सोचते-सोचते…
दिमाग की नसें फूल गई हैं
ये भूल गई हैं सोना
साथ ही भूल गई हैं
सोते हुए ‘इस आदमी’ को
सपने दिखाना
रात-दिन बस एक काम
सोचना...सोचना...सोचना
विचार की सूखी-बंज़र धरती को
खोदकर पानी निकालने की कोशिश में
पता है…
हर रोज़ तारीख़ें ही नहीं बदल रही
बहुत कुछ बदल रहा है....
कुछ पहचान वालों की
उधार बढ़ती जा रही है
और उधार देनेवालों की फेहरिस्त भी
कुछ पहचानवालों की
बेचैनी बढ़ गई है...
वो अनजान बन जाने के लिए
बेचैन हो उठे हैं....
और दिमाग है
कि कमबख़्त सोचता जा रहा है...
पेट की आग कुरेदती है...
तो भूख सोचती है..
पहचानवालों की उधार से
ये आग बुझ जाती है
तो फिर दिन सोचता है...
रात सोचती है
प्राइवेट नौकरी की मार सोचती है
बॉस की फटकार सोचती है..
बेगार सोचता है…
फटी जेब का फटेहाल सोचता है
एक आम आदमी का दिमाग
इक्कसवीं सदीं में …
बा-ख़ुदा !!!
क्या-क्या जंजाल सोचता है???
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
38 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरी आँखों के सभी ख्वाब प्यासे है अभी,
प्यार की कोई घटा घिर के आएगी कभी,
इन्तिज़ार और सही…
पास रहकर भी कोई दिल से क्यूँ दूर लगे,
मैं भी मजबूर सा हूँ,
वो मजबूर लगे,
अपना गम कहना सकू मेरी उलझन है यही,
इन्तिज़ार और सही…
ये उदासी ये थकन,
बंद कमरे की घुटन,
दिल में क्या होने लगा दर्द है या की चुभन,
आज भी मुझसे कहे आग सिने में दफ़न
इन्तिज़ार और सही…
For more hindi Gazal access
Sahitya Sangrah
बढ़िया कविता है। सिर्फ अंत में 21 वीं सदी के आगे 'भी' शब्द खल रहा है।
देवेन्द्र सर, वो 'भी' मुझे भी खल रहा था...दरअसल छलने की कोशिश की थी मैंने...लेकिन अब आपके कहने पर हटा दिया
आपने प्राईवेट नौकरीपेशा नवयुवकोँ के विषय मेँ लिखा यह मुझे अच्छा लगा।
nav varsh ho ya purana dimaag to humesha sochta hai...bahut achcha likha hai gahri soch.
nav varsh ho ya purana dimaag to humesha sochta hai...bahut achcha likha hai gahri soch.
विचार की सूखी-बंज़र धरती को
खोदकर पानी निकालने की कोशिश में
पता है…
हर रोज़ तारीख़ें ही नहीं बदल रही
बहुत कुछ बदल रहा है....
Vah Neeraj ji kya khoob likha hai ....badhai
बहुत ही कर्णप्रिय कविता लिखी है आपने सर जी.......
बधाई.......
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पास रहकर भी कोई दिल से क्यूँ दूर लगे,
मैं भी मजबूर सा हूँ,
वो मजबूर लगे,
अपना गम कहना सकू मेरी उलझन है यही,
इन्तिज़ार और सही…
sundar rachana.
vikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....
mujhe to bas vo andaaz nazar aa raha hai jo aapne likha hai .jiska har akxhar sach ka pratibimb hai.
bahut hikammal ka likha hai aapne
badhai----
poonam
रात-दिन बस एक काम
सोचना...सोचना...सोचना.sahi bat .achchi prastuti.
behatareen prstuti ...abhar.
sundar gahree soch....aapne bhee khub sochaa :))
आज की जिंदगी का सटीक चित्रण किया है बहुत बढ़िया .....
ओढ कर चादर दुखो की
चिंताओं के बोझ की
चल रहा है आदमी
और अंतस में सुलगती
दंभ की इस आग में
जल रहा आदमीं
आप की सोच बेहतरीन है!...इसे आपने सुन्दर शब्दों में ढाला है!...
bahut sundar bhaav aur utne hi sundar shbdon me dhana aap ne rachna ko bdhaai....
गौ वंश रक्षा मंच ,सब गौ प्रेमियों को सादर आमंत्रित करता है के अपने विचार /सुझाव/लेख/ कविताये मंच पर रक्खें ,मंच के सदस्य बने ,और मंच के लेखको में अपना नाम जोड़ कर मंच को गरिमा प्रदान करें ....गौ हम सब की माँ है , माँ के लिए एक जुट होना हमारा फ़र्ज़ है.....
http://gauvanshrakshamanch.blogspot.com/
yadi aap manch se judna chaahe to apni anumti is pate par bheje....
raadheji@gmail.com shukriya
kya baat hai .........bahut gahri abhivykti..
इक्कसवीं सदीं में …
बा-ख़ुदा !!!
क्या-क्या जंजाल सोचता है???
EXCELLENT LINES.
ADBHUT ABHIWYAKTI.PRANAM
बहुत बढ़िया कविता है .
अति सुंदर.....
ये सोच ही हैं,
जिसने जिंदगी को जीना सिखाया हैं ,
चाँद पे भी घर बनाने का सपना दिखाया हैं ,
फिर कैसे हम शिकवा करे इस से
इसी ने जिंदगी को जिंदगी बनाया हैं II
प्रिय अभिषेक जी,
सोचने की इस प्रोसेस में सभि हिस्सों को कव्हर किया है आपने, बहुत अच्छा लगा आदमी को उसके होने के कुसूर की सजा के हर पहलु से रु-ब-रु कराति उई रचना अच्छी लगी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
सभी को धन्यवाद!!!!
पेट की आग कुरेदती है...
तो भूख सोचती है..
पहचानवालों की उधार से
ये आग बुझ जाती है
तो फिर दिन सोचता है...
रात सोचती है
प्राइवेट नौकरी की मार सोचती है
बॉस की फटकार सोचती है..
kamal ki soch hai bahut sunder bhavon se bhari kavita
badhai
rachana
बहुत खूब सुन्दर शब्द चित्र आज की अभाव ग्रस्त ज़िन्दगी का .
ati sundar..
loved it..awssm
bahut achha likha hai
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