समय-समय पर आप आसानी से निगल जाने वाली कविताओं का आनंद लेते रहते हैं, जिसमें कई बार हमें आइसक्रीम खाने जैसा सुख मिलता है, लेकिन यह सुख बहुत क्षणिक होता है, वास्तिकता का गरम धरातल अपनी ऊष्मा का वलय जल्द ही हमारे चारों तरफ बना देता है। लेकिन कुछ कविताएँ आसानी से समझ में नहीं आतीं। मस्तिष्क पर ज़ोर डालना पड़ता है। समय के सभी आयामों पर दिमाग की रोशनी डालनी पड़ती है। ये कविताएँ ऐसे ही असल ज़मीन की असल खोज़बीन की झलक होती हैं। कुछ ऐसी ही कविताएँ रचते हैं सुशील कुमार। सुशील कुमार जिन्हें हमने अभी कुछ दिन पहले ही कवि के तौर पर पकड़ा है, इस बार कविता-लेखन की परम्परा की बुनियाद पर ही सवाल उठा रहे हैं।
तुम्हारी कलम उनके पास रेहन है
तुम्हारे शब्दों के जंगल से छूटते ही
वे आँखें मुझमें वापस लौट आयी हैं
जिसने व्यवस्था के अंधेरे में बजबजाती
उस तवारीख को पढ़ ली हैं
जिसे चरित्रहीनता और लालच की स्याही से
तुम्हारी सियासी कलम ने
हमें पालतु बनाए रखने की नीयत से गढ़ी है
यह जानते हुए भी कि
हमारे पुरखों को आदिम पशुता ने नोंच खायी थी,
तुमने लिखा - ‘आदमखोर चिताओं ने।’
राजप्रासाद से बुर्ज़ों तक समूची रियासत की शान
हमारे पूर्वजों की घट्ठायी उंगलियों पर टिकी थी
फिर भी कसाईयों ने उन्हें कोड़ों से पीटा
हाथ तक काट डाले, पिरामीडों में राजाओं के
शवों के साथ ज़िन्दा दफ़न कर दिया
पर तुम्हारी कलम ने कभी खिलाफ़त नहीं की उनकी,
उल्टे उनके नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिये
चुप्पियों की मानिंद तुम्हारी यह हत्यारी हरकत
अब संसद से राजपथों को होती हुई,
पगडंडियों से गाँवों तक चली आती है
और उन झुर्रीदार चेहरों के हूक में समा जाती है
जो सन ‘47 के पन्द्रह अगस्त की मध्यरात्रि से
सपनों को अपनी पीठ पर लादे
नंगे पाँव उकडूँ होकर चल रहे हैं
जनतंत्र के पथ पर
मुझे मालुम है यह सब तुम्हें सुनना भाता नहीं
क्योंकि जनता के सुख-स्वप्न सब
पान की गिलौरियाँ बनाकर
जिन लोगों ने चबा ली हैं, उन्हीं ने तुम्हारी
बुद्धि भी खा ली है, क्या तुम...
बता सकते हो, बासठ साल के आज़ाद
मुल्क के इस बूढ़े आदमी के भीतर इतनी आग क्यों है,
उसकी आँखों में इतना धुआँ, इतनी राख, इतना मलाल क्यों है ?
नहीं...तुम चुपचाप अपनी रुसवाई सुनते रहोगे
और सुनकर भी अनसुनी करोगे
और, ‘यह देश विविधता में समरसता का देश है’
- लिखते रहोगे क्योंकि
तुम्हारी कलम आज भी उनके पास रेहन है
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26 कविताप्रेमियों का कहना है :
very good, i realy enjoy
बता सकते हो, बासठ साल के आज़ाद
मुल्क के इस बूढ़े आदमी के भीतर इतनी आग क्यों है,
उसकी आँखों में इतना धुआँ, इतनी राख, इतना मलाल क्यों है ?
बहुत ही सुन्दर.
एक बात जानना चौंगा के रेहन का क्या मतलब होता है.
व्याकरण की कई गलतियां हैं, मसलन,
जिसने (जिन्हों ने ) वयवस्था के अंधेरे में बजबजाती
उन तवारीखों (तवारीख )
आदिम पशुता ने नोंच खायी ( खाया )
उल्टे उनके नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिये ( दी )
हत्यारी हरक़त ( हरकत )
नंगे पाँव उकडूँ होकर चल रहा है ( रहे हैं )
उसी ने तुम्हारी ( उन्हों ने तुम्हारी )
दिल में दर्द और आग ,
फिर भी नहीं पाओगे भाग ,
कैसे कभी बदलेगी तस्वीरें,
कैसे मुल्क उठेगा जाग .
जब कलम आज भी रेहन है.....
Samvethanshil-vyangy rachana ke liye badhayi.
स्पष्टीकरण - मो. अहसन जी के द्वारा सुझाये व्याकरणिक अशुद्धियों का भान मुझे पहले से ही है। यह कविता जल्दबाजी में नहीं रची गयी है। लय के विधान के हिसाब से उसे वैसा रचा ही गया है।
सुशील जी ने कविता लिखने के बाद मुझे ही पहले पढ़ाई थी। यह उनकी बेहतरीन कविताओं में से एक है। इसकी भाषा शैली कविता को और भी जानदार बनाती है।
Really a realistic and nice poem. Thanks.
शमीख साहब,रेहन का अर्थ है बंधक या गिरवी । यह फारसी का लफ़्ज है।
दिमाग तो लगाना पड़ा भाई.. :-(.. पर अंत में निकला.. वाह...
sushil kumar ji,
atyant vinamrta poorvak.... yadi yeh khadi boli ki kavita hai to lay vidhaan ke anuroop vyakaran nahi badal jaae gi.
twaareekh apne aap mein bahu vachan hai, yeh lay vidhaan ke hisaab se tawaareekhon nahi ho jaae gi. isi prakaar ingit any ashuddhiyaan, ashuddhiyaan hi rahen gi.
atyant aadar sahit
ahsan
तुम्हारी कलम आज भी उनके पास रेहन है
bahut khoob vyatha kee shandar kath.
मैं अहसन जी के सुझावों का आभारी हूँ और उनका अहसान मानता हूँ। `हिन्द-युग्म' के संचालक सह संपादक श्री शैलेश जी से आग्रह है कि इस कविता में निम्नांकित प्रकार से व्याकरणिक बदलाव कर दें-
१) 'तवारीखों' की जगह 'तवारीख' ( उपर से चौथी पंक्ति )
२) "उकड़ूँ होकर चल रहा है" की जगह "उकड़ूँ होकर चल रहे हैं"
३)"चबा ली है, उसी ने" की जगह "चबा ली है, उन्हीं ने"
४) 'हरक़त' की जगह 'हरकत'
इसके अतिरिक्त अन्य संशोधनों के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ,क्योंकि कविता की लय का भी सवाल है। सादर।
- सुशील कुमार।
दिल में दर्द और आग ,
फिर भी नहीं पाओगे भाग !
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
बहुत अच्छी कविता.
बहुत बढ़िया.
बडिया कविता है आभार्
वर्तमान और भूत के एक अजीब से संगम को दर्शा रही है ये कविता। कवि कि ज़िम्मेदारी का भी कहीं ना कहीं खुलासा किया है आपने।
कविता में छुपा आक्रोश, व्यवस्था पर गहरी चोट करता है और उन बुद्धिजीवियों पर भी जो इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते----क्योंकि उनकी कलम तुम्हारे पास आज भी रेहन है।
-बेहतरीन कविता---।
साथ ही मुहम्मद अहसनजी के सुझावों को मानकर सुशील कुमार जी ने जिस विनम्रता का परिचय दिया है वह हम सभी के लिए अनुकरणीय है।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
अहसन जी ,
आपने जिस तरह से कविता के लिए सुझाव दिए और उसे विनम्रता पूर्वक ग्रहण किया गया ,प्रसंशनीय है |
जी में आता है कि अहसन
भाई जिंदाबाद बोल ही दू |
सुसील जी आपकी कविता हमने पढ़ी नहीं है ,जल्दी ही आपकी तारीफ़ में हम भी कशीदे पढेंगे |
मैडम जी ,कशीदे नहीं कविता पढ़िये। ज्यादा पढ़ना हो तो मेरे नाम पर नीचे ठोकर मारें,तुरन्त कविताओं के साथ आपके लैप्टॉप या डेस्क्टॉप पर हाज़िर मिलूंगा -
सुशील कुमार
लय ..........?
यदि हो तो कृपया मुझे लय में पढ़कर मेल करें...
अहसन जी ने जो ध्यान दिलाया है ...
वो प्रशंसनिय है...
राजप्रासाद से बुर्ज़ों तक समूची रियासत की शान
हमारे पूर्वजों की घट्ठायी उंगलियों पर टिकी थी
फिर भी कसाईयों ने उन्हें कोड़ों से पीटा
हाथ तक काट डाले, पिरामीडों में राजाओं के
शवों के साथ ज़िन्दा दफ़न कर दिया
पर तुम्हारी कलम ने कभी खिलाफ़त नहीं की उनकी,
उल्टे उनके नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिये
लाजवाब कविता
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव
अच्छी कविता बहुत बहुत बधाई
विमल कुमार हेडा
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