उत्तराखंड के अपराध अनुसंधान विभाग (क्राइम ब्रांच) के हल्द्वानी खंड में पुलिस उपाधीक्षक तरव अमित एक संवेदनशील व्यक्ति हैं। स्थितियों-परिस्थितियों की साफ-समझ रखते हैं। हिन्द-युग्म हिन्दी-भाषा के लिए काम करने वाले उत्साही जनों का एक समूह है। सितम्बर 2009 की यूनिकवि प्रतियोगिता की चौथी कविता एक तरह से हिन्द-युग्म के कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करती है और हिन्दी भाषा के समक्ष जो परेशानियाँ मुँह बाये खड़ी हैं, उनका सही विश्लेषण भी करती है। हिन्द-युग्म के पहले यूनिकवि आलोक शंकर की कविता 'हिन्द-युग्म' के साथ-साथ हम इस गीत को भी अपनी साहित्य-निधि का हिस्सा बनाना चाहते हैं।
पुरस्कृत कविता
हिंदी वही नहीं है
हिंदी वहीं नहीं है
हिंदी को जा के ढूंढ़ो
हिंदी कहीं नहीं है!
कुछ फूल रही है हिंदी
कुछ भूल रही है हिंदी
शब्दों की उलझनो में
यूँ झूल रही है हिंदी!
पगली हुई है हिंदी
पिछली हुई है हिंदी
गैरत पसंदों की भी
मितली हुई है हिंदी!
थी रक्तोनस में हिंदी
भावों-बहस में हिंदी
हिंदी हुई बहस में
हिंदी दिवस में हिंदी!
हिंदी तो बेरहम है
बुढ़िया है बेकरम है
पोते को बोलने में
आती बड़ी शरम है!
बासी हुई है हिंदी
त्रासी हुई है हिंदी
अनगढ़ गुफा शिला है
तराशी नहीं है हिंदी!
छूटेगी इस विविर में
उठते हुए शिविर में
फिर दर्द बन बहेगी
मुख, दिलमें सिर में हिंदी!
मुँह में पड़ी है हिंदी
दुबकी खड़ी है हिंदी
कल आप हम कहेंगे
बस चू पड़ी है हिंदी!
हिंदी पे बात करना
हिंदी में बात करना
है प्रश्न ये नहीं की
हिंदी की बात करना!
कुछ और भी हो हिंदी
सिरमौर भी हो हिंदी
इससे हो वस्त्र छाया
इक कौर भी हो हिंदी!
हिंदी हो दफ्तरों में
हिंदी मिले घरों में
बहती हुई मिले ये
हिंदी चराचरों में!
संगीत वाद्य हिंदी
सबकी आराध्य हिंदी
बस पूर्ण हो कि इतनी
साधन और साध्य हिंदी!
विस्तृत फलक में हिंदी
कल की झलक में हिंदी
हमें गर्व हो हम बोलें
मद में तड़क में हिंदी!
पुरस्कार- डॉ॰ श्याम सखा की ओर सेरु 200 मूल्य की पुस्तकें।
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
गैरत पसंदों की भी
मितली हुई है हिंदी!
बहुत सुंदर भावनाप्रधान रचना तरव अमित जी बहुत-बहुत बधाई ! आपका आभार भी ! वह इसलिए क्योंकि आपने हिन्दयुग्म में हल्द्वानी का नाम जोड दिया। अपने मायके ह्ल्द्वानी से हिन्दी को लेकर चली थी मुंबई आज आपने अपनी रचना द्वारा हल्द्वानी की खूबसुरत वादियों को हिन्दयुग्म में पहुंचा दिया।
यह रचना, हिंदी कहीं नहीं है --- समस्या के विभिन्न पक्षों पर गंभीरती से विचार करते हुए कहीं न कहीं यह आभास भी कराती है कि अब सब कुछ बदल रहा है।
वाह! इस कविता की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह कम है।
वाकई यह हिन्द-युग्म के साहित्य निधी का हिस्सा बनने लायक है।
हम अमित जी के आभारी हैं जो उन्होने हिन्दी विषय पर इतनी बेबाकी से अपनी कलम चलाई
और हमें पढ़ने का सौभाग्य प्रदान किया।
बेहद प्रशंसनीय रचना!
हमें गर्व हो हम बोलें
मद में तड़क में हिंदी!
वाह....बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
कुछ और भी हो हिंदी
सिरमौर भी हो हिंदी
इससे हो वस्त्र छाया
इक कौर भी हो हिंद
hindi jis din jaroorto se jud gayee ,sabke liye apriharya ho jayegi.
sunder rachna ke liye badhayee.
congrats!thats simply gr8!!
एक एक पंक्ति सार्थक सुन्दर भावमय है अमित जी को बहुत बहुत बधाई
Sundar rachana
सच है.....हम मिलावटी हो चले हैं,पर हिंदी है......
तभी तो ये गुहार है .
बहुत बढिया
उत्साहवर्धन के लिए आप सभी लोगों का धन्यवाद ! हिन्द-युग्म का भी धन्यवाद की उसने इस कविता को साहित्यनिधि का हिस्सा बनाना चाहा है !
बढ़िया कविता. बढ़िया विषय. सबसे अच्छी बात है कविता में शब्दों को बहुत अच्छी तरह से समेट गया है.
हिंदी वही नहीं है
हिंदी वहीं नहीं है
हिंदी को जा के ढूंढ़ो
हिंदी कहीं नहीं है!
कुछ फूल रही है हिंदी
कुछ भूल रही है हिंदी
शब्दों की उलझनो में
यूँ झूल रही है हिंदी!
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