आलोक उपाध्याय 'नज़र' विगत् 6 महीनों से यूनिकवि प्रतियोगिता का हिस्सा बन रहे हैं और अपनी कविताओं के लिए सराहे भी जा रहे हैं। सितम्बर माह में भी इन्होंने प्रतियोगिता में भाग लिया। जहाँ इनकी कविता ने पाँचवाँ स्थान बनाया।
पुरस्कृत कविता
नज़र की अन्य कविताएँ
रातों को जागते नज़र आते होआसमां ताकते नज़र आते हो
क्या बात है आखिर इन दिनों?
हर घड़ी भागते नज़र आते हो
माँ नाराज़ चल रही है क्या?
खुद जूते बाँधते नज़र आते हो
कहाँ गए बापू के फौलादी कंधे?
हर बोझ लादते नज़र आते हो
उड़ गए न सारे छींक के जलवे?
घंटों अकेले खांसते नज़र आते हो
लगता है अब नसें दुखने लगी है
दर्द-ए-हयात दाबते नज़र आते हो
"खिलौनों की सारी दुकानें बंद थीं"
रोज़ बच्चे को टालते नज़र आते हो
कल तो पर्दानशीं थे फिर क्यूँ भला
हर गली हर रास्ते नज़र आते हो
अब क्यों नहीं है "नज़र" में अदब
रंजिशें दिल में पालते नज़र आते हो
पुरस्कार- डॉ॰ श्याम सखा की ओर सेरु 200 मूल्य की पुस्तकें।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
खूबसूरत कविता..ज़िमेदारियों का एहसास कराती बढ़िया कवियत..बधाई आलोक जी
jawab nahin aapka Aalok Bhai
आलोक जी सुंदर रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई!
आलोक जी सुंदर कविता के लिए बधाई.
अब क्यों नहीं है "नज़र" में अदब
रंजिशें दिल में पालते नज़र आते हो....
बहुत खूब
बहुत खूब! इस ग़ज़ल में बहुत गहरे स्तर पर एक बहुत ही छुपी हुई करुणा और गम्भीरता है।
कल तो पर्दानशीं थे फिर क्यूँ भला
हर गली हर रास्ते नज़र आते हो
अब क्यों नहीं है "नज़र" में अदब
रंजिशें दिल में पालते नज़र आते हो
aalok mein baat ko nayee tarah se kahne ka hunar hai.wo jod todh ya
jugad ker ke kavi nahi bane hai.unme nagarsik pratibha hai.
yeh baat is gajal se itni pata nahi chalti jinti unki baahke rachnaayo se.
bahayee
aap sabhi logo ka tahe dil se shukriya
नज़र जी माफ़ी चाहूँगा की मुझे ग़ज़ल में कुछ भी बढ़िया नहीं लगा. खास तौर पर मतला तो बिलकुल भी नहीं. बिलकुल कच्ची ग़ज़ल. लगी सिर्फ काफिया और रदीफ़ नज़र आई.
Maa naraz chal rahi hai kya joote bandhte nazar aate ho....
Alok bhai ye kamal ki line likhi hai,
I really apreciate with my bottom of heart...
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