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Friday, September 04, 2009

सितुही भर समय


शहर और गाँव की घड़ी एक साथ नहीं चलती। दोनों की रफ्तार अलग-अलग है। बचपन और जवानी की घड़ी भी अपनी-अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है। प्रमोद कुमार तिवारी की यह कविता कुछ ऐसा ही बयान करती है-

सितुही भर समय

प्रमोद कुमार तिवारी की अन्य कविताएँ

  1. ठेलुआ

  2. दीदी

  3. भीड़

होते थे पहले कई-कई दिनों के एक दिन
माँ के बार-बार जगाने के बाद भी
बच ही जाता, थोड़ा-सा सोने का समय
कन्यादान किए पिता की तरह
आराम से यात्रा करता सूरज।

चबेना ले भाग जाते बाहर
घंटों तालाब में उधम मचा,
बाल सुखा, लौटते जब चोरों की तरह
तो लाल आखें और सिकुड़ी उंगलियाँ
निकाल ही लेतीं चुगली करने का समय।

कुछ किताबों के मुखपृष्ठ देख
फिर से निकल जाते खेलने के काम पर
गिल्ली डंडा, ओल्हा-पाती, कंचे, गद्दील
जाने क्या-क्या खेलने के बाद भी
कमबख्त बच ही जाता समय
मार खाने के लिए।
कितना इफरात होता था समय
कि गणित वाले गुरुजी की मीलों लंबी घंटी
कभी छोटी नहीं हुई।
..................

अब सूरज किसी एक्सप्रेस ट्रेन की तरह
धड़धड़‌ाते हुए गुजर जाता है
माँ पुकारती रह जाती है प्रसाद लेकर
और हम भाग जाते हैं बस पकड़ने
ऑफिस पहुँचने पर आती है याद
कि आज फिर भूल गया पत्नी को गले लगाना

काश गुल्लक में
जमा कर पाते कुछ खुदरा समय।
मुसीबत के समय निकाल
बगैर हाँफे चढ़ जाते बस पर।
स्कूल जाते गिल्ली डंडा पर हाथ आजमाने की तरह
ऑफिस जाते पूछ लेते मुन्नी से
उसकी गुड़िया की शादी की खबर

हुमच के ‘बौराए’ पिछवाड़े वाले आम को देख
एक मिनट हम भी बौरा लेते।
बेतहासा साइकिल चलाते, ऑफिस भागते दोस्त से कहते
अबे! ये ले पाँच मिनट, चल अब चाय पीते हैं।

काश! सितुही भर समय निकाल
ले लेते एक नींद का झोंका
झोंवेफ में होते सपने
सपने, जिन पर नहीं होता अधिकार
किसी और का।

प्रमोद कुमार तिवारी

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17 कविताप्रेमियों का कहना है :

seema gupta का कहना है कि -

कन्यादान किए पिता की तरह
आराम से यात्रा करता सूरज।
" समय का चक्र घुमता रहता है और हर समय एक जैसा नहीं होता कितना बदल जाता है....सुन्दर अभिव्यक्ति.."

regards

Anonymous का कहना है कि -

बचपन को बहुत ही सुन्दर शब्दों में ढाला है, बहुत बहुत बधाई,
धन्याद

विमल कुमार हेडा

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

यह समय है जो हमे कहाँ से कहाँ तक पहुँचा देता है.सुंदर यादें उकेरी आपने..बेहतरीन कविता..

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

विषय अच्छा है , कहने का क्रम भी बिल्कुल सही लगा और रोचक भी, बस शिल्प याने गद्यांश को हटा सुधारा जाए तो और सुन्दर लगे |

इस सुन्दर रचना के लिए बहुत बधाई |


अवनीश तिवारी

Manju Gupta का कहना है कि -

बचपन का बचपना और जवानी के अहसासों ,कर्तव्यों को बोध कराती सुंदर रचना है .बधाई .

neelam का कहना है कि -

कविता तो नहीं गद्यात्मक पद्य ही कहा जा सकता है ,कुछ उपमाओं ने मन को खुश किया है ,मसलन


काश गुल्लक में
जमा कर पाते कुछ खुदरा समय।


कुछ किताबों के मुखपृष्ठ देख
फिर से निकल जाते खेलने के काम पर

घंटों तालाब में उधम मचा,
बाल सुखा, लौटते जब चोरों की तरह
तो लाल आखें और सिकुड़ी उंगलियाँ
निकाल ही लेतीं चुगली करने का समय।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

पहला पद बहुत ही बढ़िया लगा. आपने जो उदहारण दिया वो काबिले तारीफ है.

होते थे पहले कई-कई दिनों के एक दिन
माँ के बार-बार जगाने के बाद भी
बच ही जाता, थोड़ा-सा सोने का समय
कन्यादान किए पिता की तरह

आराम से यात्रा करता सूरज।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

यह भी खूब रही.

जाने क्या-क्या खेलने के बाद भी
कमबख्त बच ही जाता समय
मार खाने के लिए।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बहुत अच्छा लगा.

काश गुल्लक में
जमा कर पाते कुछ खुदरा समय।
मुसीबत के समय निकाल
बगैर हाँफे चढ़ जाते बस पर।
स्कूल जाते गिल्ली डंडा पर हाथ आजमाने की तरह
ऑफिस जाते पूछ लेते मुन्नी से
उसकी गुड़िया की शादी की खबर

Shamikh Faraz का कहना है कि -

अंत भी सुन्दर है.

काश! सितुही भर समय निकाल
ले लेते एक नींद का झोंका
झोंवेफ में होते सपने
सपने, जिन पर नहीं होता अधिकार
किसी और का।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

आपने कविता में उदहारण हो बढ़िया दिए लेकिन वही नीलम जी वाली बात कविता गद्यात्मक पद्य है.

manu का कहना है कि -

नीलम जी की बात से पूरी तरह सहमत...

कुछ नयी उपमाएं जरूर मिली पढने को...

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

अबे!ले ये पाँच मिनट, चल अब चाय पीते हैं।
--अनूठा प्रयोग, बेहतरीन कविता
मन प्रसन्न हो गया।
--देवेन्द्र पाण्डेयं।

आलोक उपाध्याय का कहना है कि -

वाह भैया वाह ....इतना प्यारा शीर्षक ......... खाटी भोजपुरी, बड़ी ही प्यारी

"एक दम से जान निकल गईल ...आज फिर एहसास भईल की केतना दूरी हो गईल बा गांव से ... सितुही भर "

जियत रहा भईया अउरी ऐसहीं लिखत रह

ismita का कहना है कि -

aapki kavita ne bahut prabhavit kiya...par "situhi" ka arth main nahi samajh payee thi...maa se puchne par...kavita k sheershak ne aaur jyada prabhavit kiya...phir shesh teeno kavitayein bhi padheen...bahut samay baad itni umda bhavovyakti mahsoos ki..."didi"...padhkar man bhar aya...to "bheed" ne bahut der sochne par majboor kar diya...

kash gullak mein.....bagair haanfe...bas par , bahut achha laga
itni achhee rachnayein padhne ka avsar dene k liye bahut bahut dhanyawad.

आलोक उपाध्याय का कहना है कि -

सितुही "बालू में से निकलने वाला बड़े आकार का सीप कवच ..जिसका प्रयोग आज भी पूर्वोत्तर भारत के ग्रामीण घरों में माताएं अपने शिशुओं को दूध पिलाने या दवाइयाँ पिलाने के लिए करती हैं और किसी भी वस्तु की थोडी सी मात्रा को प्रदर्शित करने के लिए भी इस शब्द का भरपूर प्रयोग होता है ............ बच्चे इसको खेल के रूप में भी इकठ्ठा करते हैं..जहाँ तक मैंने अपना बचपन जिया है मैं वहीँ तक बता रहा हूँ "

neelam का कहना है कि -

alok ji aapko dhanyavaad .situhi ka arth sirf thoda ya satahi hi liya tha humne .

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