक्षा


जागी उकताई रात ने
पैदा किया एक और
आवारा सूरज
भौर से संध्या तक
भटकता - झुलसता रहा ,
कोण बदल बदल कर,
देखता रहा धरा को,
शायद कही ....
छाँव मिल जाय
प्यार मिल जाय
पनाह मिल जाय
प्यार-छांह-पनाह तो दूर
किसी ने एक दृष्टि ना दी आभार में,
हर कोई उपभोग करता रहा
रोशनी का
पर किसी ने झाँका तक नहीं
सूरज क़ी ओर,
उपेक्षा क़ी आग लिए सीने में
जलाता रहा दिन भर,
जब घिन्न आने लगी
थोथे स्वार्थी संबंधों पर
डूब मरा समंदर में जाकर कही
और रात ..........
फिर से गर्भवती हो गई
*
विनय के.जोशी