सिदो-कान्हु की मूर्ति |
शोषण इस हद तक था कि इन आदिवासियों को 50 प्रतिशत से 500 प्रतिशत तक खेती-कर देना पड़ता था। जब सिदो मुर्मू और कान्हु मुर्मू ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई तो हज़ारो-हज़ार लोगों के समूह ने इनका स्वागत किया, जिन्होंने भोगनाडीह गाँव में जमा होकर खुद को स्वतंत्र घोषित किया और स्थानीय जमींदार, पूँजीपतियों, सूदखोरों के खिलाफ जंग छेड़ने की शपथ ली। कहा जाता है कि सिदो मुर्मू को अंग्रेज़ पुलिस ने पकड़ लिया और कान्हु एक एनकाउंटर में मारा गया। आज का दिन इसी क्रांति की याद में 'हुल दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
परंतु विडंबना यह है कि सिदो-कान्हु की पाँची पीढ़ी के वंशज सरकारी उपेक्षा के शिकार हैं। न इनके पास खाने को है, न पहनने-ओढ़ने को। झारखंड राज्य के बनने के बाद वर्तमान पीढ़ी की मुखिया बितिया मुर्मू को कुछ आस ज़रूर जगी थी कि शायद यह सरकार कुछ करे। लेकिन झारखंड बनने के आठ वर्षों के बाद भी इस परिवार, इस गाँव और इस क्षेत्र को कोई सुविधा मुहैया नहीं करा सकी सरकार। आलम यह कि इसी पाँचवीं पीढ़ी का वंशज बेटाधन मुर्मू भूखमरी की बलि चढ़ गया। उसे टीवी हुई, इलाज़ के लिए पैसे नहीं थे, खून की उल्टियाँ करता मरा।
कवि संवेदनशीलता का पर्याय होता है। सुशील कुमार इसी नवनिर्मित राज्य झारखण्ड की धरती के पुत्र हैं और आदिवासियों के दुःख, उनकी उपेक्षा, उनके प्रति अन्याय इनकी कविताओं में दृष्टिगोचर होते हैं। 14 जुलाई 2007 को बेटाधन मुर्मू के असामयिक निधन पर सुशील कुमार की कलम ने जो संवेदना प्रकट की, वो हम आपके समक्ष रख रहे हैं।
श्रद्धांजलि : दिवंगत बेटाधन मुर्मू को
कई बार गिरे और उठे बेटाधन मुर्मू तुम
उनकी चोट अपनी अदम्य छाती पर सहकर,
पर इस बार उठ गये हो सर्वदा के लिये।
रात से ही सुकी, दुली, जोबना, मंगल सभी
तुम्हारे शव पर पछाड़ें खा रहे हैं
हाँक रहे हैं, तुम्हें जगा रहे हैं
सिदो-कान्हु पर ज़ारी डाक टिकट
विकास का सब्जबाग़ दिखाकर
तुम्हारी तालियाँ बटोरने वाले
तुम्हारे ही भाई-बंधु
तुम जैसी चमड़ी के रंग वाले
तुम्हारी ही बिरादरी की भाषा बोलते
तुम्हारे भीतर पैठकर
शासन करते हैं तुम्हारे ऊपर
और तुम्हारी दुर्बल स्नायुओं में
बाहरी-भीतरी के भेद का ज़हर घोलकर
तुम्हें तोड़ लेते हैं हर बार
अपने पक्ष में अक्षर-अक्षर।
झारखंड बने आठ साल हो गये
पर कितनी बदल पायी, बेटाधन
झाड़-झाँखड़ झारखंडी भाई-बहनों की तस्वीर?
पहले तो बिहार पर तोहमत लगाते थे
और अलग प्रदेश की लड़ाई में तुम्हारा साथ लेते थे।
पर कितने सुखी हो पाये
झारखंड अलगने के बाद?
तुम्हारे पूर्वजों की आँखें तो
घुटन-शोषण से मुक्ति का सपना देखते-देखते
पथरा गयीं थीं, पीठ उनकी उकड़ूँ हो गयी थी
कंधे झुक गये थे...
और उनके जाने के बाद...
तुम भी बराबर लड़ते रहे
अपने बाप-दादों की वह लड़ाई
(जो विरासत में मिली तुम्हें।)
दु:ख है, तुम्हारी ज़मीन पर अंधेरा
अब भी कायम है !
समय बदला शासन बदला
मुद्दे बदले लड़ने के ढंग बदले
पर कितनी बदल पाये तुम अपनी तक़दीर
और कितना बदल सका जंगल का कानून?
भोगनाडीह के भूखे-नंगे लोग
चिथड़ों में लिपटे तुम्हारे शव को घेरे खड़े हैं
कातर नज़रों से निहार रहे हैं कि
इलाज़ की आस में
कैसे कराहते हुये ख़ून की उल्टियाँ करते
आखिरकार तुम्हारे साँस की डोर टूट गयी !
सुकी के पास इतने भी पैसे नहीं कि
अपने पति के अंत्येष्टि के वास्ते
दो गज कफ़न का इंतजा़म कर सके !
कुछ ही दिन हुए,
हुल-दिवस (तीस जून) पर
झक्क सफ़ेद कुर्ते वालों का
जमावड़ा था तुम्हारे गाँव में
वादों और घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी
उसने आकर भोगनाडीह में
और पक्का भरोसा दिया था कि
तुम्हें मरने नहीं दिया जायेगा
बेहतर इलाज के लिए बाहर भेजा जायेगा
पर हुआ वही जो
हर हुल-दिवस पर होते आया है, यानी
वक्ष तक वीर शहीद सिदो-कान्हु की प्रतिमा को
पुष्प-मालाओं से लाद, मत्था टेक
बखानते रहे घंटों
उनके वीरता की गाथाएँ, फिर
जेड श्रेणी की सुरक्षा-कवचों के बीच
चमचमाती गाड़ियों में बैठ
भोगनाडीह की कच्ची सड़कों पर
धूल उड़ाते हुये राँची कूच कर गये।
बेटाधन, तुम उसी वंशज के
पाँचवी पीढ़ी के संतान हो
जिसने तीरों से बिंध दिये थे
जुल्मी महाजनों को
अठारह सौ पचपन के हुल में, याद करो।
तुम्हारे हिस्से की लड़ाई
अभी खत्म नहीं हुई है बेटाधन
तुम्हारी ठंडी मौत ने
प्रदेश के जन-मन को मथ दिया है।
संथाल- भारत की प्रमुख जनजाति
हुल- क्रांति, आंदोलन, इंकलाब
1.संथाल-हुल- 30 जून 1855 को झारखंड के भोगनाडीह में हुआ जन विद्रोह
2.भोगनाडीह- वीर सिदो-कान्हु की जन्म स्थली
3.संदर्भ- वेबसंथाल्स
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26 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह क्या बात है.. बेहतरीन जानकारी शानदार कविता
santhalon ki kismat kab badlegee ,kraanti kaa koii dewta wahaan paidaa hona chahiye
इस रचना से स्प्ष्ट है कि सुशील कुमार जी आदिवासियों की दशा से सचमुच चिंतित हैं .. बहुत बढिया रचना है .. पूरा आलेख भी जानकारीप्रद है।
संथाल हुल दिवस ! ओर उन्ही के वंश्स भुख से मर रहे है ? वाह क्या बात है, लेकिन यह स्तिथि आम जनता के कारण नही, हमारी सरकार मै बेठे नेताओ ओर भर्ष्ट अफ़सरो के कारण है.
आप का पुरा लेख पढा, कवित भी पढी... बहुत सही ढंग से आप ने इसे प्रास्तुत किया.धन्यवाद
हुल दिवस को मेरी ओर से भी अभिवादन, साथ ही कविता को भी।
सच्चाई बताई है शब्दों मैं पिरो के बहुत सही रोंगटे खड़े कर देने वाली बात है !
संथाल हुल दिवस ! ki nayi jankari mili.आदिवासियों की दशा sochniy hai.
Hakikatka ko bataya hai.
Sarkar in ke vikas ke liye kam kare.
Badhayi
कई बार गिरे और उठे बेटाधन मुर्मू तुम
उनकी चोट अपनी अदम्य छाती पर सहकर,
पर इस बार उठ गये हो सर्वदा के लिये।
बहुत बहुत बहुत सुन्दर सुशील भाई.
भाई सुशील के विचार बहुत स्पष्ट और प्रभावी होते हैं लेकिन सभी विद्वान् मुझे क्षमा करें कि जो कुछ भी वो कहते है अगर गद्य ही रहने दें तो अधिक सार्थक और वेहतरीन लेखन हो. मैंने आपकी और भी कविताएं पढी हैं सबको पढ़कर यही महसूस होता है कि एक शानदार विचारक जबरदस्ती कविता लिखने की गैरज़रूरी जिद किये हुए हँ. आप कह सकते हैं कि और भी लोग अछान्द्सिक अपरम्परागत लिखते है और उसे कविता के रूप में जाना जाता है. उनके अपनी मजबूरी होगी वो जाने. लेकिन कविता मजबूरी का नाम नहीं है.
कविता लोगों की पीडा को अद्भुत रूप से स्वर देती है. आलेख से जानकारी मिली,बढ़ी. शुक्रिया.
SUSHEEL KUMAR KEE KAVITA MEIN
AADIVAASIYON KAA DUKH-DARD SHOCHNIY
HAI.KAVITA APNA SANDESH PAHUNCHAANE
MEIN SAKSHAM HAI.
कविता पढ़कर लगा जैसे संथाल जनजाति-भोगनाडीह के जन विद्रोह पर एक मोटी पुस्तक पढ़ ली हो। इतने कम शब्दों में एक जन जाति पर हुए शोषण को सफलता पूर्वक अभिव्यक्त कर सकने के लिए मुकेश कुमार जी बधाई के पात्र हैं। --शायद यही गद्यात्मक कविता शैली की सार्थकता है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
भूल-सुधार
सुशील कुमार जी की जगह मुकेश कुमार टाइप हो गया--इसका मुझे खेद है।
बर्बरता की मिसाल देखी
आज़ादी की मशाल के साथ
सिदो-कान्हु का नाम अमर
रहे देश के संथाल के साथ्
बेहतरीन कविता,खूबसूरत आलेख।
वीर कथा पसंद आयी,,
हरी जी का सुझाव ध्यान देने योग्य है..
vaah shushil jee kyaa baat hai!bahut khoob!!
कल से कविताई छोड़कर चौधरीगिरी करूंगा Manu भाई। आपकी सलाह माथे पर है।नमस्कार।
तो मैंने कुछ थोड़े ही कहा है जी...
हरी शर्मा जी को कहिये ना आप...!
मैंने तो अच्छा ही लिखा है न...?
:(
ditto Hari
ditto Manu
अच्छा लिख लेते हैं सुशील जी, आप गद्य में इस से बेहतर लिखते होंगे ?? आपके द्वारा लिखा साहित्य और पढना चाहेंगे .
हूल दिवस की जानकारी के लिए धन्यवाद.
बहुत खुबसूरत कविता लिखा है आपने और अच्छी जानकारी देने के लिए शुक्रिया!
बहुत ही बढि़या एवं ज्ञानवर्धक रचना के लिये बधाई ।
दु:ख है, तुम्हारी ज़मीन पर अंधेरा
अब भी कायम है !
समय बदला शासन बदला
मुद्दे बदले लड़ने के ढंग बदले
पर कितनी बदल पाये तुम अपनी तक़दीर
और कितना बदल सका जंगल का कानून?
मार्मिक रचना !
ज्ञानवर्धक रचना के लिये बधाई ।
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