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कब होगा ऐसा?


सैकड़ों चेहरे गुजरते हैं हररोज़ सामने से

पर तुमसा कोई चेहरा नज़र नहीं आता।


यूँ तो मिलते हैं कदम-कदम पे हाथ हमदमों के

थाम ले वक़्त पर, कोई हाथ ऐसा बढ़कर नहीं आता।


जाने क्या उसूल हैं, तेरे यहाँ पैग़ामों के

अर्सा हुआ, तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता।


कब से इस दोज़ख़ में जी रहा है आदमी

जाने क्यूँ कोई पैगम्बर नहीं आता।


तुमको सकूँ मिले, मैं तो बस मौत चाहता हूँ

कुछ बात है जो हमपर ख़ुदा का क़हर नहीं आता।।


शब्दार्थ-

नामाबर- संदेशवाहक

दोज़ख़- नर्क

शुरूआत नये रिश्ते की


जी करता है कि
एक प्रहार करूँ
और कर दूँ तार-तार
आसमान को

तोड़ दूँ सारी धारणाएँ, अवधारणाएँ
कि अपने क़दमों से खींच दूँ
एक पगडण्डी
इस धरा से उस गगन तक
जिससे उतर कर
स्वर्ग इस धरती पर आ सके

फोड़ दूँ पाताल
और मुक्त कर दूँ
उन आत्माओं को
जो सदियों से
कई पर्तों के नीचे दबी हैं

बाँध लूँ सूरज को
और, करूँ शुरूआत
एक नये रिश्ते की
आदमी और समय के बीच।।


कवि- मनीष वंदेमातरम्

इस फागुन ज़रूर से ज़रूर आना


मेरे गाँव की काली माँई
बड़ी परतापी हैं
सबकी मनौती पुराती हैं
पाँच नारियल माना था मैंने
बोर्ड में सेकेण्ड डिवीजन पास हुआ
गाँव की हर नई बहुरिया
उनको चुनरी चढाती है


गाँव के पच्छिम जो पीपल है
उस पर दइत्रा बाबा रहते हैं
एकबार सोनवा के बाबू पर सवार हुए थे
एक बोतल दारू ओर दो चिलम गांजा से जान बची
जब बाबा मरे थे
बाबूजी इसी पीपल पर
कलसे में पानी टांगा करते थे
अब वो कलसा नहीं है
'''''''''''''बाबा पियासे होंगे


मेरे गाँव का जो रस्ता है
जिसकी छाती पर, आज भी
बचपन से अब तक के
मेरे पैरों की नाप है,
मेरा घर जानता है
तुम आँख बन्द करके भी आओ
तुम्हें मेरे घर तक पहुँचा ही देगा
ये तो पहले भी बता चुका हूँ
मैं और मेरे गाँव का चाँद
हमजोली हैं
माँ ने दोनों को चांदी की कटोरी में
साथ-साथ दूध-भात खिलाया है


जब सरसों के फूल खिलें
जब आमों में बौर लगे
मटर-तीसी फुलाने लगें
झुरमुट में छिपी कोयल बुलाने लगे
मेरे गाँव मत आना
इतनी सुन्दरता तुम्हें बाउर कर देगी


आना जब बारिश हो
आह मेरे गांव की बारिश
पूरे मन से बरसती है
बचपन में खूब भीगा हूँ इसमें
और मारा है बाबूजी ने
बाबूजी की मार याद नहीं
पर बारिश की फुहार आज भी याद है


मेरे गाँव का रस्ता
मेरे गाँव का पीपल
मेरे गाँव की बारिश
मेरे गाँव की कोयल
सबसे तुम्हारी बातें करता हूँ
इस फागुन ज़रूर से ज़रूर आना
मिलवाऊँगा सबसे।


कवि- मनीष वंदेमातरम्


शब्दार्थ-

माँई- माँ
परतापी- प्रतापी, शक्तिवाली
दइत्रा बाबा- एक तरह की काल्पनिक शक्ति
कलसा- कलश
बाउर कर देना- बौरा देना, मतवाला बना देना

चाहता हूँ मैं


नहीं चाहता मै
संकेन्द्रित हो जाओ तुम

मैं तो चाहता हूँ
टूट-टूट के बिखर जाओ
हर प्राण में

जलो
ताकि प्रकाशित हो अंतस
मिटे तमस

बन के सुवास
घुल जाओ वायु में
कि सुवासित हो
घर का कोना-कोना

मैं चाहता हूँ
कि तुम दब जाओ
नींव की तरह
जिससे बुनियाद बन सको
एक अकलुषित समाज की

मैं चाहता हूँ
कि तुम मर जाओ
ताकि फिर जनम ले सको
और कर सको समर्पित पुनः
सर्वस्व
ताकि
दुनिया कुछ और दिन साँस ले सके।।


कवि- मनीष वंदेमातरम्

आओगी ना?


ये माना कि

हम किनारे हैं, एक नदी के

मिल नहीं सकते

पर, बैठ के उसपार

इस पार

जब आवाज़ दूँगा तुमको

सुन के मेरी आवाज़

तुम आवोगी ना?



जब होंगे दिन बोझिल

रातें भारी

जब आँखें होंगी बेख़्वाब

चूक जायेंगी बातें सारी

तब बन के मीठी याद

मुझे हँसावोगी ना?



भीगोगी जब किसी बारिश में

और पोछोगी तौलिये से बदन अपना

जब याद आयेगी शरारत मेरी

तब गीली आँखों से मुस्कुराओगी ना?



कोई दे जायेगा ख़बर

जब मेरे मरने की

तब ढांप के दुपट्टे से

मुंह अपना

तुम ज़ार-ज़ार आँसू बहाओगी ना?



जब गुजरूँगा तुमसे

बन के हवा का झोंका

तब भरने को अपनी बाँहों में

अपनी बाँहे फैलाओगी ना?



बोलो!

सुन के मेरी आवाज़

तुम आओगी ना?


कवि-मनीष वंदेमातरम्

तुम्हारी कमी


ज़िंदगी तो कटती है
धीरे-धीरे कट जायेगी
पर
कमी तुम्हारी रह जायेगी।

छू लूँ आसमान तो क्या
तुम्हारे बिना,
तुमको छूने की हसरत
कवाँरी रह जायेगी।।

लाख बरसे घटायें तो क्या
लाख गाये हवाएँ तो क्या
'तुमको पा न सका'
इन फ़िज़ाओं में , ये
मेरी आह की चिंगारी रह जायेगी।।


कवि- मनीष वंदेमातरम्