हिन्दी में बहुत कम आदिवासी कविताएँ रची जाती हैं। आदिवासी कविताओं का मतलब जिसमें आदिवासी जनजीवन हो, उनके दुख-दर्द हों, वे खुद हों। हिन्द-युग्म पर पिछले कई महीने से सक्रिय कवि सुशील कुमार आदिवासी कविता लिखने वाले कवि के तौर पर भी चर्चित हैं। इंटरनेट पर कम से कम ऐसी कविताओं का अभाव है। आज हम आपको एक ऐसी ही कविता से मिलवा रहे हैं।
आसाम से लौटकर हरिया सोरेन
[आसाम में उपद्रवियों द्वारा सताये गये झारखंडी भाई-बहनों की व्यथा-कथा सुनकर...]
सुशील कुमार की अन्य कविताएँ
अबकी अगहन में ही लौट आया हरिया
आसाम से अपने गाँव
अपने दो जन गँवाकर
बंधना परब से दो मास पहले
हरिया सोरेन अच्छा बजनियाँ है
मांदर बजाता है
बाँसूरी बजाता है
और परब के गीत खुद बनाता है
खुद गाता भी है
वह अच्छा चित्रकार भी है
दीवाल पर गेरू रामरस चूना सुरखी टेसू-जामुन से
हाथी ऊँट मोर फूल-पत्तियों के भाँति-भाँति के
सुन्दर-सुन्दर भित्ति-चित्र उकेरता है, गाँव-घर में
उसकी बहुत कदर है पचास का है वह
काका कहकर सभी हँकाते हैं उसे
इस बार मगर हरिया चुप-चुप रहता है
न कहीं आता-जाता है
न गीत ही लिखता है परब के
नीमिया के नीचे दिनभर दालान में
महुआ के मद्य में ओघराया
कभी ज़मीन टकटोरता तो
कभी अकास निहुरता है
एक जगह भोर का बैठा-बैठा
चिलम पर चिलम पीता
साँझ कर देता है
बीच-बीच में उसके होंठ हिल पड़ते हैं -
‘काहे ढिठाई की थी चुड़का तुने
हमरे संग चलने की
अपने घरवाली के कहने में आकर..’
तो कभी हुँकार मारकर रो पड़ता है -
‘बेटा बुधन नहीं बचा पाया तेरा यह
कायर बाप तुझे उपद्रवियों के कहर से।’
उसकी ललछौंही आँखों से ढरक आते हैं आँसू
उसके स्याह ओठ तक और पठार सी
उसकी काया थरथराने लगती है
उसकी संतानें सुखमुनी, बिटीया और पत्नी सुगिया भी
उसके साथ सिसकने लगते हैं।
-2-
धनकटनी पूरी हो गयी पहाड़ पर
माघ का महीना है, धान पीटे जा रहे हैं खमार में
पहाड़ी बस्तियों में रौनकें लौटने लगी हैं
गाँव के मुखिया-माँझी टोलों में
परब के दिन तै कर रहे हैं -
ऊपर टोला चौदह तारीख सोमवार
मरांग टोला सोलह तारीख बुधवार
कदम टोला बीस को
यानी अलग-अलग टोलों में बंधना-माघी के
अलग-अलग दिन धराये गये
सारा पहाड़ नवगति-नवलय-नवताल में है
पर हरिया के हृदय में पड़ा मौन टूट नहीं पाया
हराधन बेटाधन छोटका सभी आये समझाने-बुझाने
हरिया को पर हरिया उदास है
-3-
आज हरिया के गाँव में परब है
लड़के दल बनाकर ढोल-मांदर
बाँसूरी-तुरही झांझ बजा रहे हैं
लड़कियाँ हरे-नये परिधान में
फूल-पत्तियों और मिट्टी-कागज के
तरह-तरह के गहनों में सजी-सँवरी
एक-दूसरे की बाँहों में बाँहे डाले
लड़कों के दल को अर्धचन्द्राकार
पंक्तियों में घेरे थिरक रही हैं
सभी गा रहे हैं फसल के गीत और
बढ़ रहे हैं कदम दर कदम
हरिया की झोपड़पट्टी की ओर
सबकी आँखें ढूंढ रही हैं हरिया सोरेन को
पर दीख नहीं रहा कहीं हरिया सोरेन
-4-
पहाड़ की तराई में अकेला खड़ा हरिया गा रहा है -
(या कि दाढे़ मारकर रो रहा है)
उसके गीत में पहाड़ का दु:ख है
दहाड़ है चेतावनी है
अपने लोगों के लिये सीख है
वह गा रहा है और कह रहा है -
उठो, जागो मेरे भाई
वनदेवता तुम्हें जगा रहे हैं नींद से
अब और सोने का समय नहीं
तराई की ज़मीन पर जाओ
उबड़-खाबड़ टीले-टप्पर काटो-छाँटो
उसे चौरस बनाओ
कुँआ खोदो वहाँ हल-बैल लाओ
जोतो-बोओ, हम वीर सीदो-कान्हु की संतान हैं
भूलकर भी अब परदेस कमाना मत भाई
अपनी ज़मीन पर ही मेहनत-मजूरी करना
बाहर लोग हिकारत भरी नज़र से देखते हैं हमें
आसाम में अब तक हमारे सैकड़ों भाइयों को
मौत के घाट उतार दिया गया, मुम्बई से भी हमें
खदेरा गया। हमारी बेटियां हर दिन दिल्ली के बाज़ार में
बेची जाती है। हमारे बीच के लोग इसमें दलाल बनते हैं,
इन दलालों का मुँह काला करो, गाँव निकाला करो
हमें अपने जंगल बचाने हैं पहाड़ बचाने हैं
यहीं... पहाड़ की तराई में हम अपनी
छोटी सी दुनिया बसायेंगे
अब हम बाहर नहीं जायेंगे
उठो, जागो मेरे भाई
पहाड़ के देवता तुम्हें जगा रहे हैं।
--सुशील कुमार
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
परदेश में कमाना कितना कठिन है वो कविता के माध्यम से समझाया , सारी कवितये बहुत ही मार्मिक है, बहुत बहुत बधाई,
धन्याद
विमल कुमार हेडा
अपना देश,अपनी जगह,अपना ही होता है.
ऐसे न जाने कितने हरिया रोज़ी रोटी की तलाश मे भागते फिर रहे है ये उग्रवाद और राजनीति उन्हे कही जीने नही दे रही है.
हरिया का आपने बहुत जीवंत चरित्र चित्रण किया..बेहतरीन कविता सुंदर भाव पिरोए हुए....बधाई
आदिवासी कविता पहली बार पढ़ी है......बहुत सुन्दर जीवंत चित्रण आभार...
regards
आदिवासी जन जीवन की संस्कृति और मनोव्यथा की ग्रामीण भाषा -शैली में झलक दिखाई देती है .बधाई .
मर्मस्पर्शी विषय है , बहुत भीतर तक रूह को छूती रचना
--
Regards
-Deep
इतना दुर्दान्त चित्रण मन को विभोर कर गया ।आभार..।
आपकी कविता पढ़कर कुछ शे'र याद आ गए.
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चांद
परदेस के रास्ते में लुटते कहाँ हैं मुसाफ़िर
हर पेड़ कहता है क़िस्सा पुरवाईयाँ बोलती हैं
अच्छी रचना है | एक देहाती समस्या को उजागर करती है |
तथ्यों का अच्छा गठन | लेकिन कविता जैसी खुशबू चाहिए |
बधाई |
अवनीश तिवारी
सुशील जी आपकी कविता में कही भी श्रोता को बंधने जैसा भाव नहीं नज़र आया. सबसे पहली बात कही गद्यात्मक पद ही कही जा सकते है न की कविता. दूसरी बात कुछ ज्यादा ही लम्बी रचना है. तीसरी बात हर बात सीधे तौर पर कह दी गई है. जो की काव्य में खास अहमियत नहीं रखता.कही भी genralization नहीं नज़र आया.
रचना में concept बढ़िया है. सोच बढ़िया है. तखय्युल बढ़िया है .
पढ़ना शुरू जो किया तो कुछ ध्यान नहीं के क्या-क्या पढा,,,,,
हाँ,
आखिरी लाइन पर आकर आँख खुली...
:)
उठो, जागो मेरे भाई
पहाड़ के देवता तुम्हें जगा रहे हैं।
कविता को जेहन में उतरने के बाद टिप्पणी क्या करूं
बस इतना कहूँगा पलकें भीग गयी
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