आज हम इनकी एक कविता प्रकाशित कर रहे हैं, जो पिछले महीने की प्रतियोगिता में ५वें स्थान पर रही।
पुरस्कृत कविता- भूख तुम्हारी
उसकी नज़र तुम्हारी भूख पर नहीं
भूख से उपजी उस भाषा पर है
जो उसकी बुद्धि के
तिकड़मी दाँतों के बीच फँसती हुई
धीरे-धीरे कुर्सी के विज्ञापनों में तब्दील हो गयी है।
इस समय इतना ही काफ़ी है कि
तुम भूख से मरने वाले अधमरे लोग
सत्ता-संप्रभुओं की मँडराती काली छायाओं के बीच
किसी तरह ज़िन्दा हो !
पर भूख से मर जाने वाले लोगों की अर्थियों पर
भूख की ही भाषा में नित रचे जा रहे ढोंग के आँसू
और कितने दिन सहोगे तुम ?
क्योंकि भूख पर तुम्हारी जुंबिश अब तक
जोगीड़ा की आवाज़ जैसी रही है
शोधपत्रों से घोषणा-पत्रों तक जिसे
अक्षर-अक्षर अपने पक्ष में तोड़ लिया गया है।
और इस थकान भरी यात्रा में
ख़ून-पसीने से लथ-पथ तुम्हारी भूख
जागरण में टिकने के बजाय
तुम्हारी नींद में निढाल हो गयी है
यह बेहद अफ़सोसनाक़ है।
बहुत दुखद है कि
उसकी हवस हमेशा
तुम्हारी भूख पर भारी पड़ती है
जो हरदम कूट-पीसकर तुमको खाती है।
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ७॰४५
औसत अंक- ६॰४७५
स्थान- छठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ७॰७, ६॰४७५ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ६॰०५८३३
स्थान- प्रथम
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
कितना बड़ा अंतर्विरोध है यह की आजादी के इतने सालों बाद भी एक कवि को भूख पर कविता लिखनी पड़ती है...
बधाई
उसकी हवस हमेशा
तुम्हारी भूख पर भारी पड़ती है
जो हरदम तुमको कूट पीस कर खाती रहती है............
ये अन्तिम शब्द ख़ास तौर पर पसंद आए...
एक दमदार कविता से रु-ब-रु हुआ। काफ़ी अच्छा लगा, कविता में ना सिर्फ़ शिल्प की सुन्दरता है; वल्कि इसका भाव मन को छू जाता है।
"इस समय इतना ही काफ़ी है कि
तुम भूख से मरने वाले अधमरे लोग
सत्ता-संप्रभुओं की मँडराती काली छायाओं के बीच
किसी तरह ज़िन्दा हो !"
बहुत-बहुत धन्यवाद ।
बहुत दुखद है कि
उसकी हवस हमेशा
तुम्हारी भूख पर भारी पड़ती है
जो हरदम कूट-पीसकर तुमको खाती है।
ये पंक्तियाँ अच्छी लगीं
सादर
रचना
कविता अंत में अच्छी बन पड़ी है...
तुम्हारी भूख पर भारी पड़ती है
जो हरदम कूट-पीसकर तुमको खाती है।
ये पंक्तियां बहुत ही बेहतरीन रहीं आभार.
किसी की मझ्बुरी का फायदा लोग किस तरह उठाते है, अच्छा वर्णन किया ह,ै बधाई
विमल कुमार हेडा
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